Tuesday, November 3, 2009
विकास की गंगा में बह गयीं गंगा मैया
गंगोत्री के दर्शन को चलते चले जाइए लेकिन रास्ते में अपने प्रवाह-मार्ग में कहीं गंगा नहीं मिलेंगी। भागीरथी भी नहीं। उत्तरांचल के नरेंद्र नगर से चंबा तक सड़क मार्ग की यात्रा कर आगे बढ़िए और फिर देखिए महाकाय विकास के भीषण चमत्कार। अगर आपने 2005 के पहले कभी इस गंगोत्री के पथ पर गंगा के दर्शन किए होंगे तो निश्चित तौर पर आपकी आंखें ये देखकर फटी रह जाएंगी कि ये क्या हो गया है गंगा मां को? इसकी सांसे थम क्यों गई है? कहां है गंगा के प्रवाह की कल-कल ध्वनि? कहां हैं गंगा की उत्ताल तरंगे, इठलाती-बलखातीं लहरें और गंगा के पारदर्शी जल में गोते लगाते जलीय जीवों-मछलियों के नृत्य?
विलसन की विरासत को अपना मानने वाले लील गए गंगा को। हां, विलसन जिसके बारे में कहा जाता है कि 1859 में उसीने पहली बार गंगोत्री और आस-पास के गांव वालों को ‘विकास की गंगा’ के दर्शन कराए थे। महाराजा टिहरी से उसने कुछ वर्षों के लिए गंगोत्री और आस-पास के गांव-जंगल पट्टे पर लिए और फिर देवदार के घने जंगलों पर कहर बरस पड़ा। देवदार के पेड़ काट-काट कर उसके लट्ठे गंगा में बहा दिए जाते। ऋषिकेश और हरिद्वार में उन्हें एकत्रित कर फिर देश के अन्य इलाकों में विकास की गंगा बहाने के लिए भेजा जाने लगा।
विलसन ने रास्ता दिखाया और फिर तो इस देवभूमि को मानो नजर ही लग गई ‘विकास पुरूषों’ की। क्या गंगा-भागीरथी और क्या अलकनंदा जिधर देखिए इस समय विकास की गंगा बहने लगी है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस विकास-गंगा को बहाने के लिए असल गंगा को हमारे नीति निर्धारकों ने पहाड़ों के भीतर सुरंगों में ढकेल दिया अथवा बांध बनाकर उसके प्रवाह को विशाल जलाशयों में तब्दील कर दिया।
क्या टिहरी और क्या मनेरी-भाली, धरासू, डुण्डा, उत्तरकाशी, लोहारीनागपाल सभी स्थानों पर गंगा के प्रवाह के स्थान पर आपको ठहरा-सिमटा-उथला जल दिख जाएगा। चंबा से धरासू की ओर आगे बढ़िए और जरा एक नजर गंगाजी की ओर देख भर लीजिए, अगर आपमें आत्मा होगी तो शायद कलपने में देर नहीं लगेगी। हमने गंगाजी के साथ ये क्या कर डाला? क्यों कर डाला? जिस जल को अमृत मानकर हमने उसकी पूजा की थी, जिसकी एक बूंद के लिए इस धराधाम पर मानव अपने अंत समय में आज भी तरसता है, मुख में एक बूंद पड़ जाए तो जीवन धन्य मानकर आगे की यात्रा पर सुखपूर्वक निकल पड़ता है, उस पवित्र जल पर मीलों तक पसरी हरी कायिक-शैवाल परत बता रही है कि मां स्वयं ही चिरनिद्रा में चली गई है। करोड़ों को जीवन देने वाली गंगा अपने उपर जमा काई, गाद, गंदगी को साफ करने में असमर्थ हो चली है। धरासू में मां के तट पर पहुंचे तो लोगों ने कहा, भैया, वहां जलाशय के पास मत जाइए। तट के पास जमीन धंस सकती है, दूसरे पानी से दुर्गंध भी आती है। यहां आचमन भी मत करिए क्योंकि इसे अब कोई गंगाजी नहीं कहता, ये तो जलाशय है सिर्फ एक जलाशय। पूजा-पाठ उत्तरकाशी में ही करिए।
धरासू तक तो टिहरी का विशाल जलाशय ही फैला हुआ है। करीब 42 वर्ग कि.मी. के विस्तृत भूभाग में फैले इस विशालकाय जलाशय में भागीरथी और भिलंगना के साथ अनेक नद-नालों और बरसाती जल का समागम होता है। टिहरी बांध सन् 2005 में पूरा हुआ था। जाने कितने ‘विलसन’ इस बांध को बनवाने में तर गए। उनकी कई पीढ़ियां तर गईं। हजारों करोड़ का वारा-न्यारा हो गया। बावजूद इसके पचास साल तक बिजली मिल जाए तो कहिएगा? पचास साल के लिए पचास हजार साल से अधिक प्राचीन प्रवाह की हत्या करने में पीछे नहीं हटे ये ‘विलसन’ के बेटे। मनेरी ने एक इंजीनियर ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि मनेरी-भाली प्रथम चरण परियोजना ‘फेल’ होने के कगार पर है। कुल क्षमता का 50 प्रतिशत भी नहीं मिल पा रहा है इससे। दूसरे लोहारीनाग पाला में जो विध्वंस एन.टी.पी.सी. ने किया है उसके कारण पहाड़ों की गाद, मिट्टी तेजी से बहकर जलाशय में आ गई है। जलाशय तेजी से उथला हो रहा है। कुछ वर्षों में ये परियोजना अपने आप ही बंद हो जाएगी या फिर बंद करनी पड़ जाएगी। मैंने पूछा-कितने साल पहले बनना शुरू हुई थी ये परियोजना और बिजली कब से मिल रही है? उन्होंने बताया कि 1984 के करीब यहां उत्पादन प्रारंभ हो गया था। उनके अनुसार, ये मनेरी भाली परियोजना ही वह प्रथम परियोजना है जिसके द्वारा पहली बार गंगा का अविरल प्रवाह बांधा गया। टिहरी बांध के पीछे तो गंगा को बहुत बाद में रोका गया, उससे पहले यहां गंगा को पूरे तौर पर रोक दिया गया था।
धरासू से आगे बढ़िए तो उत्तरकाशी के रास्ते पर गंगा का लगभग शुष्क प्रवाह पथ दिखाई देने लगता है। इसके पहले तक तो टिहरी जलाशय के दर्शन हो रहे थे। और प्रवाह पथ भी कैसा, जैसे मां सुबुक रही हो। जैसे मां बता रही हो कि लानत है मेरे बेटों, तुम सबके जीवित रहते ही विलसन के बेटों ने मेरे साथ ‘बलात्कार’ कर डाला। मेरी इज्जत, मेरी अस्मिता, मेरी जिंदगी सब छीनकर उसे पहाड़ी सुरंगो के हवाले कर दिया। मुझमें अब कुछ नहीं बचा है। मेरे अंदर की स्पंदित उर्जा से अब तुम्हारी दिल्ली, तुम्हारे बड़े शहरों और कारपोरेट घराने रोशन हो रहे हैं। मैं तो खुद एक जिंदा लाश में बदल गई हूं। घुट-घुट कर मर रही हूं, घुट-घुट कर बह रही हूं।
धरासू के आगे बढे तो पता चला कि गंगा का जल आगे मनेरी भाली द्वितीय जल विद्युत परियोजना के जलाशय में रोक दिया गया है। मनेरी भाली प्रथम चरण की परियोजना के जलाशय से गंगा के प्रवाह को सुरंगो में डाल कर उसे उत्तरकाशी के समीप पहाड़ों के अंदर से मनेरी भाली द्वितीय चरण तक पहुंचा दिया गया है। मनेरी भाली द्वितीय चरण का उद्धाटन अभी पिछले साल ही भाजपाई मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खण्डुरी ने किया है। तो उत्तरकाशी के 13 कि.मी उपर मनेरी बांध से शुरूकर उत्तरकाशी के बाद डुण्डा गांव तक गंगा लगभग पूरे तौर पर सुरंगों में ही बहती हैं। डुण्डा के आगे बढ़ते ही गंगा धरासू में टिहरी जलाशय में समा जाती हैं। अर्थात धरासू और डुण्डा से उत्तरकाशी की ओर बढ़ने पर गंगा के प्रवाह में जल नहीं के बराबर दिखता है। जो जल दिखता भी है वह अन्य सामान्य पहाड़ी नदियों का रहता है न कि गंगा का। गंगा का जल मनेरी-भाली से जुड़ी दोनों परियोजनाओं के जलाशयों में ही रोक दिया जाता है और जब उपर से कोई आदेश आता है तभी जल छोड़ा जाता है। इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि लोहारीनागपाला परियोजना पूर्ण हुई तो गंगा का प्रवाह लगभग 14-15 कि.मी. तक पुन: सुरंग में ही बहेगा।
उत्तरकाशी से गंगोत्री पथ पर आगे बढ़िए तो स्पष्ट हो जाता है कि हमारे हुक्मरानों के दिमाग में कैसा तमस छा गया है। गंगा के प्रवाह पथ के दोनों ओर भीषण तोड़-फोड़ चल रही है। पहाड़ों के अंदर डायनामाइट लगा-लगाकर सुरंगों के लिए रास्ते साफ किए जा रहे हैं। पहाड़ों की चोटी पर स्थित गांव के गांव बदहाल हो गए हैं।
लोहारीनागपाला के पास गंगा के प्रवाह को फिर से जिस 14 किमी. की सुरंग में ले जाने की तैयारी है उसमें से 2 कि.मी. तक सुरंग बनकर तैयार हो चुकी है। लोहारी नागपाला परियोजना एन.टी.पी.सी. अर्थात केंद्र सरकार की है। सुरंग निर्माण का ठेका किसी ‘पटेल समूह’ को दिया गया है। जब ये परियोजना पूरी हो जाएगी तो गंगोत्री के बिल्कुल ही समीप भैंरोघाटी परियोजना का नंबर लग जाएगा। अर्थात गंगा के प्रवाह को गंगोत्री के पास ही समाप्त कर देने की परियोजनाओं को हमारे नीति निर्माता हरी झंडी दिखा चुके हैं।
उत्तरकाशी में हमें मिलीं साध्वी समर्पिता। उन्होंने परियोजनाओं को लेकर सरकार और प्रशासन की दिलचस्पी का जो वर्णन सुनाया वह चौंकाने वाला था। साध्वी समर्पिता पिछले साल प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल के आमरण अनशन के समय उनके साथ थीं। वे उस समय साधनारत थीं। लेकिन प्रोफेसर अग्रवाल की आवाज सुनकर वस्तुस्थिति को समझने और उसके अध्ययन में जुट गईं। उन्होंने गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक के सभी प्रमुख ग्रामों का दौरा किया। हजारों लोगों से मिलीं। और गंगा की दुर्दशा के प्रति साधारण ग्रामवासियों के दु:ख से प्रेरित हो कर उन्होंने खुद भी उत्तरकाशी में अनशन शुरू कर दिया। उनके संघर्ष में अनेक स्थानीय युवक और युवतियां खुलकर सामने आ गए। साध्वी मणिरत्ना, शिवकुमार, अमित आदि तो उनके सहचर बने ही, लोहारीनागपाल के पास स्थित गांव सूखी की प्रधान कुसुम रावत, अतर सिंह, धराली गांव की प्रधान ममता पंवार, पुराली के पास जसपुर गांव के पूर्व प्रधान शैलेंद्र सिंह सहित बड़ी संख्या में स्थानीय लोग उनके आंदोलन से जुड़े।
यहां ये बताना आवश्यक है कि ये सभी गांव लोहारीनागपाला एन.टी.पी.सी. परियोजना के द्वारा दिन-रात की जा रही विस्फोटों और उससे उत्पन्न भयानक खतरों को झेल झेल कर आजिज आ चुके हैं। रात-दिन विस्फोटकों का कहर बरसता है। और जब भीतर से डायनामाइट पहाड़ों का सीना छलनी करते हैं तो उन पहाड़ों के उपर बसे छोटे-छोटे गांव सिहर उठते हैं। दर्जनों घरों में दरारें पड़ चुकी हैं। इन गांवों के कुओं का पानी सूख गया है। प्राकृतिक जलस्रोत विस्फोटकों के ताबड़-तोड़ प्रहारों और कम्पन्न के कारण अपना मार्ग बदल चुके हैं। इसका दुष्परिणाम गांव पर सीधे तौर पर पड़ा है। अनेक परिवार अपना पुश्तैनी घर छोड़कर रिश्तेदारों के यहां रहने को बाध्य हैं तो शेष का जीवन अत्यंत कठिन और दुश्वार हो चला है।
धराली गांव अब तक अपने रसीले सेब के बागों के लिए जाना जाता रहा है। यहां नाशपाती, सेब के बाग रोजगार के लिहाज से स्थानीय आबादी की आवश्यकता पूर्ति के सबसे बड़े माध्यम हैं। लेकिन लोहारीनागपाल के विस्फोटकों की बयार और पहाड़ों के विध्वंस का दुष्प्रभाव इन बागों पर साफ दिखाई दे रहा है। जो बाग लाखों में उठते थे अब व्यापारी उन्ही बागों की कीमत हजारों में तौल रहे हैं। जाहिर है कि उत्पादन और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो गई है।
सूखी गांव की प्रधान कुसुम रावत ने बताया कि हमारा सारा दैनिक जीवन प्रभावित हो गया है। पिछले दिनों जब परियोजना का विरोध बढ़ गया तो प्रशासन और ठेकेदार से जुड़े लोग गांव वालों को धमकाने लगे। गांव वाले डर-सहम गए। हमने पूछा कि रोजगार की बाबत क्या फायदा मिला तो उनका उत्तर था-ऐसा रोजगार किस काम का? हमारे बच्चे कोई अफसर बन रहे हैं क्या? ये ठेकेदार 14-16 साल के बच्चों को ले जाकर उनसे मजदूरी करवा रहे हैं? इससे ज्यादा कमाई तो गंगोत्री यात्रा पर आने वाले तीर्थयात्रियों की जरूरतों को पूरी कर भी हो जाती है।
उरी गांव के दिनेश ने बताया कि पिछले दिनों काम बंद हो गया था। मैं तब परियोजना में मजदूरी पर लगा था। काम बंद हो गया तो मैंने गांव से जाना बंद कर दिया। एक दिन एक साथी आया और शाम को मुझे लोहारीनागपाल सरकारी बाबू से मिलने की कह गया। मैं पहुंचा तो ठेकेदार भी वहीं थे। कहने लगे, सुन, अब काम रात में होगा। आज से तू रोज आ जाया कर। फिर क्या था, मैं रात में काम करने लगा। सुरंगों के भीतर हमें ले जाते। वहां रात में विस्फोट से पहाड़ तोड़े जा रहे हैं और मलबा-पत्थर निकालने का काम हो रहा है। दिनेश ने बताया कि ठेकेदार किसी न्यायालय के स्टे की बात कह रहे थे और ये भी कह रहे थे कि क्या फरक पड़ता है, सरकार तो हमें काम जारी रखने को कह रही है।
झाला गांव के एक विद्यालय में पढ़ाने वाली सुश्री तारा ने कहा कि ये प्रशासन और ठेकेदारों ने झूठी बात फैलायी है कि स्थानीय लोग परियोजना के पक्ष में हैं। तारा स्वयं गंगोत्री के पास पुराली गांव की रहने वाली हैं। तारा के अनुसार, गंगोत्री और लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों में रहने वाली करीब 5000-7000 की आबादी में शायद 50-100 ही होंगे जो परियोजना से सीधे तौर पर फायदे के लिए जुड़े हैं। वही इसके समर्थक भी हैं बाकी तो सभी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। लेकिन यहां लोग बहुत ही सीधे हैं, पढ़े-लिखे कम हैं, मां-बहनें भी कम पढ़ी-लिखी हैं। इसलिए कोई सरकार के विरूध्द नहीं बोलता। लेकिन आप जाकर मिलिए, आपको पता लग जाएगा कि गांवों में गंगाजी के साथ हो रहे खिलवाड़ को लेकर लोगों में कितना दर्द है। लोग दु:खी हैं लेकिन क्या कर सकते हैं जब सरकार ही गंगाजी को मारने में लग गई है। यहां जिन लोगों ने गंगा पर बन रहे बांधों से पैसे कमाए हैं, सबकी दुर्गति हो रही है।
गंगनानी बाजार के शिवकुमार ने बताया कि लोहारीनागपाला में विस्फोट रूक-रूककर होते रहे हैं। न्यायालय के स्टे और केंद्र के आदेश के कारण दिन में तो काम रोक दिया गया लेकिन रात में गुपचुप काम जारी रखा गया है। फसलों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की बाबत शिवकुमार ने बताया कि पौधों पर फूल आते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में विस्फोटकों की विषैली गंध के कारण मुरझा जा रहे हैं। यहां के गांवों में राजमा की खेती, सेब के बाग सब खराब हो जा रहे हैं। खेतों में फसलें पैदा नहीं हो रही हैं।
साध्वी समर्पिता ने कहा कि शासन और प्रशासन बेईमान हो गया है। हम जब 29 अगस्त, 2009 को उत्तरकाशी में धरने पर बैठे तो प्रशासन हमारे विरोध में खड़ा गया। जिलाधिकारी मीनाक्षी सुंदरम् ने तो हद कर दी। खुद ही धमकाने लगे कि जाओ दिल्ली में जाकर अनशन करो, यहां नहीं बैठने देंगे। और तो और, लौटते-लौटते कुछ लोगों से कहलवा जाते थे कि परियोजना वाले तुम्हें गंगा में फेंक देंगे, मार डालेंगे और हम बचाने नहीं आएंगे। मैंने कहा कि गंगा जी के किनारे उपवास करने से हमें कोई नहीं रोक सकता। लेकिन उनका डराना-धमकाना जारी रहा।
प्रशासन की करतूतों के कारण लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों के लोगों पर मुकदमें दर मुकदमे लाद दिए गए हैं। उरी गांव के पूर्व प्रधान रमेश जो लोहारीनागपाला परियोजना के खिलाफ खुलकर सामने आए, उन्हें पुलिस ने विभिन्न गैर जमानती धाराओं में दो बार जेल भेजा। ऐसे युवकों की संख्या जिन पर प्रशासन लगातार मुकदमे दर मुकदमे ठोंक रहा है, दर्जन की संख्या पार कर चुकी है। आश्चर्यजनक रूप से लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों में युवकों पर आपराधिक मुकदमों की संख्या पिछले कुछ समय से बढ़ गई है। और ये उन गांव के युवाओं का हाल है जिन गांवों में सदियों तक कभी कोई अपराध घटित ही नहीं हुआ।
जनसमर्थन की बाबत साध्वी समर्पिता ने कहा कि आस-पास के गांवों से पचास-पचास, सौ-सौ की संख्या में लोग आगे आए और हमारे साथ धरने पर बैठे। ठेकेदार से जुड़े मुट्ठीभर लोगों को ही प्रशासन हमारे विरोध के लिए आगे कर देता था। उपजिलाधिकारी सेमवाल खुद ही ऐसे लोगों को समर्थन दे रहे थे।
साध्वी समर्पिता का मानना है कि प्रशासन यहां के लोगों की शांत-सुंदर जिंदगी में खलल डाल रहा है। जानबूझ कर लोग परेशान किए जा रहे हैं। मुकदमे इसीलिए ठोंके जा रहे हैं ताकि कोई यहां गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ आवाज न उठा सके।
साध्वी समर्पिता से जब हमने पूछा कि साधु-संत इन परियोजनाओं के खिलाफ पूरे तौर पर सामने क्यों नहीं आते तो उनका उत्तर बहुत ही मासूमियत भरा था। उनके अनुसार, हमारे संत-महात्मा तो ध्यान-साधना से ही फुरसत नहीं पा रहे हैं। उन्हें तो वास्तव में ये जानकारी ही नहीं है कि गंगा मैया के साथ क्या हो रहा है।
लेकिन हमारी बातचीत में शिक्षिका तारा ने जो कहा, सचमुच सोचने पर विवश करता है। तारा के अनुसार, ‘गंगा मां रोजगार के लिए नहीं उध्दार के लिए मिली हैं। हमें उस दिन अपार खुशी होगी कि जब ये बांध समाप्त कर दिए जाएंगे। हम तो चाहते हैं कि हमारे यहां तीर्थयात्री आएं, पयर्टक आएं, उससे हमारा विकास होगा। उनके लिए हम होटल चलाते थे गंगा जी के किनारे, अब गंगा जी का प्रवाह ही खत्म कर दिया तो यहां तट के पास कोई नहीं बैठता, देर तक ठहरने का तो सवाल ही नहीं है। यहां के लोगों का व्यवसाय खत्म हो गया है। झील दर झील बना रहे हैं गंगा जी में, लेकिन क्या इन सरकार वालों को पता नहीं है कि झील के पास दर्शन-पूजन के लिए कोई नहीं आता।’
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bahut achchi lagi yeh jaankaari..........
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