Thursday, September 17, 2009

जसवंत सिंह! क्या पाकिस्तान सरदार पटेल की करनी है?

जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में विभाजन और जिन्ना की निर्दोष भूमिका पर बहुत गंभीर चर्चा की है। गहरा विश्लेषण है उनकी पुस्तक में, जो जो उद्धरण जिन्ना के खिलाफ जाते हैं उन उद्धरणों को भी उन्होंने कुशलतापूर्वक जिन्ना और पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा कर दिया है। लेकिन इनके सबके बीच उनकी एक या दो-दो पंक्ति की टिप्पणियां, उनके सुदीर्घ विश्लेषण के संक्षिप्त निष्कर्ष बहुत ही सतही और पूर्वाग्रही मानसिकता से प्रेरित प्रतीत होते हैं। आइए कुछ टिप्पणियों पर गौर फरमाएं।

पुस्तक के हिंदी संस्करण के पृष्ठ 465 पर जसवंत सिंह अपनी पुस्तक का निष्कर्ष दो पंक्तियों में लिखते हैं- ‘निष्कर्ष साफ है कि आखिर में पाकिस्तान जिन्ना को दे दिया गया। जिन्ना ने जितना उसे जीता नहीं उससे ज्यादा तो कांग्रेस के नेताओं ने, नेहरू और पटेल ने इसे दे दिया और इसमें अंग्रेजों ने हमेशा मदद करने वाली एक कुशल दाई का काम किया।’
‘जिन्ना ने जोर देकर कहा कि इलाज केवल अलग होने में है और नेहरू, पटेल और कांग्रेस के अन्य लोग अंतत: इससे सहमत हो गए, पाकिस्तान बन गया।’ (पृष्ठ 445)
‘भारत की एकता की खिलाफत करने वाले अनेक कारक थे। बंटवारा तो होना ही था, परंतु साथ ही उन दिनों एक जबर्दस्त थकावट ने अंग्रेजों को, नेहरू को, जिन्ना को, यहां तक कि पटेल समेत सभी को जकड़ लिया था। गांधीजी ने अकेले ही, इस बंटवारे को विखंडन का नाम दिया, केवल वह ही थे जिन्होंने शुरू से इसका विरोध जारी रखा। लेकिन अब तो वे एक अकेले ही जिहादी बचे थे, शायद इसीलिए अब उन्होंने भी अपने हाथ-पैर समेट लिए।’ (पृष्ठ-457)

पृष्ठ 383 पर जसवंत सिंह सरदार पटेल के एक पत्र को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- ‘पटेल ने भले ही सीधे तौर पर नहीं किंतु वास्तव में पहली बार पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था।…।8 मार्च, 1947 को कांग्रेस कार्यसमिति ने जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के समर्थन से एक प्रस्ताव पारित किया…इस प्रस्ताव ने जिन्ना के दो राष्ट्र वाले सिद्धांत को अंतत: मंजूरी दे दी।’

जसवंत सिंह लार्ड माउंटबेटन के बहाने सरदार पटेल पर पृष्ठ 384 पर टिप्पणी करते हैं-’माउंटबेटन तब तक वायसरॉय का पदभार ग्रहण कर चुके थे। उन्होंने तुरंत पटेल को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। एक विजेता की तरह उनका यह आकलन था कि पटेल ने पंजाब के विभाजन को मंजूरी देकर भारत के विभाजन के सिद्धांत को भी मान्यता दे दी। जवाहर लाल नेहरू का भी विभाजन विरोध तब तक काफी हद तक हल्का पड़ चुका था। 20 मार्च, 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही अंदर इतने वर्षों तक विभाजन के मुखर विरोधी जवाहर लाल नेहरू मुल्क के बंटवारे के एक प्रतिबद्ध समर्थक बन गए।’
जसवंत सिंह का मानना है कि 1947 में नेहरू और पटेल दोनों देश की हकीकत से अनजान थे । पृष्ठ संख्या 464 पर वे लिखते हैं-
”दु:ख से कहना पड़ता है कि कांग्रेस के नेतृत्व ने हकीकत को, असलियत को कभी पूरा नहीं पहचाना, मंजूर नहीं किया। 15 अगस्त 1947 से दो हफ्ते पहले माउंटेबटन ने नेहरू और पटेल दोनों से पूछा था: ‘एक पखवाड़े के भीतर ही भारत की पूरी सत्ता और ज़िम्मेदारी आपके पास होगी। ‘क्या आप लोगों ने महसूस किया है कि तब आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा?” दोनों नेताओं ने तब जवाब दिया था कि हमें ‘मालूम है, और वह भी कि हमें क्या करना है।’ लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था? लगता है नहीं।’ (पृष्ठ-464)

इसी संदर्भ में अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए कांग्रेस द्वारा छेड़े जाने वाले तमाम आंदोलनों और नेताओं के जेलगमन पर जसंवत सिंह की टिप्पणी भी अत्यंत उपहासास्पद प्रतीत होती है। वे लिखते हैं कि – ”बार-बार के जेल-गमन ने कांग्रेसियों में, जिनमें अधिकांश हिन्दू थे, एक स्थाई षहादत की आत्मसंतुष्टि का बोध भर दिया था। इसलिए उन्होंने पहले ही मान लिया था कि जेल-गमन ही अपने आप में पर्याप्त तपस्या व त्याग है, जिसे एक सराहनीय कार्य के रूप में निश्चित तौर पर दैवीय मान्यता मिलेगी……। लेकिन जेल में बार-बार रहने से कांग्रेस नेता…।वस्तुत: एक प्रकार से जिम्मेदारी टाल रहे थे। 1942-45 के बीच कांग्रेस नेतृत्व के जेल जीवन की निष्क्रियता की तुलना में जिन्ना ने अपने नेतृत्व को और मजबूत किया।” (पृष्‍ठ-460)

इस प्रकार जिन्ना प्रेम की रौ में जसवंत सिंह सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन और आजादी के संघर्ष के तमाम बलिदानियों का मजाक उड़ाने से नहीं हिचकते हैं। माना कि जेल जीवन एक निष्क्रिय जीवन है किंतु देश की जनता ने जिस महान् उद्देश्‍य के लिए इस संघर्ष पथ का वरण किया, क्या वह उद्देश्‍य गलत था? क्या वे जेल जाने के शौकीन थे? आखिर जसवंत क्या सिध्द करना चाहते हैं?

हिंदी संस्करण के पृष्ठ क्रमांक 422 पर जसवंत सिंह सरदार पटेल को एक बार फिर से आलोचना का अनावश्यक पात्र बना देते हैं। वे लिखते हैं-’आखिर, मुहम्मद अली जिन्ना दिल्ली से कराची को 7 अगस्त, 1947 को रवाना हो गए। इसके बाद लौटकर वह कभी भारत नहीं आए। अगले ही दिन, पटेल ने दिल्ली में, संविधान सभा में तब कहा था, ‘ भारत के शरीर से जहर निकाल दिया गया है। अब हम एक हैं और अविभाज्य हैं, क्योंकि आप समुद्र को या नदी के जल को विभाजित नहीं कर सकते और जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उनकी जड़ें यहां हैं, उनके पवित्र स्थल यहां हैं। मैं नहीं जानता कि वे पाकिस्तान में क्या करेंगे। वह वक्त दूर नहीं जब वे वापस लौटें।’

अब सरदार पटेल के इस वक्तव्य पर जसवंत सिंह को कड़ी आपत्ति है। जसवंत सिंह के अनुसार – ‘इस प्रकार के वक्तव्यों ने पाकिस्तान के सामने चुनौती खड़ी कर दी कि वह पाकिस्तान को बरकरार रख कर दिखाए। पाकिस्तान के रूप में बने रहना ही पाकिस्तान का मकसद बन गया। प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इसी प्रकार एक टिप्पणी की कि हमें देखना है कि वे कब तक अलग रहते हैं। ऐसी टिप्पणियों पर पाकिस्तान के नागरिक काफी सतर्कता से ध्यान देते हैं।’ (पृष्ठ-422)

ठीक कहा जसवंत जी ने। विभाजन का समर्थन भी गलत और विरोध भी गलत! विभाजन के खिलाफ यदि पटेल और नेहरू ने वक्तव्य दिया तो उसे भी जसवंत सिंह ने चतुराई से इन्हीं नेताओं के खिलाफ खड़ा कर दिया। जसवंत सिंह के शब्दों में, विभाजन स्वीकार करके तो इन नेताओं ने गुनाह किया ही था।

पृष्ठ 413 पर जसवंत सिंह विभाजन के एक प्रमुख कारण का जिक्र करते हुए उसमें भी मुस्लिम लीग को निर्दोष साबित करने की कोशिश करते हैं- ‘यहां एक कारण और है जिस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है जिसकी वजह से शायद कांग्रेस ने विभाजन को मंजूरी दी थी। यह शिकायत थी कि अंतरिम सरकार ने न तो समरसता के साथ काम किया और न ही एक मंत्रिमंडल की तरह। यद्यपि नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री थे लेकिन वे खुद को वास्तविक सरकार के प्रधानमंत्री की तरह प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसा व्यवहार वित्त मंत्री लियाकत अली खां के नकारात्मक काम से और अधिक खराब हो गया क्योंकि उन्होंने जानबूझ कर योजनाओं को विफल कर दिया। अंतरिम मंत्रिमंडल इसलिए भी असफल रहा क्योंकि सबसे पहले नेहरू चाहते थे कि उन्हें एक अधिकृत मंत्रिमंडल का वास्तविक प्रधानमंत्री समझा जाए। यह एक ऐसा दावा था जिसका कि मुस्लिम लीग ने घोर विरोध किया।’
अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस नेताओं को क्या अनुभव आए, इस पर ही यदि कोई शोध करना चाहे तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। सुविज्ञ पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि अंतरिम सरकार में शामिल मुस्लिम लीग न सिर्फ पाकिस्तान प्राप्त करने वरन् हिन्दुस्तान को कई टुकड़ों में विभाजित करने की योजना पर गहराई से काम कर रही थी। इसके लिए लीग के मंत्री सरकारी मशीनरी की पूरी सहायता ले रहे थे। जसवंत सिंह जी ने अंतरिम सरकार के अनुभवों को जिस तरह से कुछ पन्नों में और वह भी नेहरू-पटेल के खिलाफ अपने तर्कों को मजबूती देने के लिए इस्तेमाल किया है, इसे किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अब जरा देखिए कि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की विफलता के लिए दोष किस प्रकार पंडित मदन मोहन मालवीय और अन्य नेताओं पर मढ़कर जसवंत सिंह मुस्लिम लीग को विभाजन संबंधी सारे आरोपों से बरी करते हैं।

पृष्ठ 184 पर आगा खां को उद्धृत करते हुए जसवंत लिखते हैं- ‘महात्मा गांधी ने हमारे होने के महत्व को अच्छी तरह से पहचान लिया था। शायद वे हमारे विचारों से सहमति की राह पर भी थे मगर पंडित मदन मोहन मालवीय और हिंदू महासभा ने हमारे खिलाफ काफी दबाव डाला-उन्होंने निरे अव्यावहारिक राजनीतिक सिध्दांतों और नीतियों के आधार पर ऐसे तर्क रखे जो भारत की वास्तविकताओं से एकदम असंगत थे और 1947 के भारत विभाजन ने इसे साबित भी कर दिया।’

पुन: इसी मुद्दे पर मुहम्मद शफी की बेटी शाहनवाज हुसैन के उद्धरण को रखते हुए जसवंत लिखते हैं-’एक समय ऐसा आया जब मुसलमान और उदारवादी आपस में सहमत भी हो गए थे और एक समझौता वास्तव में संभव लगने वाला था।…यहां तक कि खुशी में शफी ने मिठाई और शराब मंगवा ली थी और मुसलमान प्रतिनिधि इस मौके पर खुशी मनाने के लिए होटल रिट्ज में आगा खां के कमरे में इकट्ठा भी हो गए लेकिन यह पार्टी शुरू भी न हो पाई कि सिखों और हिंदू महासभा की सहमति लेने गए गांधी खाली हाथ ही लौटे। उन्होंने वापस आकर कहा-मैं माफी चाहता हूं कि मैं समझौते के अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सका। सिख समुदाय और हिंदू महासभा के लोग प्रस्ताव पर तैयार नहीं है।’

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस की असफलता और इसमें गांधीजी की भूमिका के बारे में टिप्पणी करते हुए जसवंत अपनी हिंदी पुस्तक के पृष्ठ 185 पर लिखते हैं-’गांधी सांप्रदायिक अपील की शक्ति को जानते थे और वे यह भी जानते थे कि अगर वे सार्वजनिक रूप से हिंदू मांगों के विरूद्ध स्वयं को प्रतिबद्ध करते हैं तो कांग्रेस को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है।’

इसी प्रकरण में मुस्लिम लीग और जिन्ना का बचाव करते हुए जसवंत सिंह पृष्ठ 194 पर लिखते हैं-’वास्तव में हिंदू-मुस्लिम एकता में लगातार असफलता मिलना ही जिन्ना की सबसे गहरी निराशा थी। बाद के एक भाषण में जिन्ना ने सन् 1938 में अलीगढ़ एंग्लो-मुस्लिम कॉलेज के छात्रों के सम्मुख यह ख्याल रखे भी थे-’गोलमेज सम्मेलनों की बैठकों से मुझे जीवन का सबसे बड़ा धक्का लगा। मैंने खतरे के सही चेहरे को देखा। हिंदुओं की भावनाओं, उनके दिमाग और उनके रवैये से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एकता की अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। इस पर मैंने अपने देश के प्रति काफी निराशा महसूस की। यह स्थिति सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण थी। मुसलमान तब एक ‘नो मेंस लैंड’ में रहने वाले लोगों के समान हो गए थे, वे या तो ब्रिटिश सरकार के गुलाम होते या कांग्रेस खेमे के अनुयायी। जब भी मुसलमानों को संगठित करने के प्रयास किए गए तो एक ओर चापलूसों और गुलामों ने व दूसरी ओर कांग्रेसी खेमे के गद्दारों ने इन प्रयासों को कुंठित किया। मैंने तब महसूस करना शुरू किया कि न तो मैं भारत की मदद कर सकता हूं और न ही हिंदुओं की मानसिकता को बदल सकता हूं।…बहुत निराशा और दु:ख के बाद मैंने लंदन में बसने का फैसला लिया।’

इस पूरे प्रकरण में जसवंत सिंह ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की असफलता के संदर्भ में किसी कांग्रेस नेता या किसी अन्य हिंदू पक्ष का कोई वक्तव्य उद्धृत करना उचित नहीं समझा। आखिर इस प्रकार से मुस्लिम लीग के पक्ष को और जिन्ना के वक्तव्य को विस्तार से उद्धृत करने का क्या मतलब निकाला जाए। अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि जो बात और जो तर्क पाकिस्तान इतिहासकार, मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस पक्ष को और हिन्दू नेताओं को दोषी ठहराने के लिए बार-बार दोहराते हैं, उन्हें ही जसवंत सिंह जी ने एक नये आवरण में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ऐसा कर क्या जसवंत सिंह स्वयं को मुस्लिम लीग का प्रवक्ता नहीं साबित कर रहे हैं?

जसवंत सिंह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की चिंताजनक स्थिति पर भी बेहद चिंतित स्वर में कहते हैं कि उन्हें आज भी उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। जसवंत सिंह का मानना है कि बंटवारे के समय उठे सवाल अधूरे हैं और उनका उत्तर अभी तलाशा जाना शेष है-
‘आज भारत में सिद्धांत रूप में हम सब समान नागरिक हैं, यह हमारे गणराज्य की नींव का पहला पत्थर है। परंतु क्या सिद्धांत को हम यथार्थ में बदल पाए हैं? इस संविधान को पारित करते ही हमने विशेष अधिकार देने शुरू कर दिए। लेकिन चुने हुए रूप में ही। इसलिए स्वाभाविक है कि भारत के मुसलमान नागरिक भी इसमें हिस्सा मांगें। इस मांग का प्रत्युत्तर हमेशा आहत करने वाले स्वर में ही मिलता है कि अभी भी विशेष अधिकार? पाकिस्तान के बाद भी? क्यों? और इसी वजह से बंटवारे की कभी खत्म न होने वाली कार्यसूची का यह प्रश्न बार-बार उठता है।…बंटवारे ने इन प्रश्नों को और अधिक जटिल बना दिया है…इनका समाधान कैसे होगा?’ (पृष्ठ 439)

पुस्तक में अनेक स्थानों पर जसवंत सिंह ने भारत की प्राचीन एकता और उसे बनाए रखने की प्रबल आवश्यकता को जिन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है वास्तव में वह प्रशंसा योग्य है। नि:संदेह जसवंत सिंह की भारत भक्ति पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इन सबके बीच आजादी के आंदोलन में भारत की एकता के सबसे बड़े शत्रु का बचाव कर उन्होंने खुद ही अपनी आलोचना को आमंत्रण दिया। भारत विभाजन पर उनकी एक टिप्पणी सचमुच अंदर तक हमें प्रभावित करने में सक्षम है और ऐसी टिप्पणियां पुस्तक में यत्र-तत्र पढ़ने को मिलती भी हैं -
‘यह हानि केवल व्यक्तिगत नहीं थी और न ही केवल पंजाब या बंगाल में थी। भौगोलिक और आर्थिक रूप से स्थापित हस्तियां, प्राचीन सांस्कृतिक एकता जिन्हें अनुपम रूप से एकात्म होने में हजारों-हजार साल लगे, वह छिन्न-भिन्न करके बिखेर दी गयीं। एक प्राचीन देश का, उसके लोगों का, उनकी संस्कृति का, उनकी सभ्यता का यह ऐतिहासिक सम्मिश्रण जान-बूझकर कई टुकड़ों में खंड-खंड कर दिया गया।’
बहुत सारे गूढ़ सवाल भी जसवंत सिंह ने उठाए हैं। मसलन, आजादी पहले मिलती और बंटवारा बाद में होता जैसा कि गांधी बार बार कह रहे थे तो स्थिति शायद दूसरी होती। अचानक विभाजन के कारण और वह भी किसी सर्जरी के समान, इससे जो मार-काट उस समय मची, हिंदू-मुस्लिम एकता हमेशा के लिए दांव पर लग गई, हिंदू-मुसलमान के नाम पर दो देश अस्तित्व में आ गए, और दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ा कि अनेक मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ को दखलअंदाजी करनी पड़ गई। क्या इससे बचने का दूसरा रास्ता न था?

जसवंत सिंह का यह कहना भी वाजिब ही लगता है कि ”इस बंटवारे से क्या समाधान हो गया जबकि अल्पसंख्यकवाद आज भी और भयानक रूप लेकर हमारे सामने खड़ा हो गया है। इससे हिंदू-मुस्लिम समस्या कहां सुलझी। समस्या तो आगे के लिए टरका दी गई।”

पुस्तक में अनेक स्थानों पर जसवंत जी की भावना सकारात्मक और अखण्ड भारत के समर्थन में खड़ी दिखाई देती है। चूंकि पुस्तक लेखन का केंद्र जिन्ना हैं इसलिए लेखक को सहज रूप में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और इतिहास की सच्चाई को दरकिनार कर जिन्ना के कर्मों को जायज ठहराना ही मानों उनका लेखकीय दायित्व बन गया है जिसे उन्होंने भरपूर निभाया भी। जैसा कि पुस्तक के अंतिम अध्याय में वे निष्कर्ष रूप में लिखते हैं- ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत से पाकिस्तान के कायदे आजम तक जिन्ना की जीवन यात्रा वीरगाथात्मक यात्रा है।…यह जिन्ना का वृत्तांत है-एक व्यक्ति और उसके नायकोचित प्रयासों का। और साथ ही दूसरों के प्रयासों का भी।’ तो इसे साबित करने के लिए वे किसी भी हद को पार करने से नहीं चूके हैं।(पृष्ठ 472-473)

देखिए जसवंत सिंह किस बारीकी से जिन्ना को विभाजन के दोष से मुक्त करते हैं। अंतिम अध्याय में वे लिखते हैं- ‘इस बात को सोचते हुए पीड़ा होती है कि हम इस सौदे (देश विभाजन और सत्ता हस्तांतरण) के लिए भी राजी हो गए और गलत तरीके से हमने इसे सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण की उपाधि भी दे दी। भारत, इस ‘हस्तांतरण’ की कीमत आज भी अदा कर रहा है। निश्चित रूप से यह तो मुहम्मद अली जिन्ना के चुनिंदा मकसदों में कहीं नहीं था, क्योंकि उनकी यात्रा पाकिस्तान का कायदे-आजम बनने की थी। यह तो हमारी खुद की करनी है।’ (पृष्ठ 471)

उपरोक्त दोनों उद्धरण ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि जसवंत सिंह की पुस्तक के पीछे की मूल भाव-भावना क्या है?
जारी …………..
-राकेश उपाध्याय


No comments:

Post a Comment