Wednesday, September 9, 2009

जसवंत सिंह! सरदार पटेल पर उंगली क्यों?

जसवंत सिंह की पुस्तक के अध्ययन से जो निष्‍कर्ष निकलता है उससे साफ है कि पुस्तक जिन्ना की अतिरेकी प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह भारतीय राजनीति के स्थापित नेताओं के खण्डन का बौद्धिक प्रयास है।



पुस्तक में लेखक खुद ही अन्तर्द्वन्द्वों के घेरे में एक नहीं अनेक स्थानों पर घिरे नजर आते हैं। वह जो सिद्ध करना चाहते हैं उसके माकूल उद्धरण नहीं मिलने पर वह जिन्ना के खिलाफ भी खड़े होते हैं। लेकिन इसके बावजूद पूर्वाग्रह इतना प्रबल है कि जसवंत सिंह के अनुसार जिन्ना विभाजन का दोषी नहीं था। यह कहने में उनकी हिचकिचाहट बार-बार नजर आती है।


सवाल उठता है कि विभाजन गलत था तो जिन्ना सही कैसे था? माना कि गांधी-नेहरू-पटेल ने विभाजन स्वीकार किया लेकिन ये मांग किसकी थी और यह मांग करने वाला जिन्ना विभाजन के आरोप से बरी कैसे किया जा सकता है?


इतिहास के झरोखे से विविध उद्धरणों को उठाकर जसवंत ने जिन्ना को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया लेकिन इतिहास क्या सचमुच जिन्ना को निर्दोष मानता है। यहां सवाल यह भी उठता है कि 1857 की क्रांति के बाद क्या जिन्ना पहले मुसलमान नेता थे जिनका शुरूआती जीवन कथित तौर पर राष्‍ट्रवादी था और कालांतर में वह घोर सांप्रदायिक व्यक्तित्व में परिवर्तित हो गया।

सर सैयद अहमद खां की जीवनी पढ़ें तो क्या वह सार्वजनिक जीवन की शुरूआत में राष्‍ट्रवाद की वकालत नहीं करते थे? क्या उन्होंने ये नहीं कहा था कि हिंदू और मुसलमान भारत मां की दो आंखें हैं। लेकिन बाद में ऐसा क्या हुआ कि सर सैयद हिंदुओं को सरेआम कोसने लगे जबकि उन्हीं हिंदुओं ने उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय की स्थापना में भरपूर सहयोग दिया?


हम चाहे सुहरावर्दी की बात करें या लियाकत अली खां की, रहमत अली की बात करें या अल्लामा इकबाल की, आजादी के आंदोलन में जिन मुस्लिम नेताओं पर भी राजनीति का सुरूर चढ़ा वे जीवन के अंत में कहां जा कर खड़े हुए? यदि इस मानसिकता का अध्ययन होगा तभी भारत विभाजन और तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व का सही अध्ययन हम कर पाएंगे।
इसके विपरीत मक्का में पैदा हुए, मिश्र में पले बढ़े मौलाना अबुल कलाम आजाद, अफगानिस्तान की आबोहवा में पल बढ़े खां अब्दुल गफ्फार खां जैसे नेताओं को देखें तो हम पाते हैं कि वे जीवन की अंतिम सांस तक अपनी मूल भूमि की एकता और अखण्डता के प्रति वफादार रहे।


तो सवाल उठता है कि भारत के मूल प्रवाह के साथ रह रहे मुसलमान नेताओं को क्या कहीं बरगलाया तो नहीं गया? जसवंत कहते हैं कि नहीं, उन्हें तो गांधी-नेहरू और पटेल ने किनारे लगाने का प्रयास किया। जसवंत ने पुस्तक में बार बार कांग्रेस को हिंदू कांग्रेस कहकर संबोधित किया है, आखिर क्‍यों? इतिहास के अध्येता जानते हैं कि चाहे गांधी हों या पटेल या फिर नेहरू, इन सभी नेताओं ने आजादी के आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को साथ लाने के लिए अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। अनेक सवालों पर ये नेता हिंदू समाज की मुख्य धारा के खिलाफ भी खड़े हो गए। हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग 1857 की क्रांति की असफलता के बाद भी इस बात पर अडिग था कि सशत्र संघर्ष के रास्ते अंग्रेजों को बाहर खदेड़ा जा सकता है। वासुदेव बलवंत फड़के आदि क्रांतिकारियों ने 18वीं सदी के अंत में ही इस मार्ग को प्रशस्त कर दिया था। लोकमान्य तिलक और योगी अरविंद इस मार्ग के द्वारा आजादी के मार्ग की संभावनाओं को टटोल रहे थे। कालांतर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह ने जिस मार्ग को अपना जीवनपथ ही बना लिया, जिस मार्ग की वकालत वीर सावरकर कर रहे थे, अपने शुरूवाती जीवन में डाक्टर हेडगेवार ने भी जिस मार्ग की वकालत की उस क्रांतिकारी मार्ग पर चलने से भारत के धर्मप्राण समाज को आखिर किसने रोका? क्रांति बलिदान मांगती है, जाहिर है हिंसा के बीज भी इसमें अन्तर्निहित रहते हैं और भारत के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालने से स्पष्‍ट भी होता है कि अधर्म के विरूद्ध हिंसक संघर्ष को भारत का लोकजीवन सदा से ही अपना समर्थन देता आया है। हिंदुओं से जुडे सभी पौराणिक ग्रंथ, वैदिक परंपरा, वेद, रामायण, महाभारत और गीता ने न्याय की रक्षा, असत्य के विनाश के लिए इस हिंसक संघर्ष के पथ को मान्य किया है।


लेकिन गांधी, नेहरू और पटेल ने इस परंपरा के विरूद्ध जाकर हिंदुओं को अहिंसा का मंत्र दिया। ये मंत्र सही था अथवा गलत, इसकी मीमांसा समय आज भी कर रहा है और आगे आने वाले समय में भी करेगा। वस्तुत: गांधी-नेहरू पर कोई आरोप लग सकता है तो यही लग सकता है कि इन नेताओं ने हिंदू समाज को सशस्त्र संघर्ष के मार्ग से परे ढकेल दिया इसके विपरीत जिन्ना और उसकी मंडली लड़कर लेंगे पाकिस्तान का नारा बुलंद कर रही थी। खलीकुज्जमां चौधरी, लियाकत अली खां जैसे लीगी नेता जब ये कह रहे थे कि यदि पाकिस्तान का निर्णय तलवार के बल पर होना है तो मुसलमानों के इतिहास को देखते हुए ये ज्यादा महंगा सौदा नहीं है, तो उस समय गांधी और नेहरू आखिर क्या जवाब दे सकते थे जबकि उनके हाथों में तलवार तो क्या एक चाकू भी नहीं था।


इसके विपरीत जिन्ना खुद ही सीधी कार्रवाई का ऐलान कर रहे थे कि हमने अब सभी संवैधानिक उपायों को तिलांजलि दे दी है और हम बता देना चाहते हैं कि हमारी जेब में भी पिस्तौल है। नि:संदेह देश में गृहयुद्ध के हालात पैदा किए जा रहे थे और ये सारा काम मुस्लिम लीग अंग्रेजों की शह पर कर रही थी।


हमने पहले ही ये सिद्ध किया कि जिन्ना ने कभी आजादी के किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया। गांधी के सन् 1915 में भारत आने के पहले भी नहीं और बाद में भी नहीं। कांग्रेस पक्ष में भी वह मुसलमानों का वकील बनकर खड़ा दिखाई देता था यद्यपि व्यक्तिगत जीवन में उसका ईश्‍वर, अल्लाह या ऐसी किसी पराशक्ति के उपर शायद ही कोई विश्‍वास था। उसका जीवन ऐशो आराम और भोग की चरम पराकाष्‍ठा पर था। इसके बावजूद जब जसवंत सिंह गांधी को प्रांतीय और धार्मिक नेता कहते हैं और जिन्ना को राष्‍ट्रवादी तो हंसी आती है। जरा देखिए कि गांधी 1915 के बाद देश में क्या कर रहे हैं और जिन्ना किस काम में लगे हैं। गांधी एक ओर चम्पारण में नीलहे किसानों के साथ खड़े हैं, गुजरात में बारडोली के किसानों के पक्ष में सरदार पटेल का साथ दे रहे हैं तो दूसरी ओर जिन्ना लखनऊ में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डलों के आरक्षण के सवाल पर बहस कर रहे हैं। और इससे जो समय बचता है तो अपने एक पारसी मित्र दिनशा पेटिट की 15 साल की लड़की को फुसलाकर भगाने के काम में सक्रिय रहते हैं। जिन्ना अंतत: पेटिट की बेटी डिना को घर से भगा ले जाते हैं। इस पर दिनशा पेटिट जिन्ना के खिलाफ अपनी बेटी के अपहरण का मुकदमा दर्ज करवाते हैं और इतिहास गवाह है कि जिन्ना सन् 1917 से 1918 के बीच फरारी का जीवन व्यतीत करते हैं।


सहज ये सवाल उठता है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने की कोई योग्यता जिन्ना में नहीं थी फिर भी उसने मुसलमानों का दिल जीत लिया तो उसके पीछे कारण गांधी, नेहरू या पटेल नहीं थे उसके पीछे का कारण वह विष बेल थी जिसे अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में पैदा किया। जिसका ताना बाना लंदन में चर्चिल के नेतृत्व में बुना गया कि हिंदुस्तान वाले यदि आजादी चाहते हैं तो उन्हें ऐसा हिंदुस्तान सौंपो जिसके कम से कम तीस टुकड़े हो जाएं।


जसवंत सिंह क्या बात करेंगे? समय रहते ही अंतरिम सरकार में सरदार पटेल ने मुस्लिम लीग की अंग्रेजों से मिलीभगत को पहचान लिया था। सरदार ने अनेक स्थानों पर इस बात का जिक्र भी किया कि जिन्ना रूपी जहर को निकाला जाना जरूरी हो गया है अन्यथा देश को अंग्रेज एक नहीं दर्जनों टुकड़ों में विभक्त कर देंगे।
और तब जो बरबादी होती क्या उसकी कल्पना किसी ने की थी। सरदार तो पाकिस्तान देने के भी इच्छुक नहीं थे, लेकिन दिल पर पत्थर रखकर उन्होंने इसे स्वीकृति दी। और क्या अंग्रेजों ने सिर्फ पाकिस्तान का ही निर्माण किया? इतिहास गवाह है कि देश की सभी रियासतों को अंग्रेजों ने कह दिया था कि यदि वे चाहें तो भारत के साथ रहें। यदि वे भारत से अलग रहना चाहते हैं तो वे अलग जा सकते हैं।
जसवंत सिंह तो केंद्र में मंत्री रहे हैं। एक कंधार विमान अपहरण से उनके हाथ पैर फूल गए और वे आतंकवादियों को अपने साथ विमान में बिठाकर कंधार रवाना हो गए। सरदार पटेल के सामने क्या परिस्थिति रही होगी जबकि सारे देश की एकता और अखण्डता ही अंग्रेजों ने दांव पर लगा दी थी। देश एक रह पाएगा भी अथवा नहीं, पाकिस्तान का सवाल तो जुदा है क्योंकि उसे तो अंग्रेज मान्यता दे गए थे लेकिन अपरोक्ष रूप से चर्चिल के चेलों ने हिदुस्तान को सैंकड़ों छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने का जो पांसा फेंका था उससे कैसे निबटा गया यदि उसके कुछ पन्ने भी जसवंत सिंह ने पलटे होते तो उन्हें पता लग जाता कि सरदार देश विभाजन के दोषी थे अथवा देश की एकता को बनाए रखने वाले असरदार नेता थे।


इसी में हैदराबाद के निजाम, जूनागढ़ के नवाब और जोधपुर के महाराज सहित जाने कितने बिगड़ैल घोड़ों पर हिंदुस्तान की एकता की सवारी गांठने का महान कार्य सरदार ने सम्पन्न कर दिखाया, क्या संसार के इतिहास में कहीं अन्यत्र ऐसा उदारहण मिलता है?
देश का दुर्भाग्य कि सरदार आजादी के दो वर्ष बाद ही स्वर्ग सिधार गए अन्यथा जसवंत सिंह जी आपको यह पुस्तक लिखने की नौबत ही नहीं आती। तब शायद जो पुस्तक लिखी जाती उसका शीर्षक होता- ‘पाकिस्तान: निर्माण से भारत में विलय तक’।
जिन्ना प्रेम में सरदार के लौहहृदय का इतना छलपूर्वक और सतही विवेचन आपने क्यों किया जसवंत सिंह, इतिहास आपसे इस सवाल को जरूर पूछेगा। क्या यह सही नहीं है कि सरदार ने शीघ्र ही पाकिस्तान के विनष्‍ट होने की भविष्‍यवाणी की थी? क्या यह सही नहीं है कि सरदार ने जिन्ना और उनके चेलों को चुनौती दी थी कि देखें, कितने दिन तुम पाकिस्तान को अपने साथ रख पाते हो? आप कहते हैं कि कांग्रेस के नेता बूढ़े हो चले थे, ये बात कांग्रेस के नेताओं ने ही स्वीकार की है। लेकिन सरदार भी बूढ़े हो गए थे क्या? क्या उन्होंने अपनी आरामतलबी के लिए देश का विभाजन स्वीकार किया? नेहरू क्या कहते हैं उस पर मत जाइए, सरदार क्या कह रहे थे और क्या कर रहे थे, थोड़ा उस पर ध्यान दीजिए। सरदार एक ओर ह्दय की गंभीर तकलीफ से जूझ रहे थे तो दूसरी ओर देश की तमाम रियासतों के भारत में विलय के लिए संपूर्ण देश में दौड़ भाग कर रहे थे। अपने जीवित रहते ही आजादी के बाद की दो साल की अल्पावधि में उन्होंने उस महान कार्य को पूर्ण कर लिया जिसे करने के लिए भारतीय इतिहास चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक और अकबर को याद करता है। एक चक्रवर्ती भारत, एक बलशाली अखण्ड भारत, भारतीयों द्वारा स्वशासित भारत, देश के करोड़ों आम नागरिकों का अपना भारत, भारत के लिए भारत, समस्त मानवता को दुख-कलह से दूर कर शांति के नए युग का संदेश देता भारत, उस भारत के लिए सरदार जी रहे थे, संघर्ष कर रहे थे।
इतिहास के अध्येता जिन्होंने भी सरदार के जीवन का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है वह ये मानने से शायद ही इंकार करें कि सरदार 10 वर्ष और जीवित रह गए होते तो पाकिस्तान का अस्तित्व समाप्त हो जाता। सरदार पंचशील और अहिंसा की मीठी-मीठी बातों में आने वाले नहीं थे। वे संसार की तत्कालीन वास्तविकता को जानते और समझते थे। वो शांति और अहिंसा की स्थापना के पीछे छिपे ताकत के बल को समझते थे इसलिए वे शक्ति की उपासना के कायल थे। इसीलिए उन्होंने संसद में अपने भाषण में कट्टरवादियों को ललकारा था कि अब फिर से अलगाववादी विशेषाधिकारों का राग अलापना बंद कर दो। पंडित नेहरू को जीवित रहते ही सरदार ने चीन के नापाक इरादों से सावधान कर सैन्य शक्ति के सुसंगठन पर ध्यान देने को कहा था।


देश की दुर्दशा को हर मोर्चे पर दूर करने का उनका सपना था। जसवंत सिंह, आप और आपकी तत्कालीन सरकार तो राम का नाम लेकर सत्ता में जा पहुंची, लेकिन अयोध्या में एक इंच जमीन भी आप राममंदिर के नाम पर हिंदुओं को दिला न सके। और तो और जो जमीन रामजन्मभूमि न्यास की थी, जो अविवादित भूमि थी जिस पर कोई विवाद नहीं था, जिस पर निर्माण प्रारंभ करने देने में मुसलमानों को भी कभी कोई आपत्ति नहीं रही, आपके और आपके सहयोगी मंत्रियों की कारस्तानी ने उस भूमि को भी विवादित बना दिया और न्यायालय ने उस पर भी निर्माण से रोक लगा दी।


लेकिन इसके विपरीत सरदार के जीवन पर एक निगाह डालिए और अपने पूर्व मित्र श्री आडवाणी से भी कहिए कि सरदार पटेल के जीवन के पन्नों को फिर से पलट लें कि कैसे बिना कोई विवाद खड़ा किए, हिंदुस्तान की प्राचीन धरोहर का पुनर्निर्माण किया जाता है। सिंधु सागर के तट पर खड़े होकर सरदार पटेल ने कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के साथ शपथ ली थी कि हे soomnaath! bharat ke kan kan me, saans saans me samaye he anaadi shankar! अब भारत आजाद हो चुका है, भारत कभी मिट्टी में नहीं मिलेगा उसी तरह जैसे तुम अपने ही खण्डहरों से पुन: उठ खड़े होने जा रहे हो, वैसे ही ये देश दासता की भयानक काली रात के सन्नाटे से निकल कर उगते सूर्य की उषा किरण में तुम्हें जलांजलि dene के लिए उठ खड़ा हो रहा है। ये देश अमर है, इसकी संस्कृति अमर है, इसका विश्‍व मानवता के लिए संदेश अमर है-सर्वे भवन्तु: सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।


ये सरदार थे jinhone विदेशी आक्रमणों की आंधी में उध्वस्त हो गए द्वादश ज्यातिर्लिंगों में एक सोमनाथ मंदिर की फिर से प्राण प्रतिष्‍ठा की। मानों 11 वीं सदी में हिंदुस्तान को गुलाम बनाने के लिए एक के बाद एक भयानक हमलों का जो सिलसिला सोमनाथ को ध्वस्त कर प्रारंभ किया गया था सरदार ने उसी मंदिर के शिलान्यास से दुनिया में भारत विजय के अभियान का श्रीगणेश किया था।
जसवंत सिंह! सरदार के जीवन के ये पन्ने आप क्यों नहीं पढ़ सके? शेष अगले अंक में……
-राकेश उपाध्‍याय

1 comment:

  1. RAKESH JI ...... YE KITAAB MAINE PADHI NAHI AUR NA HI PADHNA CHAAHTA HUN .... JO NETA BAS APNE SWAARTH KE LIYE KALAM KA GALAT UPYOG KARTE HAIN , ITIHAAS SE CHEDCHAAD KARTE HAIN ...... UNKA SAAMAJIK BAHISHKAAR HONA CHAAHIYE ... DIMAAG THIKAANE LAGAANA CHAAHIYE ...

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