Friday, November 13, 2009

तुम सुन्दर, सुंदरतम हो


तुम सुन्दर, सुंदरतम हो

हाँ सुन्दर हो, तुम सुन्दर
सुन्दरतम रूप तुम्हारा
पर प्यार बिना सुन्दरता क्या
प्यार से निखरे जग सारा...

देखो सुन्दर धरती को
पहन हरीतिमा इठलाती
जीवन में सुन्दरता भरती
हर ऋतु में खूब सुहाती...

लेकिन कुछ मौसम ऐसे आते
लगता है ये कब जल्दी जाएँ
ठंडी, गर्मी घोर पड़े जब
धरती की जब दशा लजाती ....

धरती को भी को पावन करने
प्यार मलय-घन बन आता है
बसंत, शरद वर्षा ऋतु सा
वसुधा पर जीवन सरसाता है....

और प्यार की बातें करना
किसको बोलो नहीं है भाता
जीवन की सबकी डोर एक है
प्यार बनाता सबमें नाता...

उस नाते की खातिर सोचो
क्या लेकर यहाँ से जाओगे
यदि जीवन में बांटा प्यार सदा
तो यह प्यार सभी से पाओगे....

प्यार को जानो प्यार को समझो
यह रूप कहीं पर तो रुक जायेगा
ढलने की इसकी रीति पुरानी
ढलते ढलते निश्चित ढल जायेगा....

सुन्दरता यदि दिल में है
तो तुम सुन्दर, सुंदरतम हो
और कहूँ अब क्या मैं तुमसे
तुम धरती हो, तुम अम्बर हो ...

Monday, November 9, 2009

परशुराम कुण्ड पर संकट, बांध-फांस में फंसी धरोहर


संस्कृति, विरासत और परंपरा बलिदान करिए, द्रुत गति से विकास मार्ग पर चलिए। हमारे विकासवादियों का ये मंत्र अपना असर बखूबी दिखाने लगा है। अब बारी परशुराम कुण्ड की है। अरूणाचल प्रदेश में लोहित नदी पर बन रहे एक बांध के चलते परशुराम कुण्ड अस्तित्वविहीन होने जा रहा है।

1750 मेगावाट की देमवे जलविद्युत परियोजना का बांध जिस स्थान पर निर्मित किया जा रहा है वह अति प्राचीन पौराणिक परशुराम कुण्ड से मात्र 200 मीटर उपर अवस्थित है। जाहिर सी बात है कि बांध बनने के बाद परशुराम कुण्ड जिसका जलस्रोत लोहित नदी से जुड़ा है, को निर्बाध नैसर्गिक जलापूर्ति प्रभावित हो जाएगी।

परशुराम कुण्ड की संपूर्ण भारत में विराट मान्यता है। अरूणाचल प्रदेश ही नहीं वरन् समूचा उत्तरपूर्व, नेपाल और भूटान तक का श्रध्दालु समाज मकर संक्रांति पर्व के समय इस कुण्ड पर सहज खिंचा चला आता है। जनवरी मास में प्रत्येक वर्ष जो आस्था-सैलाब यहां उमड़ता है उसकी तुलना यहां पर महाकुंभ से की जाती है।

पौराणिक मान्यता है कि भगवान परशुराम अपनी माता रेणुका की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए यहां आए थे। इस कुण्ड में स्नान के बाद वे मां की हत्या के पाप से मुक्त हुए थे। इस संदर्भ में पौराणिक आख्यान है कि किसी कारण वश परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि अपनी धर्मपत्नी रेणुका पर कुपित हो गए। उन्होंने तत्काल अपने पुत्रों को रेणुका का वध करने का आदेश दे दिया। लेकिन उनके आदेश का पालन करने के लिए कोई पुत्र तैयार नहीं हुआ। परशुराम पितृभक्त थे, जब पिता ने उनसे कहा तो उन्होंने अपने फरसे से मां का सर धड़ से अलग कर दिया। इस आज्ञाकारिता से प्रसन्न पिता ने जब वर मांगने को कहा तो परशुराम ने माता को जीवित करने का निवेदन किया। इस पर जमदग्नि ऋषि ने अपने तपोबल से रेणुका को पुन: जीवित कर दिया।

रेणुका तो जीवित हो गईं लेकिन परशुराम मां की हत्या के प्रयास के कारण आत्मग्लानि से भर उठे। यद्यपि मां जीवित हो उठीं थीं लेकिन मां पर परशु प्रहार करने के अपराधबोध से वे इतने ग्रस्त हो गए कि उन्होंने पिता से अपने पाप के प्रायश्चित का उपाय भी पूछा। पौराणिक प्रसंगों के अनुसार ऋषि जमदग्नि ने तब अपने पुत्र परशुराम को जिन जिन स्थानों पर जाकर पापविमोचन तप करने का निर्देश दिया उन स्थानों में परशुराम कुण्ड सर्वप्रमुख है।

अरूणाचल में ब्रह्मपुत्र के प्रवाह को ही लोग लोहित नदी के नाम से जानते हैं। लोहित नदी के नाम से ही लोहित जिला अस्तित्व में आया है। इस नदी पर फिलहाल अनेक जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जिनमें से प्रस्तावित देमवे बांध परशुराम कुण्ड से मात्र 100-150 मीटर की दूरी पर पड़ रहा है। चूंकि कुण्ड का एक सिरा नदी से सीधे जुड़ा हुआ है इसलिए एक तरह से कहा जा सकता है कि बांध परशुराम कुण्ड पर ही बन रहा है।

परशुराम कुण्ड पर बांध बनने की खबर से समूचे अरूणाचल में उबाल आया हुआ है। अनेक स्थानीय धार्मिक एवं सांस्कृतिक संगठनों ने जहां इस बांध के निर्माण पर आपत्ति जताई है वहीं पर्यावरणविदों ने भी केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर अपील की है तत्काल इस बांध को प्रदान की गई अनापत्ति को समाप्त करें।

पर्यावरणविदों को कहना है कि बांध निर्माण के बाद लोहित नदी का जल उसके नैसर्गिक मार्ग से हटाकर पहाड़ों के भीतर प्रस्तावित एक कि.मी. सुरंग के द्वारा किया जाएगा। इस सुरंग को बनाने के लिए बड़े पैमाने पर पहाड़ भीतर से खोखले किए जाएंगे। और इस प्रक्रिया में व्यापक मात्रा में विस्फोटकों का प्रयोग किया जाएगा। पर्यावरणविदों ने भारत सरकार से परियोजना के कारण पर्यावरण को होने वाली हानि का पुन: आकलन करवाने का आग्रह किया है।

पर्यावरणविदों ने परशुराम कुण्ड की पवित्रता पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की ओर भी पर्यावरण मंत्री का ध्यान आकृष्ट किया है। कहा गया है कि विस्फोटकों से पहाड़ तोड़े जाएंगे और भारी मात्रा में गाद-मिट्टी नदी प्रवाह के साथ कुण्ड के जल को प्रदूषित और गहराई को उथला कर देगें। सुरंग के द्वारा परिवर्तित नदी प्रवाह से कुण्ड के जल की पवित्रता भी प्रभावित होगी। कुण्ड को जो जल नैसर्गिक रूप से मिलता रहा है उसे अब बांध के द्वारा नियंत्रित कर दिया जाएगा।

पर्यावरणविदों के अनुसार, परियोजना को लेकर जो जनसुनवाई अनिवार्य रूप से होनी चाहिए उस संदर्भ में पूरी तरह फर्जीवाड़ा किया गया है। किसी को पता तक नहीं चला और जनसुनवाई की रस्मअदायगी कर जनता की सहमति प्राप्त कर ली गई। पत्र में यह भी कहा गया है कि किसी भी हाल में परियोजना पर्यावरणीय मानकों की कसौटी पर खरी नहीं है, इसके बावजूद उसे पर्यावरण अनापत्ति मिल गई तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है।

Wednesday, November 4, 2009

सिर्फ बांधों के फायदे मत गिनाइए – इन स्याह तस्वीरों का क्या होगा!


देश में बांधों की बाढ़ आ गई है। हिमाचल प्रदेश से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक और उत्तराखण्ड से लेकर सुदूर केरल तक बांधों की पौ-बारह है। ‘ले बांध, दे बांध' की तर्ज पर सरकारी मशीनरी बांध प्रस्तावों पर तेजी से कार्रवाई कर रही हैं। एक-एक नदी के प्रवाह पर दर्जनों बांध परियोजनाएं, कुछ मंझोली तो कुछ विशालकाय, कहीं पर सरकारी तो कहीं अर्ध sarkari और कहीं गैर सरकारी निवेश से ये परियोजनाएं देश को विकास के नव युग में ले जाने को आतुर हो चली हैं।


ये अलग मुद्दा है कि इसी बीच नेपाल-बिहार सीमा पर कहीं कोई कोसी बांध दरकता है और पचासों हजार लोग एक झटके में घर-मकान-दुकान-सामन-खेत-खलिहान समेत रातों रात उफनती धारा में डूबने-उतराने लगते हैं। अखबारों में शीर्षक छपता है कि प्रलयंकारी बाढ़ का कहर, लेकिन ऐसे शीर्षक देने वाले बुध्दिमान संपादकों से कोई पूछे कि ये प्रलयंकारी बाढ़ किस बादल फटने के कारण अचानक धरती पर आ टपकी?

आख़िर सच से इतना परहेज क्यों? बांध के कहर को बाढ़ का कहर क्यों बताया जाता है। बाढ़ का कहर कहने से कहर को कारण कहां स्पष्ट हो पाता है। उस समय के अखबार उठाइए और देखिए कि क्या शीर्षक छपे हैं। शीर्षक तो जाने दीजिए, अनेक प्रमुख अखबार अपने पाठकों को ये तक नहीं बता पाए कि ये भीषण बाढ़ अचानक आई क्यों? हां, बाढ़ के द्वारा होने वाली जन-धन हानि को रेखाचित्र बनाकर समझाने में कोई पीछे नहीं रहा।


ये तो भला हो कुछ जिम्मेदार सरोकारवादी समाचार पत्रों का जिन्होंने सच उजागर किया। जिसे आजकल भाषाई पत्रकारिता कहा जाता है, उससे जुड़े समाचार पत्रों और उनके संवाददाताओं ने सबसे पहले बताया कि कोसी की बाढ़ ना तो किसी अति वृष्टि का नतीजा है और ना ही बांध से अचानक उफनते जल के छोड़े जाने से ये विपदा आई है। ये तो मानव निर्मित आपदा है, बांध जर्जर हो चुका था, उसकी समुचित देख-रेख भी नहीं हुई। सामान्य वर्षा के कारण एकत्रित हुए विशाल जल भण्डार को संभाल पाने में उसकी ताकत चुक गई थी। और एक झटके में सैंकड़ों करोड़ का नुकसान हो गया, मानव जीवन के साथ अपार पशु धन, निसर्ग की जो हानि हुई सो हुई ही।


अभी आंध्रप्रदेश में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। कृष्णा नदी पर बने श्रीशैलम और प्रकाशम बांध में रोके गए जल को अचानक छोड़ दिए जाने के कारण ही भीषण तबाही मची। लेकिन इस बार भी फिर से वही बात सुनने को मिली कि बाढ़ का कहर। आखिर ये किसके द्वारा लाई गई बाढ़ है जो अपने नागरिकों को संभलने तक अवसर नहीं देती और गांव के गांव दर्जनों फीट पानी के आगोश में समा जाते हैं। सरकारी अमला भी राहत और सहायता कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, लोग-बाग सुरक्षित स्थानों तक पहुंचने के पहले ही काल-कवलित हो जाते हैं।


ये बांधों द्वारा उत्पन्न बाढ़ है। वह विशालकाय बांध जिनको बनाने के लिए हमारे नीति निर्माता तर्कों का पहाड़ खड़ा कर दे रहे हैं। विकास, विकास, विकास और सिर्फ विकास। आज के राज में किसी और तर्क की कोई सुनवाई नहीं है। सिर्फ विकास के तर्क की सुनवाई है। लेकिन ये नीतिकार इतना भी समझ नहीं पा रहे हैं कि यह विकास अंधाधुंध है, तामसिक है। अमीर अरबपतियों की ऐय्याशी, तमाम ए.सी-डी.सी को करंट देने के लिए किया जा रहा है ये विकास। गरीब-गुरबे, साधारणजन के जीवन को अपनी जड़ों से उजाड़ और उखाड़ देने वाली, आस्था और विश्वास के तर्कों को सिरे से पछाड़ देने वाली ये विकास की आवाज है।


ये प्रतिगामी विकास है, प्रलय की ओर ले जाने वाला, सारी वसुधा को तापमान वृध्दि के बुखार की तपन में धकेलने वाला है ये विकास। संसार इस विकास से हुए विध्वंस को जान गया है, परेशान है कि समाधान कहां से लाएं लेकिन हमारे हुक्मरां हैं कि अभी भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। उन्हें विद्युत उत्पादन के वे तरीके सूझ ही नहीं रहे हैं जिनसे हमारा आज रौशन तो होगा ही हमारे आने वाला कल भी रौशन रहेगा। विस्थापन की मार से दूर हमारी दुनिया सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति तब और ज्यादा प्रतिबध्द होगी।


और जिंदगी में रोशनी का सवाल केवल मनुष्यों के साथ ही जुड़ा हुआ नहीं है। संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन चक्र चलता है। हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में ये बात सामने आई है कि दुनिया के 73 प्रतिशत जीवों और वनस्पतियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। अनेक दुर्लभ जीव दिन प्रतिदिन हमारे देखते ही देखते सदा के लिए धरती को अलविदा कह रहे हैं।


ये संकेत खतरनाक हैं। मतलब साफ है कि धरती से जीवन उठ रहा है। पहले नंबर उन प्रजातियों का लगा है जो डार्विन के विकासवादी सिध्दांत के हिसाब से अस्तित्व के संघर्ष में वर्तमान पारिस्थितिकी के सामने हार मान चुके हैं। लेकिन धीरे धीरे नंबर अब उन्नत प्रजातियों का आ रहा है। अतिकाय बांध आधारित विकास कहीं न कहीं सृष्टि में गहराते पर्यावरणीय असंतुलन को और बढ़ा ही रहे हैं।


संपूर्ण सृष्टि के साथ तादात्म्य बिठा कर चलने की घोषणा करने वाले देश भारत से इस विकट परिस्थिति में क्या आशा की जानी चाहिए? यहां सवाल नीति नियंताओं का आता है कि वे देश को किस दिशा में ले जाने को आतुर हैं। इसे समझने के लिए प्रो.जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन और उस संदर्भ में सरकार के कारिंदों के रवैये का उदाहरण आंखे खोलने वाला है।


यूपीए सरकार के विगत शासन में सुशील कुमार शिंदे केंद्रीय उर्जा मंत्री थे और अभी भी वे उर्जा मंत्री का पद भार संभाल रहे हैं। 2009 की जनवरी में जब प्रो. जीडी अग्रवाल दिल्ली मंे गंगा प्रवाह को बांधमुक्त रखने के सवाल पर दुबारा आमरण अनशन पर बैठे थे तब एक विशेष प्रतिनिधि मण्डल श्री शिंदे से लोहारीनागपाला जलविद्युत परियोजना के सिलसिले में बातचीत करने गया था। इस प्रतिनिधि मण्डल में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर से जुडे पूर्व छात्र, देश के कुछ प्रमुख जल विशेषज्ञ और देश के कुछ चोटी के संत शामिल थे। बैठक में भारत सरकार की ओर से केंद्रीय उर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे, प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े केंद्रीय राज्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, एनटीपीसी के प्रबंध निदेशक व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने हिस्सा लिया। इस संवाददाता को भी सौभाग्य से इस बैठक में शामिल होने का अवसर मिल गया था।


बैठक में सरकार के पक्षकार इस बात पर अड़े हुए थे कि लोहारीनागपाला परियोजना पर 500 करोड़ खर्च हो चुके हैं। अब परियोजना को टालना अव्यावहारिक होगा। दूसरी तरफ प्रतिनिधि मण्डल में शामिल सदस्य-वैज्ञानिक इस बात का तर्क दे रहे थे कि 500 करोड़ क्या आप 1000 करोड़ खर्च कर दीजिए लेकिन आप की परियोजना वैज्ञानिक कारणों से कुछ ही वर्षों में निष्फल हो जाएगी।
आईआईटी से जुड़े रहे इन वैज्ञानिकों के तर्कों को सुनकर मेरे ठीक बगल में बैठे एनटीपीसी से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी खुसफुसाने लगते थे। उनका नाम बताना किंचित उचित नहीं होगा लेकिन मुझे कुछ तटस्थ जानकर उन महोदय ने धीरे से कहा, बताइए, अपने को ये आईआईटी वाले बड़ा तीसमारखां समझते हैं और बातें ऐसी कर रहे हैं मानो सारा विज्ञान इन्हीं ने पढ़ रखा है। हम लोग तो घास खोद कर बड़े हुए हैं।


बैठक में शामिल संतों ने आस्था का सवाल उठाया तो तुरंत सुशील कुमार शिंदे बोल पड़े-महात्माजी मैं भी हिंदू घर में पैदा हुआ हूं। ये क्या बात आप करते हो? देश का विकास जरूरी है कि नहीं? प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि पृथ्वीराज चव्हाण का स्वर शिंदे से भी उंचा था। कहने लगे-ये सब आस्था की बातें यहां मत उठाइए। बिजली के सवाल पर देश में कौन है जो थोड़ा बहुत नुकसान सहना नहीं चाहेगा। संतों की ओर मुंह कर चव्हाण तपाक से बोल पड़े-इन्हीं लोगों से पूछिए, इन्हीं के लोगों की सरकार केंद्र में जब थी, उसने भी इस पर कोई समझौता नहीं किया। और जिस परियोजना को लेकर आज आप आए हैं, इस परियोजना को भी इन्हीं लोगों के द्वारा समर्थित सरकार ने ही अंतिम स्वीकृति प्रदान की थी।


वैज्ञानिकों से रहा नहीं गया। बोले, आस्था के सवाल को आप हलके में मत लिजिए। रही बात वैज्ञानिक कारणों की, पर्यावरण पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की तो हमारा कहना साफ है कि गंगाजी के अस्तित्व के संदर्भ में हम भीषण त्रासदी की ओर बढ़ रहे हैं। दूसरे हमारा आपसे निवेदन है कि आप फिलहाल इन सभी कारणों को एक किनारे रखिए और भारत सरकार की घोषणा का ही लिहाज करिए। जब प्रधानमंत्री ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे दिया है, प्राधिकरण गठित करने की बात हो चुकी है तब फिर आप लोहारीनागपाला पर काम रोक क्यों नहीं रहे हैं। प्राधिकरण ही फैसला करेगा कि काम जारी रहेगा या नहीं।


पृथ्वीराज चव्हाण इस पर सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा कि हम इस बात की गारंटी देने को तैयार हैं कि गंगा का जल उसके प्रवाह मार्ग पर एक न्यूनतम मात्रा में बहता रहेगा लेकिन हम बांध रद्द करने का काम कतई नहीं करेंगे।

वह रस्साकशी थी जिसमें चार पक्ष एक दूसरे का विरोध और समर्थन करते हुए जूझ रहे थे। पहला गैर सरकारी वैज्ञानिक, दूसरे संत, तीसरी भारत सरकार और चौथी एनटीपीसी। भारत सरकार अपने अविभाज्य अंग एनटीपीसी के इस निर्णय के साथ खड़ी दिख रही थी कि बांध तो बनेगा ही। विडम्बना कि एनटीपीसी का पक्ष वे लोग रख रहे थे जिन्हें जनता ने निर्वाचित कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है।


वैज्ञानिकों ने दबाव बनाया लेकिन बेअसर रहा। एक आईआईटी वैज्ञानिक की तो पृथ्वीराज चव्हाण और अन्य अधिकारियों से तू तू मैं मैं तक नौबत आ पहुंची। वह अपने गुरू प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के आमरण अनशन को लेकर बहुत चिंतित थे। उल्लेखनीय है कि प्रो.जीडी अग्रवाल कानपुर आईआईटी में जल अभियांत्रिकी विभाग के विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर रह चुके हैं। वे देश के केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के संस्थापक सचिव भी रहे हैं। वर्ष 2008 के जून महीने में उत्तरकाशी से लेकर गोमुख तक गंगा के प्रवाह को नैसर्गिक, प्राकृतिक एवं बांध-बाधा से मुक्त रखने के लिए उन्होंने आंदोलन का श्रीगणेश किया था।


जो भी हो, सरकार ने बांध को रद्द करने से इंकार कर दिया। और जैसा कि रपट बता रही है कि लोहारीनागपाला पर काम आज भी चल रहा है। यद्यपि गुप-चुप तौर पर किया जा रहा है। दरअसल हुआ यूं कि पहले तो प्रो.जीडी अग्रवाल के आमरण अनशन के दबाव में केंद्र ने अस्थाई तौर पर 19 फरवरी, 2009 को लोहारीनागपाला में काम रोकने का आदेश दिया लेकिन कुछ ही दिन बाद उच्च न्यायालय, उत्तराखण्ड ने इस पर स्थगनादेश दे दिया और काम पुन: जारी हो गया।


लेकिन इसी बीच केंद्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी बनाने और गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण गठित करने की घोषणा कर दी तो तस्वीर बदल गई। इस घोषणा के कारण एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय, उत्तराखण्ड ने स्पष्ट किया कि गंगा पर बांधों के संदर्भ में अब फैसला ये प्राधिकरण करेगा और न्यायालय लोहारीनागपाला के सदंर्भ में दिए गए पूर्व के स्थगनादेश को वापस लेती है। इस आदेश से स्वत: ही केंद्र द्वारा काम पर लगाए गया विराम आदेश अस्तित्व में आ गया। काम तो कागजी तौर पर बंद है लेकिन फिलहाल जिच जारी है कि बांध रहेगा या जाएगा।


यहां महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि आस्था-विश्वास को लेकर संतों ने जो दबाव बनाया, आस्था की वह बात तो पूरे तौर पर दरकिनार कर दी गई। समूचे प्रकरण में जन आस्था और विश्वास जिसके संरक्षण के लिए सरकार संवैधानिक तौर पर बंधी हुई है, सबसे ज्यादा बेबस दिखाई दिया। सेतुसमुद्रम परियोजना के समय भी यही वाकया दिखाई दिया था। तब भी अंधाधुंध और प्रतिगामी विकास के तर्क को पर्यावरण हितैषी विकास और सस्टेनेबिलिटी अर्थात संधारणीय एवं शाश्वत विकास के शस्त्र से काटना पड़ा था। आस्था और विश्वास को जब वैज्ञानिक और पर्यावरण हितैषी तर्क का सहारा मिला तो उसकी प्रभाव शक्ति दोगुनी हो गई।


सर्वोच्च न्यायालय में, उसके पूर्व तमिलनाडु उच्च न्यायालय में जब बाकायदा कानून की भाषा में सरकारी तर्कों की धज्जियां उड़ाईं गईं तभी जाकर रामसेतु को तोड़ने के खिलाफ स्थगनादेश आज भी जारी रह सका है।


सरकार की मंशा से साफ दिखाई पड़ा कि विकास की आंधी में आस्था भला कहां तक टिक सकती है। रही बात वैज्ञानिकों की तो सरकार की अपनी वैज्ञानिक मण्डली है, अपने विशेषज्ञ हैं। एक बार उनकी ओर से अनापत्ति हो गई फिर कोई लाख कहे, कहीं दौड़ लगाए, उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक जाता रहे, क्या कुछ संभव हो पाता है। सर्वोच्च न्यायालय के अनेक वकील है, संविधानविद् हैं, जो आज भी पर्यावरण से जुड़े गंभीर सवालों को लेकर जूझ रहे हैं, लड़ रहे हैं, उसका असर भी है लेकिन इस बीच जो नुकसान हो चुका रहता है उसका मूल्य किसी न किसी पीढ़ी को तो चुकाना ही है। और सावधान! ये पीढ़ी हमारी ही है जिसे कीमत अदा करनी होगी।






यही है विचारधारा

विचार ही जीवन है, जीवन का मर्म है। विचार ही है जो कृति को प्रेरणा देता है। कृति है तो निश्चित ही कुछ विचार भी होगा। विचार न आया होता तो तो संभवतः विधाता सृष्टि रचना के अतुलनीय महान कर्म में प्रवृत्त नहीं हुए होते। जब जीवन में गहन अँधेरा और तमस छाने लगे, अपने अभिन्न भी साथ छोड़ कर किनारे खड़े हो जायें तो एकमात्र विश्वसनीय साथी है विचार। विचार मुक्ति देता है। भव बन्धनों के कष्टों से विमुक्ति देने की सामर्थ्य अर्थात विचार। इहलौकिक, सांसारिक संकटों से मुक्ति के लिए एकमेव शरण अर्थात विचार।

विचरो और विचारो। अंतरात्मा से विचारो। बुद्धि से, मन से विचार निकले तो आत्मा के दर्पण में उसे देख सुन लो। सही लगे तो आगे बढ़ जाओ, झिझक हो तो फिर विचारो, देखो कि श्रेष्ठ जन क्या कहते हैं।

महाजनों एन गतः स पन्थाः ।

Tuesday, November 3, 2009

हिंदुत्व ने बदल दिया है द्रविड़ आंदोलन का चेहरा : एस. वेदांतम, अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष, विश्व हिंदू परिषद


भारत के धुर दक्षिण में एक अनूठी मूक क्रांति हो चूकी है। विश्व हिंदू परिषद के रचनात्मक प्रकल्पों और सामाजिक गतिविधियों ने इस क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन का श्रीगणेश किया। इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप हिंदू समाज की कथित अति दलित, अछूत व पिछड़ी जातियों से जुड़े कोई तीन लाख लोग सनातन वैदिक परंपरा के अनुरूप, विधि-विधान पूर्वक धार्मिक कार्य सम्पन्न करने वाले पुरोहित-पंडित बन चुके हैं।

केरल के रहने वाले श्री एस. वेदांतम विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष हैं। चेन्नई उनका केंद्र है। विशेष रूप से दक्षिण भारत में विश्व हिंदू परिषद प्रेरित इस महान क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन को गति देने में उनकी भूमिका अग्रणी रही है। 1949 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में अपनी सामाजिक यात्रा प्रारंभ की। सन् 1970 में अपनी प्रतिष्ठापूर्ण नौकरी से पूर्ण रूपेण अवकाश लेकर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक बन गए। कालांतर में संघ की ओर से उन्हें विश्व हिंदू परिषद के कार्य में भेज दिया गया। और फिर इतिहास साक्षी है। इसी दीपावली पर चेन्नई में मान्यवर अशोक सिंहल जी की प्रेरणा से उन्होंने इंटरनेट अर्थात कंम्पयूटर के वैश्विक महाजाल पर तमिल वेब टी.वी. का विधिवत् शुभारंभ किया। इस अवसर पर प्रवक्‍ता प्रतिनिधि को दिए गए विशेष साक्षात्कार में उन्होंने न सिर्फ हिंदू आंदोलन को प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी के साथ चलने की आवश्यकता पर बल दिया वरन् भूत-वर्तमान और भविष्य का सम्यक विवेचन कर भविष्य पथ निर्धारित करने की सलाह भी दी। प्रस्तुत है उनसे की गई बातचीत के सम्पादित अंश – सम्पादक



प्रश्न- दक्षिण भारत में आपके प्रयासों से सामाजिक समरसता के आंदोलन को बहुत बल मिला है। इसे शुरू करने की प्रेरणा कहां से मिली।

उत्तर- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही मूल प्रेरणा है। संघ ने ही मुझे विश्व हिंदू परिषद के कार्य में भेजा। ये बात कोई सन् 1972 की है। तब मैं विश्व हिंदू परिषद का प्रांत संगठन मंत्री नियुक्त किया गया। तमिलनाडु की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति द्रविड़ आंदोलन के उभार के साथ ही हिंदू और सनातन परंपरा के विपरीत होती चली गई। 1967 से लेकर लगातार अब तक तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन से जुड़े राजनीतिक लोग ही सत्तारूढ़ होते चले आ रहे हैं। द्रविड़ आंदोलन उस विचार से निकला है जिसके अनुसार आर्य आक्रमणकारी थे और उन्होंने द्रविड़ों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की। इनका प्रारंभ से यह विचार रहा कि हम एक अलग राष्ट्र हैं तमिलों की संस्कृति और तमिलों का राष्ट्र अत्यंत प्राचीन हैं और यह सर्वश्रेष्ठ है। हमारा हिन्दुओं से कोई लेना देना नहीं है। हिन्दुत्व हमें कदापि स्वीकार नहीं है। दक्षिण में हिंदी के विरूध्द द्रविण नेताओं ने ही जहर उगलना प्रारंभ किया। उनका उस समय का एक नारा आज भी लोगों की मानस पटल पर तैरता है कि – ”हिंदी नेवर एण्ड इंग्लिश एवर” अर्थात् ”हिंदी कभी नहीं और अंग्रेजी सदा के लिए”। द्रविण आंदोलनकारियों ने अपने-अपने परिवारों में और समाज में ऐसा माहौल पैदा किया कि लोग एक बारगी आस्था और विश्वास आदि धार्मिक क्रियाकलापों से परहेज करने लगे।



प्रश्न – द्रविड़ आंदोलन हिन्दुत्व के विरूध्द क्यों गया? इसके पीछे का रहस्य क्या है?

उत्तर – अब ये तो इतिहास की बात है। संक्षेप में इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस आंदोलन के संस्थापक ई.वी. रामस्वामी नायकर अपने जीवन के प्रारंभ में एक राष्ट्रवादी नेता थे। कांग्रेस में उनका बड़ा स्थान था। वह कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनना चाहते थे। ऐसा कहा जाता है कि कांग्रेस के कुछ राज्य स्तरीय नेताओं से अध्यक्ष पद के सवाल को लेकर उनके मतभेद हो गये। यहीं से उनके मन में ब्राह्मण विरोध पैदा हुआ जो आगे चलकर हिन्दुत्व के विरोध में परिवर्तित हो गया और तो और उन्होंने आजादी के आंदोलन में भी नकारात्मक भूमिका अपना ली और भारत में ब्रिटिश राष्ट्र के वे समर्थक बन गये। इसी में से द्रविड़ आंदोलन उपजा और द्रविड़ पार्टी की स्थापना तमिलनाड़ में हुई। उन्होंने विधिवत अंग्रेजी राज के समर्थन में प्रस्ताव तक पारित कर दिया। ब्राह्मणों, संस्कृत, हिन्दी, उत्तर और कुल मिलाकर संपूर्ण सनातन हिंदू विचार के वे प्रबल विरोधी बन गये।

द्रविड़ आंदोलन तो अब सत्ता के आंदोलन के रूप में ही बचा है। उसका मूल तत्व, मूल स्वर सब स्वाहा हो गये। उनकी विचारधारा जैसी कोई चीज अब देखने को नहीं मिलती। वर्तमान सत्तारूढ़ द्रमुक पार्टी को ही लें तो उनके एक-दो वरिष्ठतम नेताओं को छोड़कर अधिकांशत: सभी भगवद् भक्ति करने लगे हैं। उनके परिवार और स्वयं वे भी उन मंदिरों में दर्शन के लिए जाने लगे हैं, जिन मंदिरों में जाने से उन्होंने कभी लोगों को रोका था।

प्रश्न – क्या इसमें अंग्रेजों की भी कोई भूमिका दिखाई देती है?

उत्तर – वास्तव में यह एक स्थापित सत्य है कि ईसाई मिशनरियों ने ब्रिटिश सरकार के माध्यम से भारत के दक्षिण भाग में स्वतंत्रता आंदोलन के विरूध्द अलगाववादी आंदोलन प्रारंभ किया। मिशनरियों की प्रेरणा से ही दक्षिण में द्रविड़ आंदोलन की नींव पड़ी। रामास्वामी नायकर देशभक्त थे। कांग्रेस में उनके अहम् पर लगातार चोट की गई थी। कहीं न कहीं वह आहत हुए। मिशनरियों ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया। ईसाई मिशनरी तमिलनाडु में ईसाइयत के प्रचार के लिए व्यग्र थे। उनके कार्य में ब्राह्मण स्वाभाविक रूप से सबसे बड़े बाधक थे। मिशनरियों ने रणनीति बनाई और उन्होंने यह प्रचारित करना शुरू किया कि तमिल संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति सामाजिक एवं दार्शनिक आधार पर अलग-अलग हैं। एक बार यह सिध्दांत पैदा हुआ तो फिर दूसरे चरण में तमिल साहित्य और तमिल भाषा के पौराणिक ग्रंथों में भी इस प्रकार की अलगाववादी जहर डालने के प्रयास शुरू किये गये। इस कार्य के लिए मिशनरियों ने द्रविड़ आंदोलन को प्रचारित प्रसारित करने में अप्रत्यक्ष रूप में पूरी मदद की। आगे चलकर द्रविड़ कडगम का विभाजन हो गया और द्रविड़ मुनेत्र कडगम नामक एक नए दल का गठन हुआ। कालांतर में इसमें भी विभाजन हुआ और आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम की नींव पड़ी। इन सभी संगठनों ने तमिलनाडु में हिन्दुत्व के उत्थान में भारी बाधाएं खड़ी की। सनातन हिंदू विचारधारा को मानने वाले लोगों की संख्या में तेजी से क्षरण होने लगा, लेकिन विधाता की इच्छा से द्रविड़ आंदोलन में ही कुछ ऐसी चीजें घटित हुई कि जिनके कारण दक्षिण में हिन्दुत्व का बीज पुन: अंकुरित होने लगा। ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम के नेता एम.जी. रामचंद्रन की इसमें बड़ी भूमिका रही। यद्यपि वे द्रविड़ नेता थे द्रविड़ आंदोलन की उपज थे लेकिन उनका हृदय कहीं न कहीं आध्यात्मिक एवं भक्ति भावना से ओत-प्रोत था। द्रविड़ आंदोलन की परंपरा से हटकर उन्होंने मंदिरों और देवी-देवताओं के प्रति अपनी परंपरागत आस्था को बनाए रखा। वे भगवद् शक्ति में वे गहरी आस्था रखते थे और उसे प्रकट भी करते रहते थे। रामचंद्रन लगभग दस साल तक तमिलनाडु राज्य के मुख्यमंत्री रहे और उनके कार्यकाल में ही द्रविड़ आंदोलन की हिंदू विरोधी भावनाएं धीरे-धीरे शांत होने लगीं। यह कट्टर द्रविड़ आंदोलन के लिए गहरा झटका था। किंतु द्रविड़ आंदोलन के कारण हिंदू धर्म के प्रति साधारण समाज में जो अनास्था फैलाई गई थी, कहीं न कहीं उसने अपना विघातक रूप भी दिखाया। 1982 में मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में लोग इस्लाम धर्म में मतांतरित हुए। धर्म में अनास्था के कारण समाज में जो रिक्तता आई उसका लाभ हिंदू विरोधी शक्तियों ने उठाना प्रारंभ कर दिया। बड़ी संख्या में मतांतरण की घटनाएं सामने आने लगीं। ब्राह्मण-अब्राह्मण, ऊंच-नीच, अगड़े-पिछड़े, आर्य-द्रविड़ के भेद से जो सामुदायिक शत्रुता पनपाई गई उसके दुष्परिणाम सामने आए। भिन्न-भिन्न जातियों में परस्पर अहंकार जनित संघर्ष भी प्रारंभ हुए। इस विकट परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं ने समाज की एकता और राष्ट्रीय अखण्डता बनाए रखने के लिए विभिन्न रचनात्मक उपायों पर बल दिया और जब हमने सामाजिक एकता का कार्य अपने हाथों में लिया, परिस्थिति बदलते देर न लगी। मुझे यह बताने में गर्व होता है कि हमने सचमुच परिस्थितियों को बदल डाला। पुजारी आंदोलन ने इस कार्य में बड़ा भारी योगदान दिया। न केवल परिस्थिति बदली वरन् हिंदुओं के सामाजिक इतिहास ने भी निर्णायक मोड़ ले लिया।



प्रश्न – आज की परिस्थिति में द्रविड़ आंदोलन को उसके मूल रूप में आप कितना प्रभावी मानते हैं?

उत्तर – द्रविड़ आंदोलन तो अब सत्ता के आंदोलन के रूप में ही बचा है। उसका मूल तत्व, मूल स्वर सब स्वाहा हो गये। उनकी विचारधारा जैसी कोई चीज अब देखने को नहीं मिलती। वर्तमान सत्तारूढ़ द्रमुक पार्टी को ही लें तो उनके एक-दो वरिष्ठतम नेताओं को छोड़कर अधिकांशत: सभी भगवद् भक्ति करने लगे हैं। उनके परिवार और स्वयं वे भी उन मंदिरों में दर्शन के लिए जाने लगे हैं, जिन मंदिरों में जाने से उन्होंने कभी लोगों को रोका था।



प्रश्न – क्या आप कुछ उदाहरण बता सकते हैं जिससे ये बात सिध्द हो सके?

उत्तर – हां, मेरे तो बहुत से अनुभव हैं। वर्तमान सरकार के अनेक मंत्रियों के घरों में मुझे जाने का अवसर मिला है और मैंने देखा है वे बड़ी तल्लीनता से अपने पूजा घरों में पूजा-पाठ करते हैं। इसलिए अब तमिलनाडु द्रविण विचारधारा के नाम पर कोई चीज बची है ऐसा मैं नहीं देखता। हां, सत्ता के आधार पर संपूर्ण राज्य में स्थान-स्थान पर लाभ प्राप्त करने वाले ऐसे समूह जरूर खड़े हो गए हैं जो दल विशेष को सत्ता में बनाए रखने के लिए अपनी ताकत झोंक रहे हैं, लेकिन इन सभी निजी जीवन में देखे तो उनका रूझान हिन्दू संस्कृति और त्योहारों के प्रति स्पष्ट दिखाई देता है।

द्रमुक के वर्तमान उपमुख्यमंत्री स्टॉलिन और एक अन्य केन्द्रीय मंत्री अझागिरी का उदाहरण भी सामने हैं। दोनों द्रमुक नेता और मुख्यमंत्री करुणानिधि के सुपुत्र हैं। दोनों मंदिर जाते हैं और दोनों का परिवार भी नियमित तौर पर दर्शन पूजन करता है। हाल ही में एक रोचक विवरण अखबारों में आया। अझागिरि केंद्रीय मंत्री बनने के बाद आझागिरि जब चेन्नई आए तो वह पूजा के लिए एक नवगृह मंदिर में गए। पत्रकारों ने इस अवसर पर जब उन्हें घेरा तो उन्होंने पत्रकारों से आग्रह किया कि जो प्रश्न पूछना है आप पूछ लें लेकिन कृप्या कोई फोटो न खींचे। तो सच्चाई यह है कि करूणानिधि के परिवार में ही करूणानिधि को छोड़कर शेष सभी पूजा पाठी हो गए हैं। जहां तक मेरी जानकारी है करूणानिधि के पौत्र हिंदी भी सिख रहे हैं। दिपावली और अन्य हिंदी त्योहार भी उनके परिवार में धूमधाम से मनाया जाने लगा है। हाल ही में करूणानिधि ने खंडन करते हुए कहा कि मेरे पौत्रों की पटाखों में दिलचस्पी में न कि त्योहार में। लेकिन असलियत क्या है सभी जानते हैं। करूणानिधि खुद दिपावली त्योहार का अपने घर पर आनंद उठाते हैं। वास्तव में तो ये लोग तमिलनाडु की जनता को मूर्ख बनाते आए हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ विचारधारा का अनुसरण करते हुए दो पीढ़िया गुजर चुकी हैं, लेकिन इसके बावजूद इस पड़ाव पर वे लगभग अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। विचारधारा के स्थान पर जातियों और समुदायों की राजनीति की जा रही है। पिछले दो विधानसभाओं के चुनाव बताते हैं कि द्रमुक जैसे दल को भी सरकार में बने रहने के लिए अन्य बाहरी दलों का सहारा लेना पड़ रहा है। यह उनकी पतली हालत को दर्शाता है। आज द्रमुक और अन्ना द्रमुक कोई भी अकेले दम पर सत्ता में नहीं आ सकता उन्हें बाहरी समर्थन की जरूरत पड़ती है।



प्रश्न – राष्ट्रवादी आंदोलन के नाते तमिलनाडु में भाजपा का भविष्य आप किस रूप में देख रहे हैं?

उत्तर – राज्य में भाजपा का एक भी विधायक या सांसद नहीं है। पहले राज्य विधानसभा में कुछ विधायक जरूर थे और कुछ सांसद भी थे लेकिन अब एक भी नहीं है। तो इसका विश्लेषण उन्हें स्वयं ही करना चाहिए। विश्लेषण्ा इस बात का भी करना चाहिए कि उनके विधायकों और सांसदों की भूमिका अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में किस प्रकार की रही है? जन शिकायतों के निवारण में उन्होंने कितनी सक्रियता बरती है? जनता के हितों के सवाल पर उन्होंने क्या किया है? विशेष रूप में जो पिछड़े और वंचित वर्ग के लोग हैं, श्रमिक हैं, अथवा जिन्हें हम आम आदमी कहते हैं उनके उत्थान के लिए पार्टी ने क्या नीति-रणनीति अपनाई है? समाज और क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में भाजपा नेतृत्व की भूमिका क्या रही है? ऐसे अनेक गंभीर मुद्दे हैं जिन पर भाजपा को गहराई से आत्मावलोकन करना चाहिए कि वह तमिलनाडु में क्यों असफल हो गई। मेरा विचार पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि भाजपा के जनप्रतिनिधियों ने अपने दायित्व का निर्वहन ठीक से नहीं किया। दिल्ली हो या चेन्नई, मैं एक बात समान रूप से घटित होते हुए देख रहा हूं कि हमारे जनप्रतिनिधि जनसेवा के बजाय अपना अधिकांश समय धनार्जन में लगा रहे हैं। आप इनकी आर्थिक स्थिति देखिए हर चुनाव के समय इनकी संपत्ति में कहीं डेढ गुनी तो कभी दो गुनी वृध्दि होती है। नामांकन के समय दाखिल होने वाले शपथ पत्रों को पढ़कर ही हम इसे समझ सकते हैं। ये कैसे संभव है इसका मतलब है कि हमारे नेता अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं है और वे दूसरे अन्य कार्यों में सक्रिय है। भाजपा इसमें अपवाद नहीं बची है। भाजपा को इस पर ध्यान देना चाहिए कि वह किस प्रकार के लोगों को अपना प्रत्याशी बना रही है? क्या केवल धन ही टिकट प्राप्त करने का अथवा चुनाव जीतने का एक मात्र पैमाना बन गया है।



प्रश्न – आप दक्षिण में हिन्दू जागरण में विश्व हिन्दू परिषद की भूमिका क्या मानते हैं। आपका काम करने का तरीका क्या है? और इसके परिणाम कैसे प्राप्त हो रहे हैं?

उत्तर – हम तमिलनाडु में कई स्तरों पर और कई माध्यमों से काम कर रहे हैं हमें जनता का अपार समर्थन मिल रहा है। चाहे हमारा एकल विद्यालय हो, हमारा पुजारी प्रशिक्षण कार्यक्रम हो, हमारे शिक्षा के प्रयास हो अथवा चिकित्सा और राहत के कार्य सभी को अपार सराहना मिली है। हम राजनीति से पूरी तरह अलिप्त है। लेकिन हिन्दू जागरण के कार्य के लिए प्रत्येक सामाजिक मोर्चे पर हमने दस्तक दी है। पिछले 25-30 सालों में हमारे कार्यकर्ताओं ने शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टतम कार्य किये हैं। स्कूल जाने वाले बच्चों के बीच हमारा एक कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है। हर वर्ष 25 से 30 हजार स्कूली बच्चों को हम एकत्रित कर उन्हें अपनी संस्कृति और परंपरा से परिचित कराते हैं। जाति-भेद की दीवारें लांघ कर इसमें हर वर्ग के बच्चे हिस्सा लेते हैं। इस माध्यम से हमने समरसता के भाव को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाया है अपनी संस्कृति और धर्म का प्राथमिक परिचय बच्चों को कराने में यह कार्यक्रम अत्यंत लाभदायक सिध्द हुआ है।

तमिलनाडु में हमने पुजारी आंदोलन शुरू किया। अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अन्य जाति से जुड़े लगभग 1 लाख पुजारी इस आंदोलन के नियमित सदस्य हैं। इसके अतिरिक्त 2 लाख अन्य लोग भी इस पुजारी आंदोलन से जुड़ गये हैं। 1996 में हमनें ऐसे पुजारियों का विराट सम्मेलन आयोजित किया और इसमें उस समय की मुख्यमंत्री जयललिता को आमंत्रित किया। द्रविण आंदोलन के इतिहास में यह पहला अवसर था जब कोई द्रविण नेता विश्व हिन्दू परिषद के मंच पर आया। सन् 2001 में हमने पुन: सम्मेलन आयोजित किया और इस बार करूणानिधि मंच पर पधारे उन्होंने मंच से हमारे मांग पत्र के नवबिंदुओं में से 8 बिंदुओं को तत्काल पूरा करने की घोषणा की। घोषणा के आधार पर 60 वर्ष अथवा उससे ऊपर की आयु के 3000 पुजारियों को प्रतिमाह 750/-रूपये मासिक भत्ता मिलना प्रारंभ हो गया। करूणानिधि ने पुजारियों के लिए एक बोर्ड भी गठित करने की घोषणा की जिसके द्वारा उनके चिकित्सकीय एवं अन्य जरूरतों को पूरा किया जाता है। करूणानिधि के लिए यह बात आश्चर्यजनक थी कि जिन्हें वह कथित तौर पर हिंदू समाज का अछूत वर्ग मानते रहे आज वे पुजारी बन कर हिन्दू धार्मिक क्रियाकलापों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। यही कारण है कि नास्तिक होते हुए भी करूणानिधि हमारे मंच पर आए। यह विश्व हिन्दू परिषद के कार्य का जादू है जो तमिलनाडु में अब गहरे उतर रहा है।



प्रश्न – आप गैर ब्राह्मण लोगों को और उसमें भी कथित अछूत जातियों के लोगों को पुजारी परंपरा से जोड़ने की ओर कैसे प्रेरित हुए ये विचार आपके मन में कब आया?

उत्तर – 1982 में मीनाक्षीपुरम में घटी मतांतरण की घटना ने हमें हिला कर रख दिया। संपूर्ण देश इस घटना से स्तब्ध रह गया था। तभी ऐसे अनेक लोग सामने आये जिन्होंने परिस्थिति को बदलने का बीड़ा उठाया। समाज के सहयोग से हमने सेवा बस्तियों में मंदिर निर्माण शुरू किये। हमने प्रभावित लोगों के बीच जाकर उनकी माली आदत को सुधारने की दिशा में प्रयास शुरू किया। उनके लिए पीने के पानी, रहने के लिए वर्षा और आग से सुरक्षित मकान आदि के निर्माण में सहयोग प्रदान किया। लगभग 200 ग्रामों में हमने जरूरी नागरिक सुविधाएं मुहैय्या कराई। हमने मंदिर बनाए तब यह समस्या खड़ी हुई कि वहां नियमित विधि-विधानपूर्वक पूजा कौन संपन्न करवाएगा और इसमें से ही पुजारी आंदोलन की नींव पड़ी हमने अनुसूचित जाति और जन जाति के लोगों को ही तैयार किया और उनके प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की।



प्रश्न – जब आपने अनुसूचित जातियों में पुजारी आंदोलन शुरू किया तो उस समय उच्च जातियों की प्रतिक्रिया क्या थी?

उत्तर – हमने सारा काम मौन रहकर किया, चुपचाप किया, कोई हल्लागुल्ला नहीं मचाया। कुछ समय बाद जब लोगों ने इसे देखा तो उन्हें समझ आया कि सामाजिक परिवर्तन क्या होता है। हमें समाज के सभी वर्गों का पूरा समर्थन मिला। और तो और पूज्य शंकराचार्यों ने हमें पूरा समर्थन दिया । अनेक उच्च कोटि के विद्वान-ब्राह्मण आगे आए। बहुत से साधु-महात्मा और संत आगे आए। उन्होंने इस कार्य को अपना समर्थन और आशीर्वाद दिया। हमारे विरोधियों ने इस सामाजिक क्रांति पर यह कहकर टिप्पणी की कि हम नव ब्राह्मण पैदा कर रहे हैं।



प्रश्न – क्या यह सभी प्रशिक्षित पुजारी अपने व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू जीवन मूल्यों का अनुसरण करने लगे हैं?

उत्तर – हिन्दू जीवन मूल्यों के अनुसरण का सवाल पुजारी बनने या न बनने से नहीं जुड़ा है। व्यापक तौर पर एक आस्थावान हिंदू चाहे वह कोई भी कार्य क्यों न करता हो, निजी जीवन में हिन्दू जीवन मूल्यों के अनुसरण का भरसक प्रयास करता है और हमें प्रसन्नता है कि हमारे पुजारी भी उसी पथ पर चल रहे हैं। आप उनके माथे पर तिलक देखेंगे, वे शिखा रखते हैं, वे यज्ञोपवीत धारण करते हैं और भी जो हिन्दू प्रतीक चिन्ह हैं उन सभी का वे अनुसरण करते हैं। पुजारी बनने के पूर्व के कथित दमित व दलित जीवन की तुलना में स्वाभाविक ही वे भिन्न और सुसंस्कृत जीवन पथ पर चलने लगे हैं। समाज पर भी उनका सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अपनी जिस जाति से वह संबंधित रहते हैं, उनमें सैंकड़ों स्थानों पर ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं जहां अपने पुजारियों के प्रेरक जीवन को देखकर, उनकी प्रेरणा से लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया है, जहां लोग धुम्रपान से दूर हो गये हैं। ये सचमुच एक बड़ा भारी परिवर्तन हो रहा है। हमारे सम्मेलन में जब करूणानिधि आये थे तब उन्होंने पूछा था कि क्या ऊंची जातियों को ये पुजारी स्वीकार हैं । तब मैंने उन्होंने बताया था कि हम यह किसी प्रचार के लिए नहीं कर रहे हैं हमारी मान्यता है कि जैसे-जैसे यह कार्य आगे बढ़ेगा परिवर्तन अपने आप दृष्टिगोचर होने लगेगा और वह दिख रहा है क्योंकि लोग उसे स्वीकार कर रहे हैं। जब जयललिता से पुजारियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ मिले थे तो वह यह देखकर आश्चर्यचकित थी कि अनुसूचित जाति-जनजाति से जुड़े लोग माथे पर तिलक और यज्ञोपवित धारण कर रहे हैं। उन्होंने वहां खड़े अपने पार्टी सदस्यों से कहा कि जो हम सिर्फ भाषणों में कहते हैं विश्व हिन्दू परिषद उसे धरातल पर सच करके दिखा रही है।



प्रश्न – आप विश्व हिन्दू परिषद के शीर्ष नेतृत्व में प्रमुखतम स्थान रखते हैं। वर्तमान परिस्थिति में हिन्दू आंदोलन के भविष्य को आप किस रूप में देखते हैं?

उत्तर – इस संपूर्ण आंदोलन के दो आयाम है पहला तो यह है कि हमारे हिन्दू नेतृत्व ने चाहे वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हो, या विश्व हिन्दू परिषद में इस नेतृत्व ने महान् तपस्या की है। हिन्दू विचार के प्रभाव के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए महान् त्याग और समर्पण किया है। सभी ने मौन रहकर साधना की है। मेरा मानना है कि ये साधना यूं ही व्यर्थ नहीं जाएगी। हमारे कार्य का आधार धर्म है और यदि धर्म हमारे साथ है तो निश्चित रूप से हम विजय प्राप्त करेंगे। क्षणिक आघात-प्रतिघात लग सकते हैं लेकिन अंतत: हम अपना लक्ष्य प्राप्त करेंगे। मैं बहुत आशावादी हूं। मेरा मानना है कि सन् 2010 के बाद हिन्दू धर्म के संदर्भ में हमें महान् परिवर्तन देखने को मिलेंगे। सारा संसार सामी सभ्यताओं और उनकी जीवन शैली के दुष्परिणामों को झेल रहा है। सबके लिए आशा की किरण हिन्दुत्व है। भारतवर्ष है। हमारे पास एक जीवन दृष्टि है, एक जीवन शैली है। इस वसुंधरा को बचाने के लिए हमारे पास दुनिया को दिशा दिखाने वाला संदेश है। केवल एक काम है जो हमें लगातार करते रहना है कि हमें अपने काम को तेजी से करना है। संसार जीवन शैली के प्रश्न पर एक बड़े परिवर्तन की बाट जोह रहा है और इसलिए हिंदू आंदोलन आज भी प्रासंगिक है।



प्रश्न- आपको लगता है कि संसार की बढ़ती समस्याओं का समाधान हिंदू विचार एवं जीवन पथ द्वारा हो सकता है?

उत्तर-संसार के पास हिंदू विचार पथ पर आने के सिवाय कोई रास्ता भी नहीं बचेगा। वह समय निकट आ गया है। शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा, सृष्टि और परमेष्टि के बीच समन्वय के बिना संसार का कल्याण नहीं है और ऐसा केवल हिंदू जीवन पथ के अनुसरण द्वारा ही संभव है। मेरा अपने संगठनों को एक सुझाव है कि हमें शीघ्र अपने अतीत, अपने वर्तमान और अपने भविष्य का सम्यक अध्ययन कर, सम्यक विश्लेषण कर रणनीति बनानी चाहिए। हमें समयबध्द लक्ष्य तय करने चाहिए। इस कार्य में विशेषज्ञों के साथ सलाह परामर्श करना चाहिए। वस्तुत: मुगल काल से लेकर और बाद में ब्रिटिश काल में भी हिन्दुओं के मनोविज्ञान पर बड़ा भारी दुष्प्रभाव पड़ा है। हिंदू मन अनेक ऐसे दुर्गुणों की चपेट में आ गया जो उसके विकास को हमेशा बाधित करते हैं। पराजित मानसिकता, हतमनोबल, अहंकार आदि दुर्गुणों का प्रभाव हमारे सामाजिक जीवन पर ज्यादा पड़ा तो हमें इनसे मुक्ति पाने के रास्ते खोजने होंगे और तरीके तलाशने होंगे। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि वर्तमान युग प्रौद्योगिकी एवं तकनीक आधारित युग है। प्रौद्योगिकी का प्रभाव बढ़ रहा है प्रौद्योगिकी अथवा टेक्नालॉजी तो हीरे के समान है। हमें परंपरा रूपी स्वर्ण में इस हीरे को भी जड़ना होगा। टेक्नालॉजी के माध्यम से अपने विचार का प्रसार और समाज पर तक व्यापक पहुंच बनानी होगी। यह समय की मांग है। कुछ बिंदुओं पर हमें अपने पैर पीछे करने होंगे और कुछ बिंदुओं पर पूरी ताकत से काम करना होगा। शिवाजी से हमें प्रेरणा लेनी होगी कि हमें कब-कहां, किस समय और क्या करना है।



प्रश्न- युवा पीढ़ी के लिए आप के पास क्या संदेश है?

उत्तर-हमारे युवा हमारी ताकत है। पूरे विश्व में हमारे युवा बड़े-बड़े महान् कार्य कर रहे हैं। दुनिया में सर्वाधिक युवकों की संख्या आज हिंदू समाज के पास है। लेकिन सवाल यह है कि इस युवा शक्ति को हिंदू विचारधारा की ओर अधिक से अधिक किस प्रकार आकर्षित कर सकते हैं। कैसे उन्हें अधिकाधिक ढंग से हम अपने काम में लगा सकते हैं। इस लक्ष्य और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें रणनीति बनानी होगी। हमारा युवा वर्ग बहुत पराक्रमी, तेजस्वी और सक्रिय है वह स्वयं ही अपने धर्म, समाज और विरासत और अपनी परंपरा में बहुत कुछ करना चाहता है। प्रश्न तो हमारे सामने खड़ा है कि क्या हम उनकी कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? हमारे शत्रु अमीबा की तरह बहुत तीव्र गति से वृध्दि कर रहे हैं। उनकी तुलना में हमारी गति धीमी है तो इस कमी को दूर करने में हमारा युवा वर्ग ही हमारी शक्ति बन सकता है। हमें अपने युवकों की अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी चाल-ढाल में परिवर्तन लाना होगा।

विकास की गंगा में बह गयीं गंगा मैया



गंगोत्री के दर्शन को चलते चले जाइए लेकिन रास्ते में अपने प्रवाह-मार्ग में कहीं गंगा नहीं मिलेंगी। भागीरथी भी नहीं। उत्तरांचल के नरेंद्र नगर से चंबा तक सड़क मार्ग की यात्रा कर आगे बढ़िए और फिर देखिए महाकाय विकास के भीषण चमत्कार। अगर आपने 2005 के पहले कभी इस गंगोत्री के पथ पर गंगा के दर्शन किए होंगे तो निश्चित तौर पर आपकी आंखें ये देखकर फटी रह जाएंगी कि ये क्या हो गया है गंगा मां को? इसकी सांसे थम क्यों गई है? कहां है गंगा के प्रवाह की कल-कल ध्वनि? कहां हैं गंगा की उत्ताल तरंगे, इठलाती-बलखातीं लहरें और गंगा के पारदर्शी जल में गोते लगाते जलीय जीवों-मछलियों के नृत्य?

विलसन की विरासत को अपना मानने वाले लील गए गंगा को। हां, विलसन जिसके बारे में कहा जाता है कि 1859 में उसीने पहली बार गंगोत्री और आस-पास के गांव वालों को ‘विकास की गंगा’ के दर्शन कराए थे। महाराजा टिहरी से उसने कुछ वर्षों के लिए गंगोत्री और आस-पास के गांव-जंगल पट्टे पर लिए और फिर देवदार के घने जंगलों पर कहर बरस पड़ा। देवदार के पेड़ काट-काट कर उसके लट्ठे गंगा में बहा दिए जाते। ऋषिकेश और हरिद्वार में उन्हें एकत्रित कर फिर देश के अन्य इलाकों में विकास की गंगा बहाने के लिए भेजा जाने लगा।

विलसन ने रास्ता दिखाया और फिर तो इस देवभूमि को मानो नजर ही लग गई ‘विकास पुरूषों’ की। क्या गंगा-भागीरथी और क्या अलकनंदा जिधर देखिए इस समय विकास की गंगा बहने लगी है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस विकास-गंगा को बहाने के लिए असल गंगा को हमारे नीति निर्धारकों ने पहाड़ों के भीतर सुरंगों में ढकेल दिया अथवा बांध बनाकर उसके प्रवाह को विशाल जलाशयों में तब्दील कर दिया।

क्या टिहरी और क्या मनेरी-भाली, धरासू, डुण्डा, उत्तरकाशी, लोहारीनागपाल सभी स्थानों पर गंगा के प्रवाह के स्थान पर आपको ठहरा-सिमटा-उथला जल दिख जाएगा। चंबा से धरासू की ओर आगे बढ़िए और जरा एक नजर गंगाजी की ओर देख भर लीजिए, अगर आपमें आत्मा होगी तो शायद कलपने में देर नहीं लगेगी। हमने गंगाजी के साथ ये क्या कर डाला? क्यों कर डाला? जिस जल को अमृत मानकर हमने उसकी पूजा की थी, जिसकी एक बूंद के लिए इस धराधाम पर मानव अपने अंत समय में आज भी तरसता है, मुख में एक बूंद पड़ जाए तो जीवन धन्य मानकर आगे की यात्रा पर सुखपूर्वक निकल पड़ता है, उस पवित्र जल पर मीलों तक पसरी हरी कायिक-शैवाल परत बता रही है कि मां स्वयं ही चिरनिद्रा में चली गई है। करोड़ों को जीवन देने वाली गंगा अपने उपर जमा काई, गाद, गंदगी को साफ करने में असमर्थ हो चली है। धरासू में मां के तट पर पहुंचे तो लोगों ने कहा, भैया, वहां जलाशय के पास मत जाइए। तट के पास जमीन धंस सकती है, दूसरे पानी से दुर्गंध भी आती है। यहां आचमन भी मत करिए क्योंकि इसे अब कोई गंगाजी नहीं कहता, ये तो जलाशय है सिर्फ एक जलाशय। पूजा-पाठ उत्तरकाशी में ही करिए।

धरासू तक तो टिहरी का विशाल जलाशय ही फैला हुआ है। करीब 42 वर्ग कि.मी. के विस्तृत भूभाग में फैले इस विशालकाय जलाशय में भागीरथी और भिलंगना के साथ अनेक नद-नालों और बरसाती जल का समागम होता है। टिहरी बांध सन् 2005 में पूरा हुआ था। जाने कितने ‘विलसन’ इस बांध को बनवाने में तर गए। उनकी कई पीढ़ियां तर गईं। हजारों करोड़ का वारा-न्यारा हो गया। बावजूद इसके पचास साल तक बिजली मिल जाए तो कहिएगा? पचास साल के लिए पचास हजार साल से अधिक प्राचीन प्रवाह की हत्या करने में पीछे नहीं हटे ये ‘विलसन’ के बेटे। मनेरी ने एक इंजीनियर ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि मनेरी-भाली प्रथम चरण परियोजना ‘फेल’ होने के कगार पर है। कुल क्षमता का 50 प्रतिशत भी नहीं मिल पा रहा है इससे। दूसरे लोहारीनाग पाला में जो विध्वंस एन.टी.पी.सी. ने किया है उसके कारण पहाड़ों की गाद, मिट्टी तेजी से बहकर जलाशय में आ गई है। जलाशय तेजी से उथला हो रहा है। कुछ वर्षों में ये परियोजना अपने आप ही बंद हो जाएगी या फिर बंद करनी पड़ जाएगी। मैंने पूछा-कितने साल पहले बनना शुरू हुई थी ये परियोजना और बिजली कब से मिल रही है? उन्होंने बताया कि 1984 के करीब यहां उत्पादन प्रारंभ हो गया था। उनके अनुसार, ये मनेरी भाली परियोजना ही वह प्रथम परियोजना है जिसके द्वारा पहली बार गंगा का अविरल प्रवाह बांधा गया। टिहरी बांध के पीछे तो गंगा को बहुत बाद में रोका गया, उससे पहले यहां गंगा को पूरे तौर पर रोक दिया गया था।

धरासू से आगे बढ़िए तो उत्तरकाशी के रास्ते पर गंगा का लगभग शुष्क प्रवाह पथ दिखाई देने लगता है। इसके पहले तक तो टिहरी जलाशय के दर्शन हो रहे थे। और प्रवाह पथ भी कैसा, जैसे मां सुबुक रही हो। जैसे मां बता रही हो कि लानत है मेरे बेटों, तुम सबके जीवित रहते ही विलसन के बेटों ने मेरे साथ ‘बलात्कार’ कर डाला। मेरी इज्जत, मेरी अस्मिता, मेरी जिंदगी सब छीनकर उसे पहाड़ी सुरंगो के हवाले कर दिया। मुझमें अब कुछ नहीं बचा है। मेरे अंदर की स्पंदित उर्जा से अब तुम्हारी दिल्ली, तुम्हारे बड़े शहरों और कारपोरेट घराने रोशन हो रहे हैं। मैं तो खुद एक जिंदा लाश में बदल गई हूं। घुट-घुट कर मर रही हूं, घुट-घुट कर बह रही हूं।

धरासू के आगे बढे तो पता चला कि गंगा का जल आगे मनेरी भाली द्वितीय जल विद्युत परियोजना के जलाशय में रोक दिया गया है। मनेरी भाली प्रथम चरण की परियोजना के जलाशय से गंगा के प्रवाह को सुरंगो में डाल कर उसे उत्तरकाशी के समीप पहाड़ों के अंदर से मनेरी भाली द्वितीय चरण तक पहुंचा दिया गया है। मनेरी भाली द्वितीय चरण का उद्धाटन अभी पिछले साल ही भाजपाई मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खण्डुरी ने किया है। तो उत्तरकाशी के 13 कि.मी उपर मनेरी बांध से शुरूकर उत्तरकाशी के बाद डुण्डा गांव तक गंगा लगभग पूरे तौर पर सुरंगों में ही बहती हैं। डुण्डा के आगे बढ़ते ही गंगा धरासू में टिहरी जलाशय में समा जाती हैं। अर्थात धरासू और डुण्डा से उत्तरकाशी की ओर बढ़ने पर गंगा के प्रवाह में जल नहीं के बराबर दिखता है। जो जल दिखता भी है वह अन्य सामान्य पहाड़ी नदियों का रहता है न कि गंगा का। गंगा का जल मनेरी-भाली से जुड़ी दोनों परियोजनाओं के जलाशयों में ही रोक दिया जाता है और जब उपर से कोई आदेश आता है तभी जल छोड़ा जाता है। इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि लोहारीनागपाला परियोजना पूर्ण हुई तो गंगा का प्रवाह लगभग 14-15 कि.मी. तक पुन: सुरंग में ही बहेगा।

उत्तरकाशी से गंगोत्री पथ पर आगे बढ़िए तो स्पष्ट हो जाता है कि हमारे हुक्मरानों के दिमाग में कैसा तमस छा गया है। गंगा के प्रवाह पथ के दोनों ओर भीषण तोड़-फोड़ चल रही है। पहाड़ों के अंदर डायनामाइट लगा-लगाकर सुरंगों के लिए रास्ते साफ किए जा रहे हैं। पहाड़ों की चोटी पर स्थित गांव के गांव बदहाल हो गए हैं।

लोहारीनागपाला के पास गंगा के प्रवाह को फिर से जिस 14 किमी. की सुरंग में ले जाने की तैयारी है उसमें से 2 कि.मी. तक सुरंग बनकर तैयार हो चुकी है। लोहारी नागपाला परियोजना एन.टी.पी.सी. अर्थात केंद्र सरकार की है। सुरंग निर्माण का ठेका किसी ‘पटेल समूह’ को दिया गया है। जब ये परियोजना पूरी हो जाएगी तो गंगोत्री के बिल्कुल ही समीप भैंरोघाटी परियोजना का नंबर लग जाएगा। अर्थात गंगा के प्रवाह को गंगोत्री के पास ही समाप्त कर देने की परियोजनाओं को हमारे नीति निर्माता हरी झंडी दिखा चुके हैं।

उत्तरकाशी में हमें मिलीं साध्वी समर्पिता। उन्होंने परियोजनाओं को लेकर सरकार और प्रशासन की दिलचस्पी का जो वर्णन सुनाया वह चौंकाने वाला था। साध्वी समर्पिता पिछले साल प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल के आमरण अनशन के समय उनके साथ थीं। वे उस समय साधनारत थीं। लेकिन प्रोफेसर अग्रवाल की आवाज सुनकर वस्तुस्थिति को समझने और उसके अध्ययन में जुट गईं। उन्होंने गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक के सभी प्रमुख ग्रामों का दौरा किया। हजारों लोगों से मिलीं। और गंगा की दुर्दशा के प्रति साधारण ग्रामवासियों के दु:ख से प्रेरित हो कर उन्होंने खुद भी उत्तरकाशी में अनशन शुरू कर दिया। उनके संघर्ष में अनेक स्थानीय युवक और युवतियां खुलकर सामने आ गए। साध्वी मणिरत्ना, शिवकुमार, अमित आदि तो उनके सहचर बने ही, लोहारीनागपाल के पास स्थित गांव सूखी की प्रधान कुसुम रावत, अतर सिंह, धराली गांव की प्रधान ममता पंवार, पुराली के पास जसपुर गांव के पूर्व प्रधान शैलेंद्र सिंह सहित बड़ी संख्या में स्थानीय लोग उनके आंदोलन से जुड़े।

यहां ये बताना आवश्यक है कि ये सभी गांव लोहारीनागपाला एन.टी.पी.सी. परियोजना के द्वारा दिन-रात की जा रही विस्फोटों और उससे उत्पन्न भयानक खतरों को झेल झेल कर आजिज आ चुके हैं। रात-दिन विस्फोटकों का कहर बरसता है। और जब भीतर से डायनामाइट पहाड़ों का सीना छलनी करते हैं तो उन पहाड़ों के उपर बसे छोटे-छोटे गांव सिहर उठते हैं। दर्जनों घरों में दरारें पड़ चुकी हैं। इन गांवों के कुओं का पानी सूख गया है। प्राकृतिक जलस्रोत विस्फोटकों के ताबड़-तोड़ प्रहारों और कम्पन्न के कारण अपना मार्ग बदल चुके हैं। इसका दुष्परिणाम गांव पर सीधे तौर पर पड़ा है। अनेक परिवार अपना पुश्तैनी घर छोड़कर रिश्तेदारों के यहां रहने को बाध्य हैं तो शेष का जीवन अत्यंत कठिन और दुश्वार हो चला है।

धराली गांव अब तक अपने रसीले सेब के बागों के लिए जाना जाता रहा है। यहां नाशपाती, सेब के बाग रोजगार के लिहाज से स्थानीय आबादी की आवश्यकता पूर्ति के सबसे बड़े माध्यम हैं। लेकिन लोहारीनागपाल के विस्फोटकों की बयार और पहाड़ों के विध्वंस का दुष्प्रभाव इन बागों पर साफ दिखाई दे रहा है। जो बाग लाखों में उठते थे अब व्यापारी उन्ही बागों की कीमत हजारों में तौल रहे हैं। जाहिर है कि उत्पादन और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो गई है।

सूखी गांव की प्रधान कुसुम रावत ने बताया कि हमारा सारा दैनिक जीवन प्रभावित हो गया है। पिछले दिनों जब परियोजना का विरोध बढ़ गया तो प्रशासन और ठेकेदार से जुड़े लोग गांव वालों को धमकाने लगे। गांव वाले डर-सहम गए। हमने पूछा कि रोजगार की बाबत क्या फायदा मिला तो उनका उत्तर था-ऐसा रोजगार किस काम का? हमारे बच्चे कोई अफसर बन रहे हैं क्या? ये ठेकेदार 14-16 साल के बच्चों को ले जाकर उनसे मजदूरी करवा रहे हैं? इससे ज्यादा कमाई तो गंगोत्री यात्रा पर आने वाले तीर्थयात्रियों की जरूरतों को पूरी कर भी हो जाती है।

उरी गांव के दिनेश ने बताया कि पिछले दिनों काम बंद हो गया था। मैं तब परियोजना में मजदूरी पर लगा था। काम बंद हो गया तो मैंने गांव से जाना बंद कर दिया। एक दिन एक साथी आया और शाम को मुझे लोहारीनागपाल सरकारी बाबू से मिलने की कह गया। मैं पहुंचा तो ठेकेदार भी वहीं थे। कहने लगे, सुन, अब काम रात में होगा। आज से तू रोज आ जाया कर। फिर क्या था, मैं रात में काम करने लगा। सुरंगों के भीतर हमें ले जाते। वहां रात में विस्फोट से पहाड़ तोड़े जा रहे हैं और मलबा-पत्थर निकालने का काम हो रहा है। दिनेश ने बताया कि ठेकेदार किसी न्यायालय के स्टे की बात कह रहे थे और ये भी कह रहे थे कि क्या फरक पड़ता है, सरकार तो हमें काम जारी रखने को कह रही है।

झाला गांव के एक विद्यालय में पढ़ाने वाली सुश्री तारा ने कहा कि ये प्रशासन और ठेकेदारों ने झूठी बात फैलायी है कि स्थानीय लोग परियोजना के पक्ष में हैं। तारा स्वयं गंगोत्री के पास पुराली गांव की रहने वाली हैं। तारा के अनुसार, गंगोत्री और लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों में रहने वाली करीब 5000-7000 की आबादी में शायद 50-100 ही होंगे जो परियोजना से सीधे तौर पर फायदे के लिए जुड़े हैं। वही इसके समर्थक भी हैं बाकी तो सभी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। लेकिन यहां लोग बहुत ही सीधे हैं, पढ़े-लिखे कम हैं, मां-बहनें भी कम पढ़ी-लिखी हैं। इसलिए कोई सरकार के विरूध्द नहीं बोलता। लेकिन आप जाकर मिलिए, आपको पता लग जाएगा कि गांवों में गंगाजी के साथ हो रहे खिलवाड़ को लेकर लोगों में कितना दर्द है। लोग दु:खी हैं लेकिन क्या कर सकते हैं जब सरकार ही गंगाजी को मारने में लग गई है। यहां जिन लोगों ने गंगा पर बन रहे बांधों से पैसे कमाए हैं, सबकी दुर्गति हो रही है।

गंगनानी बाजार के शिवकुमार ने बताया कि लोहारीनागपाला में विस्फोट रूक-रूककर होते रहे हैं। न्यायालय के स्टे और केंद्र के आदेश के कारण दिन में तो काम रोक दिया गया लेकिन रात में गुपचुप काम जारी रखा गया है। फसलों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की बाबत शिवकुमार ने बताया कि पौधों पर फूल आते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में विस्फोटकों की विषैली गंध के कारण मुरझा जा रहे हैं। यहां के गांवों में राजमा की खेती, सेब के बाग सब खराब हो जा रहे हैं। खेतों में फसलें पैदा नहीं हो रही हैं।

साध्वी समर्पिता ने कहा कि शासन और प्रशासन बेईमान हो गया है। हम जब 29 अगस्त, 2009 को उत्तरकाशी में धरने पर बैठे तो प्रशासन हमारे विरोध में खड़ा गया। जिलाधिकारी मीनाक्षी सुंदरम् ने तो हद कर दी। खुद ही धमकाने लगे कि जाओ दिल्ली में जाकर अनशन करो, यहां नहीं बैठने देंगे। और तो और, लौटते-लौटते कुछ लोगों से कहलवा जाते थे कि परियोजना वाले तुम्हें गंगा में फेंक देंगे, मार डालेंगे और हम बचाने नहीं आएंगे। मैंने कहा कि गंगा जी के किनारे उपवास करने से हमें कोई नहीं रोक सकता। लेकिन उनका डराना-धमकाना जारी रहा।

प्रशासन की करतूतों के कारण लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों के लोगों पर मुकदमें दर मुकदमे लाद दिए गए हैं। उरी गांव के पूर्व प्रधान रमेश जो लोहारीनागपाला परियोजना के खिलाफ खुलकर सामने आए, उन्हें पुलिस ने विभिन्न गैर जमानती धाराओं में दो बार जेल भेजा। ऐसे युवकों की संख्या जिन पर प्रशासन लगातार मुकदमे दर मुकदमे ठोंक रहा है, दर्जन की संख्या पार कर चुकी है। आश्चर्यजनक रूप से लोहारीनागपाला के आस-पास के गांवों में युवकों पर आपराधिक मुकदमों की संख्या पिछले कुछ समय से बढ़ गई है। और ये उन गांव के युवाओं का हाल है जिन गांवों में सदियों तक कभी कोई अपराध घटित ही नहीं हुआ।

जनसमर्थन की बाबत साध्वी समर्पिता ने कहा कि आस-पास के गांवों से पचास-पचास, सौ-सौ की संख्या में लोग आगे आए और हमारे साथ धरने पर बैठे। ठेकेदार से जुड़े मुट्ठीभर लोगों को ही प्रशासन हमारे विरोध के लिए आगे कर देता था। उपजिलाधिकारी सेमवाल खुद ही ऐसे लोगों को समर्थन दे रहे थे।

साध्वी समर्पिता का मानना है कि प्रशासन यहां के लोगों की शांत-सुंदर जिंदगी में खलल डाल रहा है। जानबूझ कर लोग परेशान किए जा रहे हैं। मुकदमे इसीलिए ठोंके जा रहे हैं ताकि कोई यहां गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ आवाज न उठा सके।

साध्वी समर्पिता से जब हमने पूछा कि साधु-संत इन परियोजनाओं के खिलाफ पूरे तौर पर सामने क्यों नहीं आते तो उनका उत्तर बहुत ही मासूमियत भरा था। उनके अनुसार, हमारे संत-महात्मा तो ध्यान-साधना से ही फुरसत नहीं पा रहे हैं। उन्हें तो वास्तव में ये जानकारी ही नहीं है कि गंगा मैया के साथ क्या हो रहा है।

लेकिन हमारी बातचीत में शिक्षिका तारा ने जो कहा, सचमुच सोचने पर विवश करता है। तारा के अनुसार, ‘गंगा मां रोजगार के लिए नहीं उध्दार के लिए मिली हैं। हमें उस दिन अपार खुशी होगी कि जब ये बांध समाप्त कर दिए जाएंगे। हम तो चाहते हैं कि हमारे यहां तीर्थयात्री आएं, पयर्टक आएं, उससे हमारा विकास होगा। उनके लिए हम होटल चलाते थे गंगा जी के किनारे, अब गंगा जी का प्रवाह ही खत्म कर दिया तो यहां तट के पास कोई नहीं बैठता, देर तक ठहरने का तो सवाल ही नहीं है। यहां के लोगों का व्यवसाय खत्म हो गया है। झील दर झील बना रहे हैं गंगा जी में, लेकिन क्या इन सरकार वालों को पता नहीं है कि झील के पास दर्शन-पूजन के लिए कोई नहीं आता।’

Sunday, October 18, 2009

लोहारीनाग पाला में गंगा-प्रवाह पर जारी है एनटीपीसी का विध्वंस



अजीब विडंबना है! एक ओर केंद्र सरकार ने विगत् 20 फरवरी, 2009 को राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण गठित करने की राजाज्ञा जारी की, गंगा को राष्ट्रीय नदी होने का गौरव प्रदान किया, राजाज्ञा को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने के लिए गत् 5 अक्तूबर, 2009 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में प्राधिकरण की अति महत्वूपर्ण बैठक आयोजित की गई वहीं पर गंगोत्री और उत्तरकाशी के बीच निर्माणाधीन लोहारीनागपाला जल विद्युत परियोजना पर केंद्र सरकार और उच्च न्यायालय की रोक के बावजूद निर्माणकार्य जारी रहने से सरकार की मूल मंशा पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।

लोहारीनागपाला परियोजना उत्तराखण्ड में केंद्र सरकार के अन्तर्गत राष्ट्रीय तापीय विद्युत निगम यानी एनटीपीसी द्वारा निर्मित की जा रही उन परियोजनाओं में से एक है जिसे रोकने के लिए पिछले कुछ सालों से देश में लगातार विभिन्न संगठन आंदोलनरत रहे हैं। इस संदर्भ में जून, 2008 में कानपुर आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर गरूदास अग्रवाल के उत्तरकाशी और दिल्ली में किए गए आमरण अनशन ने निर्णायक भूमिका निभाई।
सुप्रसिध्द योग गुरू स्वामी रामदेव के नेतृत्व में संतों द्वारा गठित गंगा रक्षा मंच, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास के नेतृत्व में गठित धर्म रक्षा मंच, विश्व हिंदू परिषद आदि संगठनों ने भी गंगा की दुर्दशा पर आंदोलनात्मक रूख अपना लिया। संत-महात्मा और हिंदू नेताओं की सक्रियता के चलते तब जून, 2008 में उत्तराखण्ड सरकार ने मनेरी भाली द्वितीय चरण एवं पाला मनेरी परियोजना को निलंबित करने के आदेश जारी किए।
कालांतर में जनवरी, 2009 में प्रोफेसर अग्रवाल के दुबारा अनशन पर बैठने व हिंदू संतों व संगठनों के आंदोलित हो जाने के कारण केंद्र सरकार ने लोहारीनाग पाला परियोजना पर दिनांक 19 फरवरी, 2009 को काम रोकने का फैसला लिया। इसके विरूध्द कुछ लोगों ने उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की और काम जारी रखने के लिए उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप की गुहार लगाई। उच्च न्यायालय ने तब केंद्र सरकार द्वारा लोहारीनाग पाला परियोजना पर काम रोकने के निर्देश के अनुपालन पर रोक लगा दी। परिणामत: रोका गया कार्य दुबारा प्रारंभ हो गया।


20फरवरी, 2009 को केंद्र सरकार ने अप्रत्याशित कदम उठाते हुए राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण गठित करने की घोषणा भी कर दी। आगे चलकर उच्च न्यायालय ने दिनांक 18 मई, 2009 को पाला मनेरी और भैरों घाटी परियोजनाओं के संदर्भ में सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि नवगठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण सभी जल विद्युत परियोजनाओं की समीक्षा कर निर्णय करे कि इन पर काम आगे बढे अथवा नहीं।
न्यायालय ने अपने निर्णय में लोहारीनाग पाला परियोजना को भी शामिल कर लिया। निर्णय में उच्च न्यायालय ने सभी विवादों में निर्णायक कार्रवाई का अधिकार प्राधिकरण को देते हुए उसे निर्देशित किया वह शिघ्र विषेशज्ञ समिति का गठन कर इन परियोजनाओं के भविश्य के बारे में फैसला ले। न्यायालय ने इसी के साथ पूर्व में केंद्र सरकार द्वारा लोहारीनाग पाला परियोजना पर लगाई गई रोक के आदेश को भी बरकरार रखने का निर्णय सुना दिया। इस प्रकार लोहारीनाग पाला परियोजना पर निर्माण कार्य स्वत: ही रूक गया।

लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। एनटीपीसी के कुछ अधिकारियों और ठेकेदारों के मनमाने रवैये ने भारत सरकार को ही कटघरे में ला खड़ा किया है। केंद्र सरकार के आदेश और उच्च न्यायालय के निर्णय को धता बताते हुए गंगा के उद्गम स्थान गंगोत्री और उत्तरकाशी के बीच लोहारी नागपाला जल विद्युत परियोजना पर सुरंग निर्माण एवं पहाड़ों के विध्वंस का कार्य जारी है।
विगत 10 अक्टूबर को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद, शड्दर्शन साधु समाज तथा विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े वरिश्ठ संतों, महात्माओं एवं नेताओं ने जब राष्ट्रीय तापीय उर्जा निगम अर्थात एनटीपीसी द्वारा निर्मित की जा रही लोहारी नागपाला परियोजना स्थल का भौतिक निरीक्षण किया तो वे अवाक् रह गये। नेताओं के साथ उपस्थित पत्रकारों का दल भी भौंचक था।
हिमालय से उठ रही ठंडी हवा के झोकें समूचे वातावरण में रह-रह कर जहरीली, बारूदी गंध फैला रहे थे। उत्तरकाशी से आए संतों और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं समेत उपस्थित पत्रकारों ने इसे साफ महसूस किया। परियोजना स्थल पर खामोश खड़ी डम्पर गाड़ियां और जे.सी.वी. मशीनों की हालत भी सच्चाई बयां कर रही थी। गंगोत्री से आ रहे जलप्रवाह की दाहिनी ओर के पहाड़ के बीचों बीच बनाई गई सुरंग पर फाटक निर्मित कर उस पर बड़ा सा ताला जड़ दिया गया था। अंदर किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी। इस संवाददाता ने अंदर घुसने की कोशिश की तो उसे जबरन रोक दिया गया। एक अन्य स्थान पर भी केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवानों से फोटोग्राफी के सवाल को लेकर तीखी झड़प हो गई।

प्रथम दृष्टया स्पष्ट था कि उच्च न्यायालय के स्थगनादेश के बावजूद चुपचाप परियोजना का निर्माण कार्य आगे बढ़ाया जा रहा है। उपस्थित कर्मचारियों में से अनेक कर्मियों ने इस बात की पुश्टि की। पहचान उजागर न करने की शर्त पर एक कर्मचारी ने सब कुछ उगल दिया। उसने कहा – ‘यहां काम कभी रूका ही नहीं। हमेशा ऊपरी तौर पर ही काम रोकने का दिखावा किया गया। लेकिन सुरंग के भीतर तो काम दिन रात चलता रहा है और अभी भी चल रहा है। आप अगर सुरंग के भीतर जा सकते हैं तो जाकर देखिए अंदर किए गए ताजे निर्माण आपको दिख जाएंगे। विस्फाटकों से पहाड़ अभी भी तोड़े जा रहे हैं। ये जो गंध यहां फैली है, ये विस्फोटकों की ही गंध है।’ अपनी बात को और मजबूती देते हुए उस कार्मिक ने बताया कि भारत सरकार ने पहली बार काम फरवरी में रोका लेकिन उस समय भी कई प्रकार से काम जारी ही रहा। कोर्ट ने केंद्र के आदेश को रोक दिया तो यहां खूब शराब बंटी। लेकिन उसी कोर्ट ने फिर मई, 2009 में जब केंद्र के आदेश को बहाल कर दिया तो भी काम जारी रखा गया। इन पहाड़ों के गांवों में जाकर पूछिए तो असलियत मालूम चल जाएगी।

तो यह बानगी भर है कि मां गंगा के साथ किस प्रकार का छल एन.टी.पी.सी. के अधिकारी कर रहे हैं। संत-महात्मा परियोजना स्थल पर पहुंचते ही आग-बबूले हो उठे। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष एवं अयोध्या स्थित हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञानदास ने जब डम्परों-लोडरों और जे.सी.वी. मशीनों की कतारें और लगभग 400 मजदूरों-ठेकेदारों की भीड़ देखी तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने तुरंत परियोजना स्थल पर स्थित पर्यवेक्षकों से दनादन सवाल पूछ डाले। उन्होंने पूछा कि – ‘अगर उच्च न्यायालय ने स्थगनादेश दे रखा है तो ये मशीनें और मजदूर यहां क्या कर रहे हैं? इन डम्परों और मशीनों के टायर व लोडर बता रहे हैं कि ये कुछ ही घंटे पूर्व तक चालू हालत में रहे हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि स्थगनादेश के बावजूद कार्य जारी रहने के गंभीर परिणाम होंगे। उन्होंने वहां उपस्थित प्रशासनिक अधिकारियों से कहा कि वे राज्य सरकार को तत्काल उच्च न्यायालय के आदेश की खुली अवहेलना के बारे में जानकारी दें। उन्होंने मुख्यमंत्री से मांग की कि यद्यपि परियोजना केन्द्र की है किंतु न्यायपालिका के आदेश के स्थगनादेश के संदर्भ में उनका दायित्व बनता है कि वह आदेश का पालन सुनिश्चित करवाएं। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री तत्काल उच्च न्यायालय के स्थगनादेश का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें और यहां पर कार्यरत सभी मजदूरों और मशीनों को हटाएं।

महन्त ज्ञानदास यहीं पर नहीं रूके, उन्होंने उत्तराखण्ड सहित केन्द्र सरकार दोनों को लगे हाथ चेतावनी भी दे डाली कि अगर गंगा के प्रवाह के साथ खिलवाड़ बंद नहीं हुआ तो कुंभ के समय सरकार मुश्किल में पड़ जाएगी। अखाड़ा परिषद के महामंत्री श्री हरिगिरि, आचार्य सभा के महामंत्री स्वामी परमात्मानंद सरस्वती, शड्दर्षन साधु समाज के महंत दर्शनपुरी महाराज समेत अनेक वरिश्ठ संतों महात्माओं ने इसका समर्थन किया। उल्लेखनीय है कि कुंभ मेले के आयोजन में अखाड़ों की भूमिका अति महत्वपूर्ण रहती है। महंत ज्ञानदास ने कहा कि सरकार कुंभ के समय समस्त अखाड़ों को लिखित रूप से शाही स्नान के लिए आमंत्रित करती है। यदि गंगा का प्रवाह अविरल-निर्मल रूप में हमें नहीं मिलता है तो फिर हमें इस पर विचार करना पड़ेगा कि हम सरकार के साथ किस भाषा में बात करें।

इस अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राश्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल, आचार्य सभा के महामंत्री स्वामी परमात्मानंद गिरि, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, अर्थशास्त्री एवं जनता पार्टी के अध्यक्ष डा. सुब्रहमण्यम स्वामी, विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री श्री जीवेश्वर मिश्र, श्री राजेन्द्र सिंह पंकज एवं साध्वी समर्पिता समेत बड़ी संख्या में गंगा भक्त उपस्थित थे।

पत्रकारों से बातचीत में विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल ने गंगा की दुर्दशा पर गहरी पीड़ा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि संपूर्ण गंगोत्री पथ पर विनाश का ताण्डव चल रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार ने इस क्षेत्र को हत्यारों के हवाले कर दिया है जो इस पूरे क्षेत्र की आध्यात्मिक शांति को लील रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार तत्काल यहां काम बंद कराए अन्यथा उसे संतों के आक्रोश का सामना करना पड़ेगा। श्री सिंहल ने विशाल जलविद्युत परियोजनाओं पर भी सवाल खड़े किए और कहा कि सरकार उर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर काम करे। श्री सिंहल ने उच्च न्यायालय के स्थगनादेश के बावजूद लोहारीनागपाला में काम जारी रहने पर अपनी गंभीर आपत्ति प्रकट की। पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री एवं सुप्रसिध्द अर्थशास्त्री डॉ. सुब्रम्णयम स्वामी ने भी इसे न्यायालय की गंभीर अवमानना करार दिया और कहा कि वे शीघ्र इसके विरूद्ध न्यायालय में अवमानना याचिका दाखिल करेंगे।

लोहारीनागपाला से लौटकर उत्तरकाशी में सभी संतों और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने प्रधानमंत्री को संबोधित पत्र पर हस्ताक्षर किए। पत्र में प्रधानमंत्री को लोहारीनाग पाला में न्यायालय की अवमानना कर निर्माणकार्य जारी रखने की दशा से अवगत कराने के साथ मांग की गई कि लोहारीनागपाला समेत गंगा नदी पर निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित सभी जल विद्युत परियोजनाओं का तत्काल प्रभाव से सदा के लिए निरस्त किया जाए। भारत सरकार एवं पंडित मदन मोहन मालवीय के मध्य हुए ऐतिहासिक समझौते के अनुरूप गंगा के प्रवाह को अविरल और निर्मल रखने के लिए शीघ्र समुचित कदम उठाएं जाएं। सरकार को यह भी सुझाव दिया गया कि वह बड़े बांधों और विशालकाय जल विद्युत परियोजनाओं की स्थापना की बजाए विद्युत उत्पादन के लिए अन्य सस्ते विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करे।

रपट के साथ पूरक वक्तव्य-

लोहारीनाग पाला में हमारे प्रतिनिधि राकेश उपाध्याय के साथ विषेश बातचीत में अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास, विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. सुब्रम्णयम स्वामी ने जो विचार प्रस्तुत किए, उसके संपादित अंश-

गंगा नहीं रहेंगी तो कुंभ कैसा – महंत ज्ञान दास (अध्यक्ष-अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद)


अशोक जी सिंहल के नेतृत्व में पूरा अखाड़ा परिषद एवं संत समाज यहां आया हुआ है। डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे विषेशज्ञ भी यहां उपस्थित हैं। यहां कर्मचारी लगभग 400 रह रहे हैं। गंगा की जो दुर्दशा हो रही है, वह अकल्पनीय है। गंगा के कारण हमारी संस्कृति है, इसी गंगा के कारण हमारी भारतीय परंपराएं जीवित रही हैं, इसी से हम आज तक प्राण वायु पाते आए हैं, आज उसी गंगा को लगभग मृतप्राय कर दिया गया है।

केन्द्र सरकार ने तो संतों को कहा था कि लोहारीनागपाला में काम रोक दिया गया है लेकिन यहां ये 400 मजदूर क्या कर रहे हैं? उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री से और केंद्र सरकार से हमारी यह प्रार्थना है कि इन्हें यहां से तत्काल हटाया जाए। यहां काम पर लगे लोगों को कहीं और काम दिया जाए। यहां के स्थानीय लोगों को कोई परेशानी न हो, इस बात का विषेश ध्यान रखा जाए। उनकी क्षतिपूर्ति का समुचित प्रबंध किया जाए।

हमें जानकारी मिली है और जैसा कि हम देख भी रहे हैं कि यहां काम अभी भी चल रहा है। मैं सरकार से कहना चाहता हूं कि चोरों जैसा व्यवहार न करे। हम आज आए हैं तो दिखाने के लिए सारा काम रोक दिया है लेकिन जैसा कि लोग बता रहे हैं कि हमारे जाते ही फिर से काम षुरू कर दिया जाएगा। तो हम संत-महात्मा स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम अब किसी धोखे में रहने वाले नहीं हैं। काम जारी रहा तो गंभीर परिणाम सामने आएंगे।

गंगा हमारी मां हैं और हम सरकार से विनम्र प्रार्थना करते हैं कि गंगा को उसके नैसर्गिक रूप में जीवित रहने दिया जाए ताकि हम और हमारी संस्कृति भी जीवित रह सके।

सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि यदि गंगा जी को मृत नदी में बदल दिया गया तो हमारे तीर्थों और हमारे पर्वों पर इसका विपरीत असर पड़ेगा। यदि गंगा नहीं रही तो कुंभ आयोजन निरर्थक हो जाएंगे। इसका हमारे कुंभ पर, शाही स्नान पर पूरा दुश्प्रभाव पड़ेगा। यदि गंगा ही नहीं रहेंगी तो कुंभ कैसा। देश में केवल अखाड़े ही हैं जिन्हें सरकार की ओर से कुंभ के समय विधिवत् और लिखित रूप से निमंत्रण जाता है कि आप कुंभ में पधारें और शाही स्नान करें। अब जब हरिद्वार में गंगा का अविरल और नैसर्गिक प्रवाह ही नहीं आएगा तो हम संतों-महात्माओं को सोचना ही पड़ेगा कि हम सरकार से किस भाशा में बात करें।

हमारी सरकार से इस संदर्भ में मांग है कि वह गंगा का अविच्छिन्न, अविरल, निर्मल, कलकल प्रवाह सुनिश्चित करे और लाखों वर्शों से जो धारा बहती आई है उस धारा को सदा सर्वदा बनाए रखे। उसमें परिवर्तन की गलती कदापि न करे और जो गलती हुई है, उसे समय रहते दुरूस्त कर ले।


हम यह भी कहना चाहते हैं कि यदि हमारी मांगें नहीं मानी गई तो हम आंदोलन के लिए बाध्य होंगे। कुंभ मेला स्वयं में एक विराट आंदोलन है। हमारी संस्कृति और हमारे धर्म पर जब-जब प्रहार हुए हैं, संतों ने समाज के साथ मिलकर कुंभ मेलों में भविश्य पथ का निर्धारण किया है। इस कुंभ में भी हम गंगा, गौ एवं श्रीराम जन्म भूमि की गौरव गरिमा की रक्षा के लिए निर्णायक कार्रवाई करेंगे।

उच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना हुई है – डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी (पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं अध्यक्ष, जनता पार्टी)

गंगा के प्रवाह को नैसर्गिक रखे सरकार

उच्च न्यायालय के स्थगनादेश के बावजूद यहां काम चल रहा है। यह न्यायालय की खुली अवमानना है। हम इसके विरूध्द न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करेंगे। जहां तक सवाल विद्युत उत्पादन का है इसके बहुत सारे विकल्प हैं। लेकिन लगता है सरकार उन विकल्पों पर काम नहीं करना चाहती। संभव है कि उसमें लोगों को कमीशन आदि न मिले या कम मिले। केन्द्र सरकार को निश्चित रूप से विकल्प ढूंढना चाहिए। रामसेतु आंदोलन के समय भी सरकार यही सब कर रही थी। रोजगार मिलेगा, व्यापार बढ़ेगा, आर्थिक उन्नति होगी, आदि भ्रामक और मोहक नारे सरकार की ओर से उछाले गए। उस समय भी हमने विकल्प खोजने की बात की। हमने कहा कि विकल्प देश के लिए और ज्यादा लाभदायक है। हमने इसे तर्कपूर्ण ढंग से सिध्द भी किया। तब सरकार की बोलती बंद हो गई।

सरकार यहां पर भी बिजली के सवाल को लेकर जनता को गुमराह कर रही है। गंगा के प्रवाह को बिना रोके छोटी परियोजनाएं बनाकर अथवा गैस टरबाइन, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं आणविक ऊर्जा से जुड़ी परियोजनाओं की स्थापना कर हम कहीं ज्यादा बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। सरकार को ठीक समझना चाहिए कि गंगा मात्र नदी नहीं है। यह भारत की सभ्यता, संस्कृति, आध्यात्मिक परंपरा की प्राणवायु है। इसे ध्यान में रखते हुए गंगा को उसके नैसर्गिक रूप में बहने देना चाहिए।

मां गंगा के साथ गंगोत्री की हत्या का षडयंत्र – श्री अशोक सिंहल (अध्यक्ष, विश्व हिंदू परिषद)

‘गंगा की हत्या हो रही है, खुले आम हत्या हो रही है। कुछ लोग रोजगार का सवाल खड़ा कर रहे हैं। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या अपनी मां की हत्या कर रोजगार बढ़ाया जाता है? मैं देख रहा हूं कि किस निर्ममता से गंगा तट के पहाड़ों का विध्वंस हो रहा है। इन पहाड़ों के बारे में मान्यता है कि ये भगवान शिव के अंग हैं, भगवान के जटाजूट हैं। इन्होंने ही भागीरथी को सर्वप्रथम धरती पर धारण किया। आज इन्हें ही तोड़ा जा रहा है। क्या भारत इसे बर्दाष्त करता रहेगा? गंगोत्री जाने के संपूर्ण मार्ग पर हम विनाश का तांडव देख रहे हैं। कोई गंगोत्री जाए ही न, इस प्रकार की परिस्थिति बनाई जा रही है। गंगोत्री मार्ग का सारा नैसर्गिक सौंदर्य समाप्त किया जा रहा है। गंगा के कल-कल प्रवाह को देखकर प्राप्त होने वाले आनंद से संपूर्ण समाज को वंचित कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि हत्यारे यहां आ गए हैं और चारों ओर विध्वंस लीला चल रही है। कोई पूछने वाला नहीं है कि ये सब किसके आदेश से किया जा रहा है? कुछ लोग उच्च न्यायालय गये और निर्माणकार्य रोकने का आदेश भी ले आए। फिर भी निर्माणकार्य जारी है और कोई पूछ तक नहीं रहा है।

गंगोत्री पथ का यह समूचा आध्यात्मिक क्षेत्र बारूदी विस्फोटकों की गंध से भर गया है। क्या ये सब सरकार और उसका पर्यावरण विभाग नहीं देख पा रहा है? न्यायालय की खुली अवमानना हो रही है। सरकार जब खुद डकैती डालने लग जाए, चोरी पर आमादा हो जाए तो फिर क्या किया जा सकता है। मैं केन्द्र सरकार पर आरोप लगाता हूं कि वह स्वयं डकैतों और चोरों जैसा अपराध कर रही है। इससे बड़ी गिरावट और क्या आ सकती है? मेरी मांग है कि तत्काल यहां काम बंद किया जाए। लाखों वर्शों से गंगा संपूर्ण समाज का पोशण करती आ रही है। कुछ करोड़ रुपये के लिए इसकी बलि नहीं दी जा सकती। कहा जा रहा है कि 500 करोड़ खर्च हो गए हैं, अब क्या हो सकता है? मेरा पूछना है कि गंगा एक्षन प्लान का 960 करोड़ रुपया सरकार ने कहां बहा दिया? क्यों गंगा आज भी प्रदूशित है?

मैं कहता हूं कि सवाल 500 करोड़ रुपये या हजार करोड़ रुपये का नहीं है। सवाल सरकार की नीति और नीयत का है। वर्तमान सरकार की न तो नीति ठीक है और न ही नीयत। इसलिए इनकी बनाई कोई योजना सफल नहीं हो रही है। विद्युत उत्पादन के बहुत से सस्ते विकल्प दुनिया में आज सफलतापूर्वक चल रहे हैं। एक विषेशज्ञ मुझसे मिले थे जिन्होंने गैस आधारित विद्युत उत्पादन के प्रयोग को सफलतापूर्वक स्थापित किया है। साढ़े तीन साल के अल्प समय में ही 1100 मेगावाट की दो-दो परियोजनाएं वे स्थापित कर सकने में समर्थ हैं। ऐसे प्रयोगधर्मी, उद्यमशील, पर्यावरणहितैशी लोग और विकल्प बहुत हैं लेकिन सरकार उन पर ध्यान क्यों नहीं देती है? मैं सरकार और उसके नीति निर्धारकों से निवेदन करता हूं कि वे विद्युत उत्पादन के विकल्पों को परखें और गंगा के प्रवाह को अविरल-निर्मल बना रहने दें।

मेरी सरकार से मांग है कि गंगा पर चल रही लोहारी नागपाला परियोजना समेत सभी परियोजनाएं हमेशा के लिए रद्द की जाएं। यहां काम पर जो लोग लगे हैं उनकी क्षति पूर्ति कर उनका पुर्नस्थापन किया जाए। गंगोत्री जाने वाली सड़क को सुंदर तरीके से निर्मित किया जाए ताकि उस पर सहजता से आवागमन हो सके। गंगोत्री मार्ग पर स्थित आध्यात्मिक महत्व के रमणीक स्थानों का समुचित विकास किया जाए ताकि यहां अधिक से अधिक लोग सुविधापूर्वक तीर्थाटन और पर्यटन का आनंद उठा सके। जो पहाड़ तोड़े गए हैं उनको फिर से हरा-भरा बनाया जाए।