Wednesday, November 18, 2009

चलिए, इस्रायल चलें, ट्रैफिक से बिजली पाने के लिए?

जी, ये इस्रायल है! यहां यातायात से बिजली पैदा होती है

हमारे अभियंताओं और सरकारी मशीनरी को नदियों को बांधने से फुरसत नहीं है और उधर इस्रायल के वैज्ञानिकों ने सड़क यातायात के द्वारा विद्युत निर्माण का सफल एवं क्रांतिकारी प्रयोग संभव कर दिखाया है।

बीते अक्तूबर महीने में इस्रायल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के सहयोग से इस्रायल की कंपनी इनोवाटेक ने एक सड़क पर यातायात की गति और दबाव का उपयोग कर बिजली पैदा करने का अद्भुत प्रयोग किया।

जलवायु संकट के दौर में वैकल्पिक उर्जा स्रोत विकसित करने के लिहाज से दुनिया में अनेक प्रयोग हो रहे हैं। इस्रायल के वैज्ञानिकों का यह प्रयोग इन सबमें अनूठा और अतुलनीय है। इस्रायल ने बिल्कुल एक नये ढंग से उर्जा के वैकल्पिक स्रोत की खोज कर ली है।

थोड़ी कल्पना करें कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर सांय सांय आवाज करती हुई हजारों छोटी-बड़ी गाड़ियां तेजी से निकल रही हैं। उनकी गति, दबाव और उससे उत्पन्न कम्पन्नों से क्या सड़क की ऊपरी परत के नीचे बिजली बन सकती है?

इनोवाटेक के वैज्ञानिकों ने इसी सवाल पर आधारित प्रयोग किया। उन्होंने प्रयोग के लिए इस्रायल के हेफर नगर की एक सड़क के नीचे एक विद्युत उत्पादक यंत्र जिसे पीजो-इलेक्टि्रक जेनरेटर नाम से जाना जाता है, के संजाल को कई सौ मीटर दूरी तक लगा दिया।

बस फिर क्या था? विगत 7 अक्तूबर को जब प्रयोग वाली सड़क पर गाड़ियां सरपट दौड़ीं तो सड़क के नीचे लगे यंत्र ने अपना काम शुरू कर दिया। दबाव, झटके, गति और कम्पन्न के आधार पर यंत्र से बिजली उत्पादन प्रारंभ हो गया । सड़क पर वाहनों की गतिज उर्जा को इनोवाटेक के पीजो-इलेक्टि्रक यंत्र ने तेजी से विद्युत उर्जा में तब्दील करना शुरू कर दिया।

इस प्रयोग की निदेशक डॉ. लूसी एडेरी आजुले ने प्रयोग की सफलता के बाद प्रेस प्रतिनिधियों को बताया कि यंत्र सड़क की ऊपरी परत से 5 सेंटीमीटर नीचे बिछाया गया था।

उन्होंने कहा कि हमारे प्रयोग से जो परिणाम आए हैं उसके आधार पर सड़क की एक पटरी पर यदि एक कि.मी. तक हम अपने यंत्र को लगा दें तो हमें 200 किलोवाट प्रति घंटे तक विद्युत उत्पादन मिल सकता है बशर्ते सड़क पर यातायात और आवागमन पर्याप्त हो। खासतौर पर यदि घंटे भर में 600 तक छोटी-बड़ी चार पहिया गाड़ियां इसके ऊपर से गुजरती हैं तो हमें अच्छे परिणाम मिलते हैं।

उन्होंने कहा कि एक बार सड़क के भीतर यंत्र को लगा देने पर उसकी मरम्मत आदि की जरूरत 30 वर्ष तक नहीं पड़ेगी। हां, उत्पादन के आधार पर उसकी कार्यक्षमता के संदर्भ में हमें प्रतिवर्ष विश्लेषण करते रहना होगा।

डॉ. लूसी के अनुसार, फिलहाल तो हम इस बिजली को बैटरियों में सुरक्षित कर रहे हैं लेकिन शीघ्र ही हम इस यातायात आधारित उत्पादन को ग्रिड से जोड़ कर विद्युत आपूर्ति को सीधे पावर हाउसों में भेजना प्रारंभ कर देंगे।

उन्होंने बताया कि प्रति किमी. तीन हजार विद्युत उत्पादक यंत्रों की जरूरत पड़ेगी। कंपनी फिलहाल जिस यंत्र का सफल परीक्षण कर चुकी है उसका मूल्य 30 डॉलर प्रति यंत्र पड़ता है। मतलब प्रति किमी. यंत्र लगाने पर 90,000 डॉलर का खर्च आएगा।

भारत के हिसाब से खर्च का आकलन करें तो करीब पचास लाख रूपये प्रति किमी ( ईमानदार डील होने पर, जिसकी सम्भावना अपने अफसरों के साथ कम ही रहती है) विद्युत उत्पादक यंत्र की खरीद पर खर्च होंगे। इसे सड़क के नीचे लगाने का खर्च अवश्य अतिरिक्त आएगा।

इनोवाटेक कंपनी अगले चरण में रेल की पटरियों और विमान के रनवे के नीचे यंत्र लगाकर विद्युत उत्पादन करने के उपक्रम में जुट गई है। इसी के साथ-साथ पैदल यात्रियों के चलने के लिए बने फुटपाथों के नीचे भी यंत्र फिट करने की उसकी मंशा है।

यहां उल्लेखनीय बात यह है कि दुनिया में विद्युत निर्माण के जो नायाब तरीके निकले हैं उनमें पैरों के जूतों में यंत्र फिटकर चहलकदमी और जोगिंग के द्वारा उत्पन्न होने वाले दबाव और कम्पन्नों से भी विद्युत उत्पादन करने के सफल प्रयोग शामिल हैं।गैर परंपरागत व अन्य देशज तरीके तो इनमें शामिल हैं ही।

लेकिन क्या इन प्रयोगों से हमारी नौकरशाही और हमारे नेताजी लोग कुछ सबक सीखेंगे?

जिंदगी के लिए बत्तियां बुझा दो!


इस्रायल का टी-२० अर्थात बीसम- बीसा

`जिंदगी चाहिए तो बत्तियां बुझा दो।´ जी हां, इस्रायल सरकार ने अपने देश की जनता को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए यह संदेश भी दिया है।

इस्रायल सरकार के एक केबिनेट मंत्री उजी लानदाउ जिनके पास अवस्थापना विकास विभाग का जिम्मा है, ने अपने मंत्रालय कीओर से एक कार्य योजना तैयार की है जिसमें देश की जनता से बिजली बचाने की अपील की गई है। लानदाउ का कहना है कि विद्युत उत्पादन के सबसे अच्छे तरीकों में एक तरीका यह भी है कि हर स्तर पर बिजली की बचत की जाए।



इसी के साथ इस्रायल सरकार ने सन् 2020 तक देश की कुल उर्जा खपत में 20 प्रतिशत कटौती करने का लक्ष्य भी सामने रख दिया है।

है हैरतअंगेज बात। सन् 2020 तक इस्रायल की जनसंख्या अभी के ७०-७२ लाख से लगभग ३० प्रतिशत अधिक होगी, उद्योग धन्धे भी बढ़ जाएंगे, जाहिर सी बात है कि बिजली की खपत भी बढ़ जाएगी। लेकिन नहीं, सरकार ने सन् 2020 तक 20 प्रतिशत बिजली खपत कम करने की ठान ली है।

लानदाउ कहते हैं- हम इस्रायलियों का जीवन स्तर संसार में बहुत बेहतर और उंचे स्तर का है। हमें इसे आगे भी बनाए रखना है। किंतु हमारी जनसंख्या बढ़ रही है और हमारे संसाधन सीमित हैं। जाहिर है कि हमें अपनी जरूरतों पर नियंत्रण करना है। आखिर ये प्रकृति भी तो हमारी है, अगर हम इसकी रक्षा के लिए आगे नहीं आए तो कौन आगे आएगा।

लानदाउ यहीं पर नहीं रूकते। उनके पास प्रचार के नुस्खे भी खूब हैं जिसका इस्तेमाल वे अपने भाषणों में घूम-घूमकर कर रहे हैं। वह कहते हैं-`विद्युत निर्माण का हरित उपाय मुझसे पूछिए, मैं आपको मुफ्त में तरीका बताता हूं। आप बिजली की जितनी बचत करेंगे, उतनी अधिक हरित बिजली पैदा होगी! इस पर कोई खर्च नहीं आता है।´

और लानदाउ तकनीकी, वैधानिक, वित्तीय और समाज आदि सभी स्तरों पर सरकार की ओर से बिजली बचाओ टी-20 में जुट गए हैं। तकनीकी स्तर पर देश के प्रत्येक घर में अधिक खपत वाले बल्ब और टयूबलाइट बदलकर नए उद्दीपक बल्ब और टयूब लगाए जा रहे हैं। योजना में हर घर और प्रत्येक कार्यालय को शामिल किया जा रहाहै। सरकार का मानना है कि इस योजना के लागू होते ही देश के कुल विद्युत खपत की मात्रा तुरंत आधी हो जाएगी।

लानदाउ ने आवास-मकान निर्माण नीति को भी संशोधित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है। अब घरों-कार्यालयों को इस प्रकार की संरचना में ढाला जाएगा कि बिजली की जरूरत कम से कम पड़े, खासतौर पर दिन में प्रकाश के लिए सूर्य की रोशनी से काम चलाया जा सके।

प्रस्ताव में उन लोगों के लिए विशेष प्रोत्साहन राशि की घोषणा भी की जाएगी जो बिजली बचत के उपायों-तकनीकी को प्रभावी तौर पर लागू करेंगे अथवा किसी नवीन उपाय तकनीकी को क्रियान्वित कर उसके लाभ सभी को दिखा सकेंगे। प्रस्ताव में शाश्वत उर्जा स्रोतों जैसे सौर उर्जा, पवन उर्जा आदि के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का फैसला किया गया है। प्रस्ताव में लघु उद्यमों, मझोले और विशालकाय उद्योगों की बिजली खपत को भी एक दायरे में लाने की बात कही गई है।

यही नहीं तो स्कूली शिक्षा में उर्जा बचत को बाकायदा पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने और शिक्षित बच्चों के माध्यम से परिवारों-अभिभावकों को भी उर्जा बचत अभियान से जोड़ने का वृहत् कार्यक्रम निर्धारित किया गया है।

हम लोग भारत में क्रिकेट का टी-20 यानी बीसमबीसा खेलते हैं लेकिन इजरायल सरकार की बोलें तो बिजली की बचत ही अब उनका टी-20 यानी बीसमबीसा बन गया है।उल्लेखनीय बात यह है की आज की तारीख में जहाँ इस्राएल लगभग ६० बिलियन किलोवाट बिजली पैदा कर रहा है वहीं भारत लगभग ७०० बिलियन किलोवाट बिजली पैदा कर रहा है। दोनों के उत्पादन में १० गुने से ज्यादा का अन्तर है लेकिन जब जनसँख्या देखेंगे तो दोनों देशों में जमीन आस्मां का अन्तर है।कहाँ ७० लाख और कहाँ सवा अरब।

अपनी थोड़ी जनसंख्या के लिहाज से प्रचूर मात्रा में बिजली पैदा करने वाला एक देश बिजली बचाने के लिए इतना व्याकुल है कि देश की सारी नीतियाँ बदलने को बेताब है। दूसरी ओर हम हैं की चेतने का नाम ही नहीं ले रहे जबकि हमारे लाखों गाँव आज भी अंधेरे में सिसकने को मजबूर हैं।

Tuesday, November 17, 2009

झुकती है दुनियां, झुकाने वाला चाहिए

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा क्या लिजलिजे राष्ट्रपति हैं ? क्या उन्हें अमेरिका के राष्ट्रीय गौरव का ध्यान नहीं है? क्या उन्हें अमेरिका की परंपरा का पता नहीं है जिसमें अमरीकी नेतृत्व ने दुनिया में किसी के सामने झुकना नहीं सीखा।

हल्ला मच गया है अमेरिका में। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जापान के सम्राट अकिहितो के सामने 'शिष्टाचारवश' सर क्या झुका दिया, अमरीकी आगबबूला हो उठे हैं।

अमेरिकी टीवी चैनलों पर अनेक प्रमुख विपक्षी नेताओं ने ओबामा के सर झुकाने की घटना को समूचे राष्ट्र के लिए शर्मनाक करार दिया। रूढ़िवादी नेता विलियम क्रिस्टोल ने तो यहां तक कह दिया कि ओबामा अमेरिका के इतिहास में रीढ़हीन नेता के रूप में याद किए जाएंगे।

एक अन्य नेता बिल बेनेट ने कहा-छी: ये तो भद्दी हरकत है ओबामा की। मैं इस दृश्य को दुबारा देखना पसंद नहींकरूंगा।

चैनल तो चैनल, इंटरनेट पर तमाम ब्लागर्स और वेबसाइटों पर ओबामा के अभिवादन के तरीके ने अमरीकियों की नींद उड़ा दी है।

नींद उड़े भी क्यों ना। पचासों साल पहले जिस देश को परमाणु बम के प्रहार से धूल धूसरित कर दिखाने का जो चमत्कार अमेरिका ने कर दिखाया था, वह जापान आज अमेरिका के सर चढ़ कर बोल रहा है।

पचास साल के बाद जापान में उस डीपीजे का शासन आया है जिसकी नींव में अमेरिका विरोध समाया हुआ है।
याद करिए सन् 2007 जब अमेरिका के अफगानिस्तान जाने वाले जहाजी बेड़े ईंधन, पानी और भोजन लेने के लिए जापान का इस्तेमाल कर रहे थे, उस समय जापान की डायट अर्थात संसद में अमेरिका विरोधी आवाज बुलंद करने वाला नेता कौन था?

जापान के आज के प्रधानमंत्री युकियो हातोयामा और उनकी सत्तारूढ़ पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष, जापान के नेता प्रतिपक्ष इचिरो ओजावा ने तब कहा था-हमें अमेरिका की गुलामी नहीं करनी है। हम अमेरिकी जहाजों को ईंधन देने , पानी देने, भोजन देने के लिए जापान को बाध्य करने वाले कानून को बदल देंगे। हम उस संविधान को बदला देंगे जिसके कारण आज भी हमें अपनी सुरक्षा के लिए, सैन्य जरूरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर रहना पड़ता है।

जापान की डायट में अमेरिका विरोधी आवाज बुलंद करने वाले आज जापान की सरकार चला रहे हैं। करीब-करीब पचास सालों के बाद जापान में सत्ता परिवर्तन हुआ है। लिबरल पार्टी की जगह डेमोक्रेटिक पार्टी को जापान की जनता ने कुछ ही महीने पहले अगस्त में सत्ता सौंप दी।

आखिर क्या बात है कि ओबामा जापान के सम्राट के सामने झुक गए? क्या यह जापान में हुए सत्ता परिवर्तन का असर है? क्या ये बदलते जापान के रूख की हनक है? क्या ये जापान को पटाने का ओबामा का पैंतरा है? कितने ही सवाल है जो फिजाँ में तैर रहे हैं?

और अभी जापान में ओबामा के अभिवादन के तरीके की आग ठंडी भी नहीं पड़ी कि बीजिंग में कद्दावर अमेरिकाके राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा-हां, तिब्बत तो आप का ही है। तिब्बत पर आपके अधिकार को हम अमेरिकी सलाम करते हैं।

धन्य, धन्य, धन्य हुआ अमेरिका! शान्ति का नोबेल पुरस्कार क्या-क्या करवा और कहलवा सकता है कोई ओबामा से पूछे।

और पूछे परम पावन दलाई लामा से। वही लामा जिनके अरूणाचल प्रदेश जाने पर चीन ने अभी हाल में ही आपत्ति जताई थी। पर ये कमाल है हमारी परंपरा का, हमारे देश की सरकार ने कहा-चीन, होश में रहो। बधाई हो हमारे विदेश मंत्री को, वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी को, बंगाल के शेर को। चीन को उसी की भाषा में उत्तर भेज दिया ki arunachal हमारा है और दलाई लामा हमारे अतिथि हैं, जहां जाना चाहें वहां जाएं।

लेकिन दुनिया के दादा देश का खैरकदम देख लीजिए जरा। कुछ ही माह पूर्व परम पावन दलाई लामा अमेरिका गए थे राष्ट्रपति ओबामा से मिलने का समय मांगा था। उस समय भी ड्रेगन ने अमेरिका को आंख दिखाई थी। ओबामा सहम गए। परम पावन से मिलने का समय अंतत: ओबामा को नहीं ही मिला। वाह रे अमेरिकी शिष्टाचार! जापानके सम्राट अकिहितो और उनकी धर्मपत्नी साम्राज्ञी के सामने कमर के बल झुकने वाले ओबामा के इस करतब को व्हाईट हाउस शिष्टाचार बता रहा है। लेकिन ये शिष्टाचार उस समय कहां गया था जब दलाई लामा अमेरिकी राष्ट्रपति के दरवाजे पर खड़े होकर मिलने का समय मांग रहे थे।

नहीं मिलता है समय। ऐसा ही होता है दुनियां में उनके साथ जो इतिहास के किसी मोड़ पर कमजोर हो जाते हैं।कोई समय नहीं देता। अपने भी मुंह मोड़ लेते हैं। लेकिन इस विपरीत समय में भारत सरकार की भूमिका सचमुच हमारा सीना गर्व से चौड़ा करती है। हमारा सौभाग्य है कि हमारी सरकार ने परम पावन दलाई लामा के सन्दर्भ में अपनी परंपराओं का ध्यान रखा।

लेकिन। लेकिन हमें हकीकत को ध्यान में रखना होगा। ताकत की भाषा ही दुनिया जानती है। हमारी साख दुनियामें है लेकिन हमें अब धाक भी जमानी है।



सुपर कंप्यूटर नहीं आम आदमी की सोचो


जापान सरकार के पैनल ने कहा- सुपर कंप्यूटर की क्या जरूरत?

जापान से एक अजीब सी ख़बर आई हैअजीब सी इसलिए क्योंकि यह जापान के स्वभाव और तकनीकी विकास के बिल्कुल उलट है

जापान सरकार द्वारा सरकारी तंत्र को और कुशल बनने तथा गैरजरूरी खर्चों को रोकने के लिए गठित एक पैनल ने अपनी एक सिफारिश में सुपर कंप्यूटर से जुड़ी एक परियोजना पर ब्रेक लगा दिया है

पैनल ने अपनी सिफारिश में कहा है कि नई पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर बनाने में रूचि दिखाने कि बजाय हमें आम लोगों कि ज़िन्दगी बेहतर बनाने के इंतज़ाम करने चाहिए

जापान के शिक्षा, विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी विकास मंत्रालय
के प्रोजेक्ट के सिलसिले में पैनल ने सुपर कंम्पयूटर के अत्याधुनिक संस्करण के निर्माण पर यह कहते हुए रोक लगाने की सिफारिश की है कि आम आदमी के दैनिक जीवन में ये सुपर कंम्पयूटर आखिर किस तरह उपयोगी साबित होगा।

पैनल
ने सुपर कंम्पयूटर के निर्माण पर होने वाले खर्च को अनावश्यक एवं फालतू बताया है। इसी के साथ इससे जुडे़ प्रोजेक्ट को तत्काल बंद करने की सिफारिश भी की है।

उल्लेखनीय है कि सुपर कंम्प्यूटर के नवीनतम संस्करण के निर्माण के लिए जापान सरकार द्वारा २६.७ बिलियन येन की धनराशि स्वीकृत होनी थी.
पैनल ने कहा कि हम पहले ही आधुनिकीकरण के नाम पर बहुत प्रयोग कर चुके हैं। अब हमें अपने स्कूलों और लोगों के रहन-सहन, उनके द्वारा प्रयोग में आने वाली तकनीकी, लोगों के दैनिक जीवन पर ध्यान देना चाहिए और उसके विकास के बारे में सोचना चाहिए।

http://www.breitbart.com/article.php?id=D9BUEC9O1&show_article=

A key government panel on cutting wasteful spending on Friday sought to freeze a project to develop a next-generation supercomputer, for which a 26.7 billion yen budget has been requested.

जलवायु परिवर्तन और कोपेनहेगेन सम्मेलन


तथ्य क्या है, सत्य क्या है?


क्या है 'ग्लोबल वार्मिंग'?
ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापमान वृद्धि। धरती के वायुमंडल का तापमान बढ़ने के कारण मौसम चक्र में बदलाव होने लगे हैं इसलिए इसे जलवायु परिवर्तन का संकट भी कहते हैं


ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का पता कब चला?



सन् 1890 के आस-पास स्वीडन के रसायन शास्त्री स्वान्ते अरहिनियस ने सर्वप्रथम वायुमंडल में सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जन के खतरों की ओर दुनिया का ध्यान खींचा। 1930 के आस-पास ब्रिटिश इंजीनियर गुई कैलेंडर ने अपने अनुसंधान के आधार पर कहा कि मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुन: वैज्ञानिकों ने कहा कि वातावरण अच्छे संकेत नहीं दे रहा है।
सन् 1958 में हवाई द्वीप के माउना लोआ वेधशाला में वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान के माध्यम से पता चला कि वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। चार्ल्स कीलिंग के नेतृत्व में हुए अनुसन्धान ने खतरे को स्पष्ट परिभाषित कर दिया।
बीते दशक से लेकर अबतक इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ओन क्लाइमेट चेंज जिसके चेयरमैन भारतीय पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आर. के. पचौरी हैं, ने इस खतरे की ओर दुनिया का ध्यान सफलतापूर्वक खींचा है। पैनल की उपलब्धि के लिए उसे सन् 2007 के नोबल पुरूस्कार से भी नवाजा जा चुका है।

क्या है ग्रीन हाउस गैस?

सन् 1860 के दशक में आयरलैण्ड के वैज्ञानिक जान टिण्डल ने सर्वप्रथम वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की उपस्थिति एवं प्रभावों का पता किया।
ग्रीन हाउस गैसें वातावरण से उर्जा को सोखकर स्वयं में एकत्रित कर लेती हैं। इस प्रकार जैसे जैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा वातावरण में बढ़ती है, वातावरण का तापमान भी उसी अनुपात में बढ़ने लगता है।

कार्बन डाई ऑक्साइड, क्लोरो फ्लूरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन, हाइड्रो फ्लूरो कार्बन आदि गैसे ग्रीन हाउस गैसों की श्रेणी में आती हैं।


क्या है क्योटो प्रोटोकॉल?
क्योटो प्रोटोकॉल संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किया गया एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिस पर दुनिया के लगभग सभी देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।
इस समझौते के अन्तर्गत विकसित देशों ने 1990 को आधार वर्ष मानते हुए सन् 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत कटौती करना स्वीकार किया।
इस समझौते के लिए बैठकों का सिलसिला सन् 1992 से पृथ्वी सम्मेलनों के द्वारा शुरू हो गया था। जापान के शहर क्योटो में सन् 1997 में आयोजित बैठक में समझौते को अंतिम रूप दिया गया इसलिए इसे क्योटो प्रोटोकॉल कहते हैं।
अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि इसमें सिर्फ विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए अनिवार्यत: निर्बंध लगाए गए थे किंतु विकासशील देशों के लिए इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया।
क्योटो प्रोटोकॉल पर अंतरराष्ट्रीय समझौते के बावजूद इसे सन् 2005 तक व्यवहार में नहीं लाया जा सका। अंतत: सोवियत रूस के हस्तक्षेप के बाद सन् 2005 में विकसित देशों ने इस पर अमल प्रारंभ किया लेकिन अमेरिका और आस्ट्रेलिया इससे अभी भी अलग हैं।
इस परिस्थिति में कोपेनहेगेन सम्मेलन का महत्व बढ़ गया है क्योंकि यहां होने वाला समझौता क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेगा।

वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए कौन है सबसे ज्यादा जिम्मेदार?
नंबर एक पर है अमेरिका, जिसकी आबादी दुनिया की कुल आबादी का मात्र 5 प्रतिशत है लेकिन वह दुनियां के कुल कार्बन उत्सर्जन में पिछले कुछ वर्षों तक 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता रहा है।
नंबर दो पर है चीन, जो सन् 2025 तक इस मामले में नंबर एक बन जाएगा। फिलहाल वह कार्बन उत्सर्जन में 18 प्रतिशत का योगदान कर रहा है।
संपूर्ण यूरोप का योगदान 14 प्रतिशत का है जबकि सोवियत रूस, भारत और जापान क्रमश: 6 प्रतिशत, 5.5 प्रतिशत एवं 4.0 प्रतिशत का योगदान कर रहे हैं।
लेकिन प्रति व्यक्ति के लिहाज से कार्बन उत्सर्जन के प्रतिशत का आकलन किया जाए तो नंबर एक की भूमिका मेंकतर, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और बहरीन आगे निकल जाते हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति पर कार्बन उत्सर्जनका औसत क्रमश: 19 प्रतिशत, 11 प्रतिशत, 10 प्रतिशत एवं 7 प्रतिशत के लगभग ठहरता है।

इसके बाद क्रमश: आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैण्ड, ब्रुनेई, लक्समबर्ग 7 प्रतिशत से 5 प्रतिशत प्रतिव्यक्ति तक और एंटीगुआ, आयरलैण्ड, त्रिनिदाद, सिंगापुर, बेिल्जयम, नीदरलैण्ड, फिनलैण्ड, सोवियत रूस 5 प्रतिशत से 3 प्रतिशत प्रति व्यक्ति तक उत्सर्जन कर रहे हैं। भारत फिलहाल विशाल जनसंख्या होने के कारण प्रतिव्यक्ति तीन प्रतिशत से कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में शामिल है।


क्या कोपेनहेगेन में कुछ निष्कर्ष निकलेगा?
यही वह महत्वपूर्ण सवाल है जिस पर दुनिया भर की निगाहें लगी हैं। 192 देशों के लगभग 20000 प्रतिनिधिकोपेनहेगेन में 8 दिसंबर, 2009 से प्रारंभ हो रही बैठक में सम्मिलित होंगे। सम्मेलन के पूर्व दुनिया के तमाम देशइस एक बात पर सिद्धांतत: सहमत हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती होनी ही चाहिए। लेकिन ये कितनी होनीचाहिए, कटौती का आधार वर्ष क्या होगा और इसमें विकसित देशों और विकासशील देशों की क्या भूमिका होगी, इस पर अभी तक एकराय नहीं बन सकी है। विकसित देश किसी भी समझौते में विकासशील देशों को भी अनिवार्यरूप से शामिल करना चाहते हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल और सन् 2007 में बाली में निर्धारित की गई कार्रवाई योजना में इस बात का स्पष्ट उल्लेख कियागया है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के निर्णय को मानने के लिए विकसित देश संवैधानिक तौर पर बाध्य होंगेजबकि विकासशील देशों के लिए समझौता बाध्यकारी नहीं होगा। विकासशील देश अपने देश से गरीबी समाप्तकरने की योजनाओं को प्राथमिकता देते हुए घरेलू स्तर पर कार्बन उत्सर्जन कटौती का प्रबंध करेंगे।

विकसित देशों में जिनमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं यूरोपीय देश अग्रणी हैं , का इस पर विरोध है। इन देशों काकहना है कि पिछले 20 वर्षों में दुनिया की आर्थिकी में व्यापक फेरबदल हो गए हैं इसलिए किसी भी समझौते सेविकासशील देशों को अलग रखना उचित नहीं है। समझौते का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए कियह दुनिया के सभी देशों पर लागू हो सके। इसलिए क्योटो प्रोटोकॉल एवं बाली एक्शल प्लान की दुबारा समीक्षाहोनी चाहिए।

किंतु ये शर्त विकासशील देशों को स्वीकार नहीं है। विकासशील देशों की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है किजलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश जिम्मेदार हैं। इसलिए कार्बन उत्सर्जन में सर्वाधिक कटौती भी उन्हें हीकरनी चाहिए। ऐसा कर वे जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं।

प्रस्तुति: राकेश उपाध्याय

जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या: श्याम शरण


जलवायु परिवर्तन पर सीआईआई एवं वर्ल्ड इकांनामिक फोरम द्वारा

आयोजित संगोष्ठी में पूर्व विदेश सचिव 'श्याम शरण' ने कहा

जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या, अंतर्राष्ट्रीय समन्यव जरूरी

''बार्सिलोना में जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में आयोजित चर्चा के परिणाम उत्साहवर्धक नहीं रहे। भारत का स्पष्ट मानना है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और इसका समाधान विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच परस्पर सहयोग एवं समन्वय से ही निकल सकता है।''

ये कहना है भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री श्याम शरण का। श्री शरण विगत् 10 नवंबर को नई दिल्ली में सुप्रसिद्ध औद्योगिक संगठन सीआईआई एवं वर्ल्ड इकांनामिक फोरम के तत्वावधान में आयोजित 25वें `इंडिया इकंनामिक समिट´ को संबोधित कर रहे थे।

उल्लेखनीय है कि श्री श्याम शरण कोपेनहेगन सम्मेलन में प्रधानमंत्री के विशेष दूत के रूप में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल में शामिल रहेंगे।

उन्होंने कहा कि आज दुनिया को एक ऐसे साझे मंच की जरूरत है जिसके द्वारा `क्लीन एवं ग्रीन टेक्नोलॉजी´ को विकसित देश और विकासशील देशों के मध्य परस्पर बांटा जा सके। इस मार्ग से समस्या का समाधान निकल सकता है।

उन्होंने `ग्रीन टेक्नोलॉजी´ के प्रयोग पर जोर देते हुए कहा कि विकसित देशों को इस संदर्भ में विकासशील देशों की मदद के लिए आगे आना चाहिए। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में भारत की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि भारत किसी भी समझौते की दशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगा।


उन्होंने कहा कि भारत एक जिम्मेदार देश है और इसीलिए हमने कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए अपनी ओर से नीति का निर्धारण कर लिया है। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में राष्ट्रीय कार्रवाई योजना एवं राष्ट्रीय सौर उर्जा मिशन का हमारा कार्यक्रम इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि विकसित देशों को भारत की कठिनाई को भी समझना होगा। हम अभी भी विकासशील हैं और हमारे विकास की राह में आज भी बहुत से अवरोध हैं।

भारत पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के संदर्भ में श्री शरण ने कहा कि हिमालय पर स्थित हिमनदों के पिघलने के बारे में अनेक विवरण प्रकाश में आए हैं लेकिन भारत पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को स्पष्टत: जानने के लिए हमें कुछ और अध्ययन करने होंगे।

इस अवसर पर आयोजित `व्यापार एवं जलवायु परिवर्तन: आर्थिक जरूरत या हरित् साम्राज्यवाद´ विषयक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए नेशनल फॉरिन ट्रेड काउंसिल, अमेरिका के अध्यक्ष विलियम रिनिश्च ने कहा कि संसार संक्रमण की बेला से गुजर रहा है और इस परिस्थिति में भारत और चीन जैसे प्रमुखतम विकासशील राष्ट्र ही भविष्य में `हरित तकनीकी´ के संदर्भ में नवोन्मुखी पथ प्रदर्शन करेंगे। उन्होंने कहा जलवायु परिवर्तन के बारे में किसी भी समझौते में बौद्धिक संपदा अधिकार एवं कार्बन उत्सर्जन में कटौती से जुड़े मुद्दे का समावेश जरूरी है।

लंदन स्कूल ऑफ इकंनामिक्स के प्रोफेसर लार्ड स्टर्न ने अपने उद्बोधन में कहा कि कोपेनहेगेन में जलवायु परिवर्तन के प्रश्न पर कोई भी समझौता मौलिक एवं नैसर्गिक होना चाहिए। उन्होंने इस अवधारणा का पुरजोर खण्डन किया कि विकास और कार्बन उत्सर्जन में कटौती एक दूसरे के विरोधी हैं। उन्होंने कहा कि हरित तकनीक प्रचलित तकनीकी के मुकाबले बेहतरीन है और इसके प्रयोग पर आने वाला खर्च गैर हरित तकनीकी के मुकाबले मात्र एक से दो प्रतिशत तक अधिक है।

फ्रांस से पधारे बेन जे वरवायेन ने कहा कि विश्व समुदाय को एक मूलगामी समझौते के लिए मन बनाना होगा और इसमें शीघ्रता भी बरतनी होगी। उन्होंने कहा कि वार्ता प्रक्रिया को हर हालत में गतिशील बनाए रखना होगा।

सुप्रसिद्ध आईटी कंपनी विप्रो के बोर्ड के सदस्य एवं संयुक्त अधिशाषी श्री सुरेश वासवानी ने कहा कि निजी क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के प्रश्न पर अपनी जिम्मेदारी तय करनी चाहिए एवं हरित तकनीकी के प्रयोग पर अधिक से अधिक बल देना चाहिए।

मोजर बेयर कंपनी के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक श्री दीपक पुरी ने इस अवसर पर कहा कि निजी उद्यमों के सामने `ग्रीन तकनीकी´ में निवेश का सुनहरा अवसर है। हरित तकनीकी का व्यापार सन् 2020 तक 250 बिलियन अमरीकी डालर तथा सन् 2050 तक एक टि्रलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंच जाएगा।