देश में बांधों की बाढ़ आ गई है। हिमाचल प्रदेश से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक और उत्तराखण्ड से लेकर सुदूर केरल तक बांधों की पौ-बारह है। ‘ले बांध, दे बांध' की तर्ज पर सरकारी मशीनरी बांध प्रस्तावों पर तेजी से कार्रवाई कर रही हैं। एक-एक नदी के प्रवाह पर दर्जनों बांध परियोजनाएं, कुछ मंझोली तो कुछ विशालकाय, कहीं पर सरकारी तो कहीं अर्ध sarkari और कहीं गैर सरकारी निवेश से ये परियोजनाएं देश को विकास के नव युग में ले जाने को आतुर हो चली हैं।
ये अलग मुद्दा है कि इसी बीच नेपाल-बिहार सीमा पर कहीं कोई कोसी बांध दरकता है और पचासों हजार लोग एक झटके में घर-मकान-दुकान-सामन-खेत-खलिहान समेत रातों रात उफनती धारा में डूबने-उतराने लगते हैं। अखबारों में शीर्षक छपता है कि प्रलयंकारी बाढ़ का कहर, लेकिन ऐसे शीर्षक देने वाले बुध्दिमान संपादकों से कोई पूछे कि ये प्रलयंकारी बाढ़ किस बादल फटने के कारण अचानक धरती पर आ टपकी?
आख़िर सच से इतना परहेज क्यों? बांध के कहर को बाढ़ का कहर क्यों बताया जाता है। बाढ़ का कहर कहने से कहर को कारण कहां स्पष्ट हो पाता है। उस समय के अखबार उठाइए और देखिए कि क्या शीर्षक छपे हैं। शीर्षक तो जाने दीजिए, अनेक प्रमुख अखबार अपने पाठकों को ये तक नहीं बता पाए कि ये भीषण बाढ़ अचानक आई क्यों? हां, बाढ़ के द्वारा होने वाली जन-धन हानि को रेखाचित्र बनाकर समझाने में कोई पीछे नहीं रहा।
ये तो भला हो कुछ जिम्मेदार सरोकारवादी समाचार पत्रों का जिन्होंने सच उजागर किया। जिसे आजकल भाषाई पत्रकारिता कहा जाता है, उससे जुड़े समाचार पत्रों और उनके संवाददाताओं ने सबसे पहले बताया कि कोसी की बाढ़ ना तो किसी अति वृष्टि का नतीजा है और ना ही बांध से अचानक उफनते जल के छोड़े जाने से ये विपदा आई है। ये तो मानव निर्मित आपदा है, बांध जर्जर हो चुका था, उसकी समुचित देख-रेख भी नहीं हुई। सामान्य वर्षा के कारण एकत्रित हुए विशाल जल भण्डार को संभाल पाने में उसकी ताकत चुक गई थी। और एक झटके में सैंकड़ों करोड़ का नुकसान हो गया, मानव जीवन के साथ अपार पशु धन, निसर्ग की जो हानि हुई सो हुई ही।
अभी आंध्रप्रदेश में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। कृष्णा नदी पर बने श्रीशैलम और प्रकाशम बांध में रोके गए जल को अचानक छोड़ दिए जाने के कारण ही भीषण तबाही मची। लेकिन इस बार भी फिर से वही बात सुनने को मिली कि बाढ़ का कहर। आखिर ये किसके द्वारा लाई गई बाढ़ है जो अपने नागरिकों को संभलने तक अवसर नहीं देती और गांव के गांव दर्जनों फीट पानी के आगोश में समा जाते हैं। सरकारी अमला भी राहत और सहायता कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, लोग-बाग सुरक्षित स्थानों तक पहुंचने के पहले ही काल-कवलित हो जाते हैं।
ये बांधों द्वारा उत्पन्न बाढ़ है। वह विशालकाय बांध जिनको बनाने के लिए हमारे नीति निर्माता तर्कों का पहाड़ खड़ा कर दे रहे हैं। विकास, विकास, विकास और सिर्फ विकास। आज के राज में किसी और तर्क की कोई सुनवाई नहीं है। सिर्फ विकास के तर्क की सुनवाई है। लेकिन ये नीतिकार इतना भी समझ नहीं पा रहे हैं कि यह विकास अंधाधुंध है, तामसिक है। अमीर अरबपतियों की ऐय्याशी, तमाम ए.सी-डी.सी को करंट देने के लिए किया जा रहा है ये विकास। गरीब-गुरबे, साधारणजन के जीवन को अपनी जड़ों से उजाड़ और उखाड़ देने वाली, आस्था और विश्वास के तर्कों को सिरे से पछाड़ देने वाली ये विकास की आवाज है।
ये प्रतिगामी विकास है, प्रलय की ओर ले जाने वाला, सारी वसुधा को तापमान वृध्दि के बुखार की तपन में धकेलने वाला है ये विकास। संसार इस विकास से हुए विध्वंस को जान गया है, परेशान है कि समाधान कहां से लाएं लेकिन हमारे हुक्मरां हैं कि अभी भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। उन्हें विद्युत उत्पादन के वे तरीके सूझ ही नहीं रहे हैं जिनसे हमारा आज रौशन तो होगा ही हमारे आने वाला कल भी रौशन रहेगा। विस्थापन की मार से दूर हमारी दुनिया सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति तब और ज्यादा प्रतिबध्द होगी।
और जिंदगी में रोशनी का सवाल केवल मनुष्यों के साथ ही जुड़ा हुआ नहीं है। संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन चक्र चलता है। हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में ये बात सामने आई है कि दुनिया के 73 प्रतिशत जीवों और वनस्पतियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। अनेक दुर्लभ जीव दिन प्रतिदिन हमारे देखते ही देखते सदा के लिए धरती को अलविदा कह रहे हैं।
ये संकेत खतरनाक हैं। मतलब साफ है कि धरती से जीवन उठ रहा है। पहले नंबर उन प्रजातियों का लगा है जो डार्विन के विकासवादी सिध्दांत के हिसाब से अस्तित्व के संघर्ष में वर्तमान पारिस्थितिकी के सामने हार मान चुके हैं। लेकिन धीरे धीरे नंबर अब उन्नत प्रजातियों का आ रहा है। अतिकाय बांध आधारित विकास कहीं न कहीं सृष्टि में गहराते पर्यावरणीय असंतुलन को और बढ़ा ही रहे हैं।
संपूर्ण सृष्टि के साथ तादात्म्य बिठा कर चलने की घोषणा करने वाले देश भारत से इस विकट परिस्थिति में क्या आशा की जानी चाहिए? यहां सवाल नीति नियंताओं का आता है कि वे देश को किस दिशा में ले जाने को आतुर हैं। इसे समझने के लिए प्रो.जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन और उस संदर्भ में सरकार के कारिंदों के रवैये का उदाहरण आंखे खोलने वाला है।
यूपीए सरकार के विगत शासन में सुशील कुमार शिंदे केंद्रीय उर्जा मंत्री थे और अभी भी वे उर्जा मंत्री का पद भार संभाल रहे हैं। 2009 की जनवरी में जब प्रो. जीडी अग्रवाल दिल्ली मंे गंगा प्रवाह को बांधमुक्त रखने के सवाल पर दुबारा आमरण अनशन पर बैठे थे तब एक विशेष प्रतिनिधि मण्डल श्री शिंदे से लोहारीनागपाला जलविद्युत परियोजना के सिलसिले में बातचीत करने गया था। इस प्रतिनिधि मण्डल में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर से जुडे पूर्व छात्र, देश के कुछ प्रमुख जल विशेषज्ञ और देश के कुछ चोटी के संत शामिल थे। बैठक में भारत सरकार की ओर से केंद्रीय उर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे, प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े केंद्रीय राज्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, एनटीपीसी के प्रबंध निदेशक व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने हिस्सा लिया। इस संवाददाता को भी सौभाग्य से इस बैठक में शामिल होने का अवसर मिल गया था।
बैठक में सरकार के पक्षकार इस बात पर अड़े हुए थे कि लोहारीनागपाला परियोजना पर 500 करोड़ खर्च हो चुके हैं। अब परियोजना को टालना अव्यावहारिक होगा। दूसरी तरफ प्रतिनिधि मण्डल में शामिल सदस्य-वैज्ञानिक इस बात का तर्क दे रहे थे कि 500 करोड़ क्या आप 1000 करोड़ खर्च कर दीजिए लेकिन आप की परियोजना वैज्ञानिक कारणों से कुछ ही वर्षों में निष्फल हो जाएगी।
आईआईटी से जुड़े रहे इन वैज्ञानिकों के तर्कों को सुनकर मेरे ठीक बगल में बैठे एनटीपीसी से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी खुसफुसाने लगते थे। उनका नाम बताना किंचित उचित नहीं होगा लेकिन मुझे कुछ तटस्थ जानकर उन महोदय ने धीरे से कहा, बताइए, अपने को ये आईआईटी वाले बड़ा तीसमारखां समझते हैं और बातें ऐसी कर रहे हैं मानो सारा विज्ञान इन्हीं ने पढ़ रखा है। हम लोग तो घास खोद कर बड़े हुए हैं।
बैठक में शामिल संतों ने आस्था का सवाल उठाया तो तुरंत सुशील कुमार शिंदे बोल पड़े-महात्माजी मैं भी हिंदू घर में पैदा हुआ हूं। ये क्या बात आप करते हो? देश का विकास जरूरी है कि नहीं? प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि पृथ्वीराज चव्हाण का स्वर शिंदे से भी उंचा था। कहने लगे-ये सब आस्था की बातें यहां मत उठाइए। बिजली के सवाल पर देश में कौन है जो थोड़ा बहुत नुकसान सहना नहीं चाहेगा। संतों की ओर मुंह कर चव्हाण तपाक से बोल पड़े-इन्हीं लोगों से पूछिए, इन्हीं के लोगों की सरकार केंद्र में जब थी, उसने भी इस पर कोई समझौता नहीं किया। और जिस परियोजना को लेकर आज आप आए हैं, इस परियोजना को भी इन्हीं लोगों के द्वारा समर्थित सरकार ने ही अंतिम स्वीकृति प्रदान की थी।
वैज्ञानिकों से रहा नहीं गया। बोले, आस्था के सवाल को आप हलके में मत लिजिए। रही बात वैज्ञानिक कारणों की, पर्यावरण पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की तो हमारा कहना साफ है कि गंगाजी के अस्तित्व के संदर्भ में हम भीषण त्रासदी की ओर बढ़ रहे हैं। दूसरे हमारा आपसे निवेदन है कि आप फिलहाल इन सभी कारणों को एक किनारे रखिए और भारत सरकार की घोषणा का ही लिहाज करिए। जब प्रधानमंत्री ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे दिया है, प्राधिकरण गठित करने की बात हो चुकी है तब फिर आप लोहारीनागपाला पर काम रोक क्यों नहीं रहे हैं। प्राधिकरण ही फैसला करेगा कि काम जारी रहेगा या नहीं।
पृथ्वीराज चव्हाण इस पर सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा कि हम इस बात की गारंटी देने को तैयार हैं कि गंगा का जल उसके प्रवाह मार्ग पर एक न्यूनतम मात्रा में बहता रहेगा लेकिन हम बांध रद्द करने का काम कतई नहीं करेंगे।
वह रस्साकशी थी जिसमें चार पक्ष एक दूसरे का विरोध और समर्थन करते हुए जूझ रहे थे। पहला गैर सरकारी वैज्ञानिक, दूसरे संत, तीसरी भारत सरकार और चौथी एनटीपीसी। भारत सरकार अपने अविभाज्य अंग एनटीपीसी के इस निर्णय के साथ खड़ी दिख रही थी कि बांध तो बनेगा ही। विडम्बना कि एनटीपीसी का पक्ष वे लोग रख रहे थे जिन्हें जनता ने निर्वाचित कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है।
वैज्ञानिकों ने दबाव बनाया लेकिन बेअसर रहा। एक आईआईटी वैज्ञानिक की तो पृथ्वीराज चव्हाण और अन्य अधिकारियों से तू तू मैं मैं तक नौबत आ पहुंची। वह अपने गुरू प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के आमरण अनशन को लेकर बहुत चिंतित थे। उल्लेखनीय है कि प्रो.जीडी अग्रवाल कानपुर आईआईटी में जल अभियांत्रिकी विभाग के विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर रह चुके हैं। वे देश के केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के संस्थापक सचिव भी रहे हैं। वर्ष 2008 के जून महीने में उत्तरकाशी से लेकर गोमुख तक गंगा के प्रवाह को नैसर्गिक, प्राकृतिक एवं बांध-बाधा से मुक्त रखने के लिए उन्होंने आंदोलन का श्रीगणेश किया था।
जो भी हो, सरकार ने बांध को रद्द करने से इंकार कर दिया। और जैसा कि रपट बता रही है कि लोहारीनागपाला पर काम आज भी चल रहा है। यद्यपि गुप-चुप तौर पर किया जा रहा है। दरअसल हुआ यूं कि पहले तो प्रो.जीडी अग्रवाल के आमरण अनशन के दबाव में केंद्र ने अस्थाई तौर पर 19 फरवरी, 2009 को लोहारीनागपाला में काम रोकने का आदेश दिया लेकिन कुछ ही दिन बाद उच्च न्यायालय, उत्तराखण्ड ने इस पर स्थगनादेश दे दिया और काम पुन: जारी हो गया।
लेकिन इसी बीच केंद्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी बनाने और गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण गठित करने की घोषणा कर दी तो तस्वीर बदल गई। इस घोषणा के कारण एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय, उत्तराखण्ड ने स्पष्ट किया कि गंगा पर बांधों के संदर्भ में अब फैसला ये प्राधिकरण करेगा और न्यायालय लोहारीनागपाला के सदंर्भ में दिए गए पूर्व के स्थगनादेश को वापस लेती है। इस आदेश से स्वत: ही केंद्र द्वारा काम पर लगाए गया विराम आदेश अस्तित्व में आ गया। काम तो कागजी तौर पर बंद है लेकिन फिलहाल जिच जारी है कि बांध रहेगा या जाएगा।
यहां महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि आस्था-विश्वास को लेकर संतों ने जो दबाव बनाया, आस्था की वह बात तो पूरे तौर पर दरकिनार कर दी गई। समूचे प्रकरण में जन आस्था और विश्वास जिसके संरक्षण के लिए सरकार संवैधानिक तौर पर बंधी हुई है, सबसे ज्यादा बेबस दिखाई दिया। सेतुसमुद्रम परियोजना के समय भी यही वाकया दिखाई दिया था। तब भी अंधाधुंध और प्रतिगामी विकास के तर्क को पर्यावरण हितैषी विकास और सस्टेनेबिलिटी अर्थात संधारणीय एवं शाश्वत विकास के शस्त्र से काटना पड़ा था। आस्था और विश्वास को जब वैज्ञानिक और पर्यावरण हितैषी तर्क का सहारा मिला तो उसकी प्रभाव शक्ति दोगुनी हो गई।
सर्वोच्च न्यायालय में, उसके पूर्व तमिलनाडु उच्च न्यायालय में जब बाकायदा कानून की भाषा में सरकारी तर्कों की धज्जियां उड़ाईं गईं तभी जाकर रामसेतु को तोड़ने के खिलाफ स्थगनादेश आज भी जारी रह सका है।
सरकार की मंशा से साफ दिखाई पड़ा कि विकास की आंधी में आस्था भला कहां तक टिक सकती है। रही बात वैज्ञानिकों की तो सरकार की अपनी वैज्ञानिक मण्डली है, अपने विशेषज्ञ हैं। एक बार उनकी ओर से अनापत्ति हो गई फिर कोई लाख कहे, कहीं दौड़ लगाए, उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक जाता रहे, क्या कुछ संभव हो पाता है। सर्वोच्च न्यायालय के अनेक वकील है, संविधानविद् हैं, जो आज भी पर्यावरण से जुड़े गंभीर सवालों को लेकर जूझ रहे हैं, लड़ रहे हैं, उसका असर भी है लेकिन इस बीच जो नुकसान हो चुका रहता है उसका मूल्य किसी न किसी पीढ़ी को तो चुकाना ही है। और सावधान! ये पीढ़ी हमारी ही है जिसे कीमत अदा करनी होगी।
टिहरी बाँध के निर्माणकाल के दौरान मैं उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा) में ही रहता था और निर्माण की प्रक्रिया में दो बार पूरी परियोजना को सुरंगों के भीतर तक जाकर देखा. उस वक्त श्री सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में इस बाँध के निर्माण का विरोध हो रहा था. तब मैं स्वयं भी और विस्थापितों के अलावा उत्तराखंड की शेष जनता भी इस विरोध को अनुचित और विकास के मार्ग में अनावश्यक बाधा ही समझती थी परन्तु इन बड़ी परियोजनाओं के प्राकृतिक दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं और मुझे लगता है कि इस तरह की बड़ी परियोजनाओं से फ़ायदा कम और नुकसान ज्यादा ही है.
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