Tuesday, November 17, 2009

जलवायु परिवर्तन और कोपेनहेगेन सम्मेलन


तथ्य क्या है, सत्य क्या है?


क्या है 'ग्लोबल वार्मिंग'?
ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापमान वृद्धि। धरती के वायुमंडल का तापमान बढ़ने के कारण मौसम चक्र में बदलाव होने लगे हैं इसलिए इसे जलवायु परिवर्तन का संकट भी कहते हैं


ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का पता कब चला?



सन् 1890 के आस-पास स्वीडन के रसायन शास्त्री स्वान्ते अरहिनियस ने सर्वप्रथम वायुमंडल में सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जन के खतरों की ओर दुनिया का ध्यान खींचा। 1930 के आस-पास ब्रिटिश इंजीनियर गुई कैलेंडर ने अपने अनुसंधान के आधार पर कहा कि मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुन: वैज्ञानिकों ने कहा कि वातावरण अच्छे संकेत नहीं दे रहा है।
सन् 1958 में हवाई द्वीप के माउना लोआ वेधशाला में वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान के माध्यम से पता चला कि वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। चार्ल्स कीलिंग के नेतृत्व में हुए अनुसन्धान ने खतरे को स्पष्ट परिभाषित कर दिया।
बीते दशक से लेकर अबतक इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ओन क्लाइमेट चेंज जिसके चेयरमैन भारतीय पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आर. के. पचौरी हैं, ने इस खतरे की ओर दुनिया का ध्यान सफलतापूर्वक खींचा है। पैनल की उपलब्धि के लिए उसे सन् 2007 के नोबल पुरूस्कार से भी नवाजा जा चुका है।

क्या है ग्रीन हाउस गैस?

सन् 1860 के दशक में आयरलैण्ड के वैज्ञानिक जान टिण्डल ने सर्वप्रथम वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की उपस्थिति एवं प्रभावों का पता किया।
ग्रीन हाउस गैसें वातावरण से उर्जा को सोखकर स्वयं में एकत्रित कर लेती हैं। इस प्रकार जैसे जैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा वातावरण में बढ़ती है, वातावरण का तापमान भी उसी अनुपात में बढ़ने लगता है।

कार्बन डाई ऑक्साइड, क्लोरो फ्लूरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन, हाइड्रो फ्लूरो कार्बन आदि गैसे ग्रीन हाउस गैसों की श्रेणी में आती हैं।


क्या है क्योटो प्रोटोकॉल?
क्योटो प्रोटोकॉल संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किया गया एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिस पर दुनिया के लगभग सभी देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।
इस समझौते के अन्तर्गत विकसित देशों ने 1990 को आधार वर्ष मानते हुए सन् 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत कटौती करना स्वीकार किया।
इस समझौते के लिए बैठकों का सिलसिला सन् 1992 से पृथ्वी सम्मेलनों के द्वारा शुरू हो गया था। जापान के शहर क्योटो में सन् 1997 में आयोजित बैठक में समझौते को अंतिम रूप दिया गया इसलिए इसे क्योटो प्रोटोकॉल कहते हैं।
अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि इसमें सिर्फ विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए अनिवार्यत: निर्बंध लगाए गए थे किंतु विकासशील देशों के लिए इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया।
क्योटो प्रोटोकॉल पर अंतरराष्ट्रीय समझौते के बावजूद इसे सन् 2005 तक व्यवहार में नहीं लाया जा सका। अंतत: सोवियत रूस के हस्तक्षेप के बाद सन् 2005 में विकसित देशों ने इस पर अमल प्रारंभ किया लेकिन अमेरिका और आस्ट्रेलिया इससे अभी भी अलग हैं।
इस परिस्थिति में कोपेनहेगेन सम्मेलन का महत्व बढ़ गया है क्योंकि यहां होने वाला समझौता क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेगा।

वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए कौन है सबसे ज्यादा जिम्मेदार?
नंबर एक पर है अमेरिका, जिसकी आबादी दुनिया की कुल आबादी का मात्र 5 प्रतिशत है लेकिन वह दुनियां के कुल कार्बन उत्सर्जन में पिछले कुछ वर्षों तक 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता रहा है।
नंबर दो पर है चीन, जो सन् 2025 तक इस मामले में नंबर एक बन जाएगा। फिलहाल वह कार्बन उत्सर्जन में 18 प्रतिशत का योगदान कर रहा है।
संपूर्ण यूरोप का योगदान 14 प्रतिशत का है जबकि सोवियत रूस, भारत और जापान क्रमश: 6 प्रतिशत, 5.5 प्रतिशत एवं 4.0 प्रतिशत का योगदान कर रहे हैं।
लेकिन प्रति व्यक्ति के लिहाज से कार्बन उत्सर्जन के प्रतिशत का आकलन किया जाए तो नंबर एक की भूमिका मेंकतर, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और बहरीन आगे निकल जाते हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति पर कार्बन उत्सर्जनका औसत क्रमश: 19 प्रतिशत, 11 प्रतिशत, 10 प्रतिशत एवं 7 प्रतिशत के लगभग ठहरता है।

इसके बाद क्रमश: आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैण्ड, ब्रुनेई, लक्समबर्ग 7 प्रतिशत से 5 प्रतिशत प्रतिव्यक्ति तक और एंटीगुआ, आयरलैण्ड, त्रिनिदाद, सिंगापुर, बेिल्जयम, नीदरलैण्ड, फिनलैण्ड, सोवियत रूस 5 प्रतिशत से 3 प्रतिशत प्रति व्यक्ति तक उत्सर्जन कर रहे हैं। भारत फिलहाल विशाल जनसंख्या होने के कारण प्रतिव्यक्ति तीन प्रतिशत से कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में शामिल है।


क्या कोपेनहेगेन में कुछ निष्कर्ष निकलेगा?
यही वह महत्वपूर्ण सवाल है जिस पर दुनिया भर की निगाहें लगी हैं। 192 देशों के लगभग 20000 प्रतिनिधिकोपेनहेगेन में 8 दिसंबर, 2009 से प्रारंभ हो रही बैठक में सम्मिलित होंगे। सम्मेलन के पूर्व दुनिया के तमाम देशइस एक बात पर सिद्धांतत: सहमत हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती होनी ही चाहिए। लेकिन ये कितनी होनीचाहिए, कटौती का आधार वर्ष क्या होगा और इसमें विकसित देशों और विकासशील देशों की क्या भूमिका होगी, इस पर अभी तक एकराय नहीं बन सकी है। विकसित देश किसी भी समझौते में विकासशील देशों को भी अनिवार्यरूप से शामिल करना चाहते हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल और सन् 2007 में बाली में निर्धारित की गई कार्रवाई योजना में इस बात का स्पष्ट उल्लेख कियागया है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के निर्णय को मानने के लिए विकसित देश संवैधानिक तौर पर बाध्य होंगेजबकि विकासशील देशों के लिए समझौता बाध्यकारी नहीं होगा। विकासशील देश अपने देश से गरीबी समाप्तकरने की योजनाओं को प्राथमिकता देते हुए घरेलू स्तर पर कार्बन उत्सर्जन कटौती का प्रबंध करेंगे।

विकसित देशों में जिनमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं यूरोपीय देश अग्रणी हैं , का इस पर विरोध है। इन देशों काकहना है कि पिछले 20 वर्षों में दुनिया की आर्थिकी में व्यापक फेरबदल हो गए हैं इसलिए किसी भी समझौते सेविकासशील देशों को अलग रखना उचित नहीं है। समझौते का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए कियह दुनिया के सभी देशों पर लागू हो सके। इसलिए क्योटो प्रोटोकॉल एवं बाली एक्शल प्लान की दुबारा समीक्षाहोनी चाहिए।

किंतु ये शर्त विकासशील देशों को स्वीकार नहीं है। विकासशील देशों की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है किजलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश जिम्मेदार हैं। इसलिए कार्बन उत्सर्जन में सर्वाधिक कटौती भी उन्हें हीकरनी चाहिए। ऐसा कर वे जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं।

प्रस्तुति: राकेश उपाध्याय

No comments:

Post a Comment