Thursday, July 30, 2009

वी नीड मिलिटेंसी, नॉट मेंडिकेंसी

ये 27 जुलाई, 1897 की तारीख थी जब बाम्बे प्रेसीडेंसी के चीफ मेजिस्ट्रेट मिस्टर जॉन सैंडर्स स्लेटर ने लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी का वारंट जारी किया। ब्रिटिश सरकार ने तिलक के अखबार केसरी के कुछ लेखों और उनके भाषणों को राजद्रोह माना था। तब उन्हें पहली बार 18 महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। सरकार ने सजा से बचने के लिए उनसे माफी मांगने और आगे से ऐसा ना करने की चेतावनी भी दी लेकिन तिलक ने ऐसा करना गंवारा ना किया। 1897 में तिलक के विरूद्ध अंग्रेजों ने जो मुकदमा चलाया वह मुकदमा अंग्रेजी राज को चुनौती देने के पहले लोकतांत्रिक प्रयास को पूरी ताकत से कुचलने का प्रयत्न था। जो घटना घटी थी वह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही ऐतिहासिक महत्व की नहीं थी, संपूर्ण एशिया को लोकमान्य तिलक ने संदेश दे दिया था कि ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक गुलामी से बाहर निकल आने का समय आ गया है। तिलक ने उस समय समूचे मध्य भारत में पड़े अकाल और उसके बाद पुणे सहित अनेक इलाकों में फैले प्लेग के बारे में अपने अखबार में रिपोर्ट दर रिपोर्ट प्रकाशित की। इसी क्रम में परिस्थिति से निपट पाने में अंग्रेज अफसरों और प्रशासन की नाकामी पर भी वे जमकर बरसे। तिलक अपने मित्रों के साथ उस भयानक दौर में राहत कार्य के लिए स्वयं ही दौड़ धूप कर रहे थे, सैंकड़ों ग्रामों में भूखे लोगों के लिए भोजन, पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करने में तिलक और उनके साथी जुटे थे। लेकिन परिस्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी, अंग्रेज सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लाखों लोग पेट की खातिर अपने गांव छोड़ कर पुणे, पनवेल, नाशिक, शोलापुर, अहमदनगर, जुन्नार सहित अन्य दर्जनों कस्बों और शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। और इसी में उन्हें दिखाई पड़ा कि ब्रिटिश सरकार के अफसर हिंदुस्तान की जनता पर कैसा कहर बरपा रहे हैं। तिलक ने इस भयावह स्थिति पर अपने अखबार में कठोर टिप्पणी की। 17 नवंबर, 1896 दिनांकित केसरी में उन्होंने लिखा- एक ओर तो लोग घासफूस की कीमत पर अपने पशुओं को बेच रहे हैं क्योंकि खुद की जिंदगी को बचाने के लाले पड़ रहे हैं तो दूसरी ओर गांवों में घास और अनाज सोने के भाव बिकने के हालात पैदा हो गए हैं। हजारों लोग सपरिवार शहर की ओर रूख कर गए हैं और जो थोड़े लोग गांवों में बचे है वो भी शीघ्र शहर की ओर रूख करने की तैयारी कर रहे हैं।………अकाल के समय सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता के प्राण रक्षण और उनके खान-पान का इंतजाम करे। सरकार ने इसके लिए अकाल बीमा फंड भी बनाया हुआ है जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई जमा कर रखी गई है। जनता के करोड़ों रूपए सरकार के पास जमा हैं और जनता भूखों मरे, ये स्थिति क्यों बनी, किसने बनाई।…. तिलक महीनों तक लगातार अकाल की स्थिति पर सरकार और उसके तंत्र को आगाह करते रहे। एक ओर तिलक और उनके सहयोगियों ने स्थान-स्थान पर अकाल पीड़ितों के लिए राहत शिविर लगा कर वहां पर उनके लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था की वहीं दूसरी ओर गांव गांव से तथ्य आधारित रिर्पोटें मंगाकर सरकार की निष्क्रियता के खिलाफ उन्होंने अपने अखबार केसरी में सरकारी अकर्मण्यता के विरूद्ध जंग छेड़ दी।
अकाल का ताण्डव अभी समाप्त भी नहीं हुआ कि मध्य भारत को प्लेग की महामारी ने घेर लिया। पुणे में एक ओर तो तिलक और उनके साथी साफ-सफाई और रोगियों की पहचान कर उन्हें अस्पताल भेजने में जुटे तो वहीं प्लेग कमिश्नर रैण्ड ने समस्या से निपटने का एक अत्यंत खतरनाक तरीका निकाला। रैण्ड ने सेना के जवानों को लेकर एक सर्वे टीम बनाई और वे सब उन घरों का पता लगाते जहां प्लेग का कोई मरीज पाया जाता। मरीज और उनके परिजनों को घर से बाहर निकाल कर वे घर के एक-एक सामान को आग के हवाले कर देते। गांवों में तो रैण्ड ने सीधे सीधे घर ही आग के हवाले करने का निर्देश दे दिया। सीधी-साधी गउ समान जनता अंग्रेजों का ये अत्याचार देखकर जार जार रो उठी। एक ओर तो लोग अपने प्लेग पीड़ित परिजन के विछोह से पीड़ित रहते दूसरे अंग्रेज सरकार के कर्मचारी उनके घर को आग के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते।
तिलक से ये परिस्थिति देखी ना गई। तिलक ने केसरी में सिंहगर्जना की। ये कहर बरपाना बंद करो मिस्टर रैण्ड। प्लेग से निपटने का ये कोई तरीका नहीं है कि तुम और तुम्हारी सेना गांव के गांव आग के हवाले कर दे। तुम्हें लोगों की सेवा और साफ-सफाई के कार्य में सरकार ने नियुक्त किया है ना कि लोगों को यमलोग पहुंचाने के कार्य में। तिलक ने रैण्ड से बार बार विनती भी कि वह और उसके सैनिक लोगों से सभ्य तरीके से पेश आएं, जनता का सहयोग लेकर प्लेग की विभीशिका का सामना करें। लेकिन रैण्ड के कानों में जूं तक न रेंगी। इस पर तिलक ने केसरी में जो लिखा वह आगे चलकर इतिहास का दस्तावेज बन गया। तिलक ने लिखा कि इस धरती पर जनता कितनी भी दब्बू क्यों न हो जाए, इस पागलपन भरे आतंकी कार्य का बदला लेकर रहेगी।
और वही हुआ जिसकी आशंका तिलक ने प्रकट की थी। चाफेकर बंधुओं ने 22 जून, 1897 को मिस्टर रैण्ड और कर्नल अर्स्ट को गोलियों से भून दिया। हत्या होते ही सरकार ने तिलक के खिलाफ घेरेबंदी तेज कर दी। पुणे में छापेमारी का क्रम तेज हो गया। सरकार और प्रशासन तंत्र की ताबड़तोड़ छापेमारी से रंचमात्र भी न घबराए तिलक ने केसरी में सरकार को फिर से घेरा। ‘क्या सरकार का दिमाग खराब हो गया है’ और ‘शासन का मतलब प्रतिशोध नहीं’ नामक शीर्षक से लिखे आलेखों ने अंग्रेज सरकार को तुरंत तिलक के खिलाफ कार्रवाई का अवसर दे दिया। सरकार ने जनता की भावनाएं भड़काने और राजद्रोही लेखन के आरोप में तिलक को गिर्फ्तार कर लिया। उनके ऊपर मुंबई उच्च न्यायालय में मुकदमा चलाया गया और 18 महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। सजा पूरी कर जब तिलक जेल से लौटे तो उन्होंने फिर पूरे जोशो खरोश से केसरी में संपादकीय लिखा- हम अपने लक्ष्य स्वराज को पाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, कोई भी भय, अपमान और अत्याचार हमें हमारे लक्ष्य से डिगा नहीं सकेगा। जब तक हमारे भाव और ह्दय पवित्र हैं और हम मानव मात्र के प्रति हर प्रकार की घृणा से दूर है, हमें किसी से डरने की जरूरत भी नहीं है।
जेल से लौटने के बाद तिलक कांग्रेस के मंच पर सक्रिय हो उठे। इसके पूर्व महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और शिवाजी जन्मोत्सव का आयोजन प्रारंभ कर वे जनता को भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का संकेत दे चुके थे। उनकी लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी। वे अपनी आत्मा और कृति में एक समान व्यवहार कर रहे थे यही कारण है कि जनता का अपने नेता में विश्वास बढ़ रहा था। सन् 1905 का वर्ष भारतीय राजनीति में अत्यंत महत्व का साल माना गया। इसी साल लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजित करने का निर्णय लिया। तिलक ने सरकार के इस निर्णय के विरूद्ध जनता में आए उबाल को समय रहते पहचान लिया और बंगाल के विभाजन के प्रश्न को समूचे देश का प्रश्न बना दिया। 15 अगस्त, 1905 को केसरी में उन्होंने लिखा-संकट आ पहुंचा है, देशवासियों सावधान। तिलक ने समझ लिया कि ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन अंग्रेज हिंदुस्तान के टुकड़े कर देंगे। उन्होंने तत्काल अंग्रेजी वस्तुओं के बहिश्कार का आह्वान किया। इसी आंदोलन के दौरान तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और राष्ट्रीय स्कूलों की अधिकाधिक स्थापना पर जोर देना शुरू किया। उनके इस अभियान में लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष पूरी तरह साथ आ गए और आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी रूप धारण कर लिया।
राष्ट्रीय राजनीति में तिलक का ये उभार उन कांग्रेसियों को पसंद नहीं आया जो कांग्रेस को अपनी निजी जागीर बनाए बैठे थे। तिलक ने सीधे तौर पर अंग्रेज सरकार को भारत की दारूण और दु:खदायी स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया। तिलक ने कहा कि अंग्रेज सरकार अपने तुच्छ स्वार्थों की खातिर सदियो से साथ साथ रहते चले आ रहे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन का विशबीज बो रही है। बंगाल विभाजन सरकार की इसी सोच का नतीजा है। उन्होंने कहा कि हमें ऐसी सरकार नहीं चाहिए जो भाइयों में बंटवारा करा दे। इस अंग्रेज सरकार को जितनी जल्दी हो देश छोड़कर चले जाना चाहिए। इधर तिलक अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र रूप धारण कर चुके थे उधर भारत में अंग्रेज सरकार समर्थक कांग्रेसी खेमे में बेचैनी का वातावरण घर करने लगा।
वाराणसी अर्थात बनारस में दिसंबर, 1905 में आयोजित कांग्रेस के 21वें अधिवेशन ने कांग्रेस में समान रूप से पनप चुकी इन दो विचारधाराओं को अंतर रेखांकित कर दिया। अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए बनारस रेलवे स्टेशन पर जब तिलक उतरे तो 20000 से भी अधिक लोग उन्हें देखने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़े। हजारों ने उनके समर्थन में आवाज बुलंद की- जुझारू नेता चाहिए, दब्बुओं कुर्सी छोड़ दो। इसके उत्तर में तिलक ने भी विजयशाली मुद्रा में कांग्रेस के नरमपंथी धड़े का संदेश भेजा-ब्रिटिश राज के खात्मे के लिए अब उग्रनीति चाहिए, विनय के दिन गए। उनका कहे हुए शब्दों ने अंग्रेज सरकार को कांग्रेस के बदलते तेवरों से परिचित करा दिया-मिलिटेंसी, नॉट मेंडीकेंसी।
बनारस अधिवेशन में स्वराज्य के प्रश्न पर गोपाल कृष्ण गोखले और उनके सहयोगियों के साथ लोकमान्य के तीखे मतभेद खुलकर सामने आ गए। अधिवेशन में एक ओर गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा कि हम औपनिवेशिक स्वराज चाहते हैं। इसी के साथ कांग्रेस ने विषय समिति की बैठक में जार्ज पंचम और उनकी रानी के भारत आगमन के लिए स्वागत प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया गया। तिलक ने इसका तीखा प्रतिवाद किया और कहा कि जार्ज पंचम के स्वागत की जरूरत हमें क्यों पड़ गई? कांग्रेस में जार्ज पंचम के आगमन पर इतना उत्साह क्यों? उन्होंने कहा कि अंग्रेज सरकार और उनसे जुड़े अंग्रेजी वफादार इस कार्य को मजे से कर लेंगे, कृपया इस मुद्दे पर कांग्रेस अधिवेशन का किमती समय जाया न करें। तिलक के इस प्रतिवाद ने कांग्रेस आलाकमान को स्पश्ट कर दिया कि अब कांग्रेस में किसी की मनमानी नहीं चलेगी। अब जो होगा वह ‘स्वराज्य’ की कसौटी पर कसा जाएगा। कांग्रेस में उपस्थित अंग्रेजपरस्त तत्वों के कारण तिलक विरोध भी प्रबल होने लगा। नरमदल ने अपनी आंतरिक बैठकों और वार्ताओं में साफ कर दिया कि तिलक अपनी शर्तों पर मनमाने तरीके से कांग्रेस की संपूर्ण कार्रवाई प्रभावित कर रहे हैं, कांग्रेस के कार्य में बाधा पहुंचा रहे हैं।
तिलक ने कांग्रेस के बनारस अधिवेशन और इसके बाद दिसंबर, 1906 में कोलकाता अधिवेशन में स्वराज्य, स्वदेशी, अंग्रेजी माल के बहिष्कार और ब्रिटिश राज के खिलाफ सत्याग्रह प्रारंभ करने के सवाल को बहुत ही मुखर ढंग से उठाया। बनारस अधिवेशन में कांग्रेस की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले कर रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले यद्यपि तिलक की मांगों के प्रति व्यक्तिगत दृष्टिकोण से सहमत थे लेकिन वे उन मुद्दों के संदर्भ में कांग्रेस के प्लेटफार्म से कोई बात कहने से हिचक रहे थे। जाहिर था कि उनके उपर तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में सर्वसत्ता सम्पन्न ब्रिटिश हुकूमत की ताकत का भय भी कुछ हद तक काम कर रहा था। यही कारण था कि वे तिलक के खिलाफ खुलकर खड़े हो गए। गोखले और फिरोजशाह मेहता ने हर मुद्दे पर कांग्रेस में तिलक का विरोध प्रारंभ कर दिया। परिणामत: कांग्रेस अंदर ही अंदर बनारस अधिवेशन में नरमपंथी और गरमपंथी दो दलों में विभाजित हो गई।
इस परिस्थिति में विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष और लाला लाजपत राय ने कोलकाता कांग्रेस की कमान लोकमान्य तिलक के हाथों में देने का निश्चय किया। इसकी पहल अरविंद घोष की ओर से आई। वही अरविंद घोष जो आगे चलकर योगी अरविंद के रूप में विश्वविख्यात हुए।
ये समाचार जैसे ही नरमपंथी धड़े को मिला, वहां घबड़ाहट फैल गई। कांग्रेस अध्यक्ष पद पर तिलक का नामांकन रोकने के लिए उन्होंने दादा भाई नरौजी को आगे कर दिया। दादाभाई की छवि उस समय एक देश समर्पित नेता की थी, उम्र में भी वे अपने समकालीनों में बहुत वरिष्ठ थे। वे पहले भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश हाउस ऑफ कामन्स का सदस्य चुना गया था। लोकमान्य के खिलाफ जो दांव नरमपंथियों ने चला वह काम कर गया, लोकमान्य ने 81 वर्षीय दादाभाई के सम्मान में अपना नाम आगे बढ़ाने से इंकार कर दिया। कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन से ठीक 10 दिन पहले अपने अखबार केसरी में तिलक ने लिखा-दादाभाई के सामने यदि कोई मुद्दा है तो वह है स्वराज्य। मैं उनके पूर्व के जीवन को देखकर कह सकता हूं कि वह स्वराज्य के प्रश्न को कांग्रेस के माध्यम से देश का प्रश्न बना देंगे। मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि दादा भाई उन राजनीतिज्ञों में नहीं हैं जिनके लिए राजनीति खाली समय बिताने का एक आरामदायक तरीका है। उनका समूचा जीवन देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण है।
और जैसा कि कोलकाता कांग्रेस के बारे में तिलक ने कहा वैसा ही हुआ। पहली बार दादाभाई नरौजी के रूप में किसी कांग्रेस अध्यक्ष ने स्वराज की मांग उठाई। लेकिन नरमपंथी धड़े को ये पसंद नहीं आया लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। तिलक और उनके साथियों ने परिस्थिति का लाभ उठाकर स्वराज, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा के मसौदे को भी विशय समिति की बैठक में गर्मागर्म बहस के बाद पारित करवा लिया। नरमपंथी धड़े के अगुवा फिरोजशाह मेहता गरमपंथियों के बढ़ते जनाधार को देखकर अत्यंत उग्र हो उठे। उन्हें दादाभाई नरौजी से यह उम्मीद नहीं थी कि वे इस प्रकार से गरमपंथियों की बातों में आ जाएंगे। अधिवेशन की समाप्ति पर कोलकाता से लौटते वक्त वे तिलक से मिले और उन्हें चेतावनी दी-तिलक! तुमने ये स्वराज्य और स्वदेशी का प्रस्ताव यहां कलकत्ते में तो पारित करा लिया लेकिन ध्यान रखना अब आइंदा तुम ऐसे प्रस्ताव पारित करा पाना तो दूर इसे कांग्रेस के किसी अधिवेशन में रख भी नहीं पाओगे। तिलक ने उनका इशारा भांप लिया और मेहता को तुरंत जवाब भी दे दिया-आपकी चुनौती मुझे स्वीकार है, मैं शेर का उसकी मांद में ही ललकारना पसंद करूंगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि फिरोज शाह मेहता बंबई की राजनीति में शेर के रूप में विख्यात थे। कांग्रेस का अगला अधिवेशन बंबई प्रेसीडेंसी में ही आयोजित होना था। फिरोजशाह मेहता की टिप्प्णी और तिलक के जवाब ने तय कर दिया था कि कांग्रेस की भावी दिशा क्या होगी। कुछ ही दिनों में तय हो गया कि अगला अधिवेशन सूरत में होगा। चूंकि सूरत उन दिनों फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के प्रभावक्षेत्र का एक प्रमुख अड्डा था, दूसरे वहां की स्थानीय कांग्रेस ईकाई पूरी तरह से नरमपंथियों के हाथ में थी, इसलिए भी नरमपंथी धड़े ने कांग्रेस के 23वें अधिवेशन के लिए सूरत का चुनाव किया। दोनों पक्ष अपनी अपनी तैयारियों में जुट गए। तिलक ने तय कर लिया कि कांग्रेस को पूर्णरूपेण भारतीय हितों की संरक्षक, स्वराज्य, स्वदेशी समर्थक राजनीतिक दल बनाकर ही दम लेंगे तो नरमपंथी धड़े ने तिलक को ही निपटाने का षडयंत्र रचना प्रारंभ कर दिया।
सूरत में कांग्रेस स्वागत समिति बनाई गई और उसमें अधिकांशत: लोग वही रखे गए जो नरमपंथी धड़े के इशारे पर चलने वाले थे। फिरोजशाह मेहता के एक विश्वासपात्र सहयोगी अम्बालाल शकरलाल को जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह अधिवेशन में तिलक की उग्रता को शांत करने का प्रबंध पहले से करके रखे। तिलक परिस्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे इसलिए वे अधिवेशन की तारीख 26 दिसंबर, 2007 से एक सप्ताह पूर्व ही सूरत पहुंच गए। कांग्रेस स्वागत समिति ने तिलक के स्वागत समारोह के संदर्भ में पहले से चुप्पी साध रखी थी और उनके आगमन पर कोई विशेष प्रबंध भी नहीं किया गया लेकिन जैसे ही सूरत वासियों को तिलक के आने का समाचार मिला, सूरत रेलवे स्टेशन हजारों लोगों और फूल-मालाओं के अंबार से सज उठा। सूरत की जनता ने अपनी ओर से ही तिलक महाराज का ऐसा भव्य स्वागत किया कि नरमपंथी खेमे के हाथपांव फूल गए। रेलगाड़ी से उतरते ही तिलक को जनता ने रोडशो के साथ पूरे शहर में घुमाया। सूरत में आम जनता के बीच तिलक महाराज का ऐतिहासिक भाषण हआ। अपनी गरजती आवाज में लोकमान्य ने कहा- मैं यहां कांग्रेस को तोड़ने या उसमें फूट डालने के इरादे से नहीं आया हूं और ना मुझे नरमपंथियों से कोई लड़ाई झगड़ा करना है। कुछ लोग इस प्रकार की अफवाहें फैला रहे हैं कि तिलक कांग्रेस को तोड़ना चाहते हैं तो ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूं कि ऐसा करके मुझे और मेरे लक्ष्य स्वराज्य को कौन सा फायदा होने वाला है। मैं कांग्रेस को तोड़कर एक नया संगठन बना भी लूं तो इससे देश का कौन सा हित सधेगा? मेरा केवल इतना ही कहना है कि कोलकाता कांग्रेस में जो मत कांग्रेस ने व्यक्त किए वह उस पर अडिग रहे। अब हम कांग्रेस को किसी कीमत पर स्वराज्य प्राप्ति के घोषित लक्ष्य से पीछे हटने की अनुमति नहीं देंगे। मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ब्रिटिश राज के सफाए के बिना मैं चैन की सांस नहीं लूंगा, मेरा लक्ष्य कांग्रेस का खात्मा नहीं वरन् ब्रिटिश राज का खात्मा है। मैं सदा ही कांग्रेस की सेवा करता रहा हूं और आगे भी करता रहूंगा।
इधर तिलक सूरत की जनता से स्वराज्य प्राप्ति में सहयोग मांग रहे थे उधर गोपाल कृष्ण गोखले के हस्ताक्षर से एक पत्र सूरत अधिवेशन के आयोजन के एक दिन पूर्व सभी कांग्रेस सदस्यों में वितरित कर दिया गया। इस पत्र में गोखले ने कहा कि सर्वसम्मत निर्णय लिया गया है कि कांग्रेस औपनिवेशिक स्वराज्य चाहती है। इस निर्णय के विरूद्ध कोई भी प्रस्ताव कांग्रेस अधिवेशन में नहीं लाया जा सकता। जाहिर था कि नरमपंथियों ने कोलकाता कांग्रेस में उठे सारे मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालने का निश्चय कर लिया था। नरमपंथियों ने रासबिहारी घोष को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाना तय किया उधर गरमपंथियों ने लोकमान्य तिलक के नाम का प्रस्ताव करने की घोषणा कर दी।
26 दिसंबर को प्रात:काल जैसे ही कांग्रेस अधिवेशन प्रारंभ हुआ नरमपंथियों की ओर से दीवान बहादूर अंबालाल शकरलाल देसाई ने डॉ. रासबिहारी घोष का नाम अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रस्तावित किया। इसका समर्थन करने के लिए तुरंत सुरेंद्र नाथ बनर्जी खड़े हो गए। लेकिन वे कुछ बोल पाते इसके पहले ही पण्डाल में हल्ला मच गया। स्वागत समिति के अध्यक्ष त्रिभुवन दास मालवीय ने लोगों को शांत करने की अपील दर अपील की लेकिन हल्ला गुल्ला बढ़ता देख उन्होंने अधिवेशन को दिन भर के लिए स्थगित करने की घोशणा कर दी।
इसके बाद नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच बैठकों का सिलसिला चल पड़ा। तिलक ने इन बैठकों में गोखले के हस्ताक्षर से वितरित पत्र के बारे में पूछताछ की और कहा कि यदि ये पत्र वापस नहीं लिया जाता है तो बातचीत का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस कोलकाता अधिवेशन में देश के साथ किए गए वायदे से अब मुकर नहीं सकती। तिलक ने दूसरा मुद्दा उठाया कि डॉ. रासबिहारी घोष को अध्यक्ष पद के लिए किसकी सहमति से नामित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि वे हमें किसी कीमत पर स्वीकार नहीं होंगे। अच्छा होगा कि अध्यक्ष का चुनाव कुछ समय के लिए टाल दिया जाए और उसकी जगह एक संचालन समिति का गठन कर कांग्रेस के कार्यों को उचित रीति से संचालित किया जाए।
तिलक का प्रस्ताव फिरोजशाह मेहता के पास पहुंचा तो भड़क उठे। उन्होंने तिलक की किसी भी बात को सुनने तक से इंकार कर दिया। फिर क्या था, कांग्रेस का 23वां अधिवेशन संपूर्ण यूरोप में चर्चा का विषय बन गया। 27 दिसंबर की दोपहर में अधिवेशन का सत्र शुरू हुआ और सुरेंद्र नाथ बनर्जी अपना भाषण फिर से शुरू करने लगे। कुछ देर तक उनके बोलने के समय गंभीर शांति पूरे पण्डाल में पसरी पड़ी थी जिसमें उस वक्त पूरे देश से करीब 7000 प्रतिनिधि मौजूद थे। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने जैसे ही अपना भाषण समाप्त किया, मंच के नीचे की प्रथम पंक्ति में कुर्सी पर बैठे तिलक ने एक पर्ची अधिवेशन का संचालन कर रहे त्रिभुवन दास मालवीय के पास भिजवाई। लेकिन पर्ची पढ़ने के बावजूद मालवीय चुप्पी साधे बैठे रहे। उल्लेखनीय यह है कि इस समय तक अध्यक्ष के निर्वाचन की विधिवत् घोषणा होना बाकी था। तिलक ने देखा कि उनकी पर्ची पर बिना कोई ध्यान दिए मालवी ने नए अध्यक्ष के रूप में डॉ. रास बिहारी घोष के निर्वाचन की घोषणा कर दी और उन्हें अध्यक्ष के रूप में कार्रवाई संचालित करने का अधिकार सौंप दिया। तिलक से रूका न गया। वे बिना किसी बुलावे के ही मंच की ओर बढ़ने लगे। तिलक का मुखमण्डल अपनी इस अवमानना से अत्यंत गंभीर हो उठा। डॉ. रास बिहारी घोष ने तिलक को मंच की सीढ़ियों पर चढ़ते देखा तो उन्हें तत्काल अपनी सीट पर लौटन को कहा। लेकिन तब तक तिलक मंच पर चढ़ चुके थे। मंच पर चढ़ते ही उन्होंने बुलंद आवाज में कहा कि उन्हें यहां आए हुए हजारों प्रतिनिधियों को संबोधित करने से कोई रोक नहीं सकता। डॉ. घोष यदि देखा जाए तो आपका निर्वाचन पूरी तरह से अवैध है। आपके निर्वाचन के लिए कांग्रेस के इस पण्डाल में उपस्थित प्रतिनिधियों से कोई सहमति नहीं ली गई है। इस पर मालवी और स्वयं डॉ. घोष ने कहा कि नहीं! निर्वाचन पूरी तरह से वैध है। आप अपनी सीट पर वापस जाएं। लेकिन तिलक ने उलट जवाब दिया कि आप स्वराज्य के सवाल पर कांग्रेस में मतविभाजन करा लिजिए। और जब तक ये नहीं होता मैं यहीं मंच पर रहूंगा और कृपया मुझे कांग्रेस को संबोधित करने दीजिए। तिलक और डॉ. घोष के बीच अभी ये वाद विवाद चल ही रहा था कि अचानक मंच पर दोनों ओर से कुछ पहलवान टाइप हाथों में लाठियां लिए चढ़ आए और तिलक को धक्का देकर मंच से फेंकने की कोशिश करने लगे।
लेकिन तिलक इस पर भी रूके नहीं, उन्होंने अवांछित तत्वों को दूर रहने की चेतावनी दी और साफ कर दिया कि कांग्रेस को उनके सुझावों और प्रस्तावों पर विचार करना ही होगा। क्या थे वे प्रस्ताव? जरा गौर फरमाइए कि तिलक क्या कह रहे थे उस समय? तिलक सूरत अधिवेशन में जिन प्रस्तावों को लेकर कांग्रेस मंच पर चढ़े थे वे प्रस्ताव थे स्वराज, स्वदेशी, अंग्रेजों का बॉयकाट यानी अंग्रेजी वस्तुओं और अंग्रेजी सभ्यता का बहिष्कार तथा वैकल्पिक राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना का मसौदा। लेकिन अंग्रेजी चाटूकारों ने इन प्रस्तावों पर बहस और मत विभाजन की बजाए तिलक को ही निशाने पर ले लिया। पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन में कुर्सियां चलीं, लोग एक दूसरे पर लाठियां और जो जो कुछ भी हाथ में मिला, लेकर पिल पड़े। ये तो होना ही था क्योंकि अंग्रेजी चाटूकारिता करने वाले ये भूल गए थे कि तिलक को खींचकर मंच से हटाना उनके लिए कितना भारी पड़ सकता है।
मंच पर जैसे ही तिलक ने अपने प्रस्तावों के बारे में बोलना शुरू किया तो लठैतों ने उन्हें पुन: मंच से धक्का देकर उतारने की कोशिश की। इस पर बीचबचाव के लिए गोखले उठ खड़े हुए। उन्होंने दोनों हाथों से तिलक को अवांछित तत्वों से बचाने की कोशिश की। उधर धक्का-मुक्की के बीच तिलक मंच पर ही दोनों हाथ बांधे, अपने दोनों पैर जमाए त्यौरियां कस कर खड़े हो गए। लठैतों ने सोचा कि तिलक को शीघ्र मंच से उतार फेकेंगे लेकिन कुछ ही देर में उन्हें ध्यान में आ गया कि उनका पाला गरमदल से पड़ गया है। अपने नेता के साथ इस प्रकार का अमानवीय व्यवहार होता देख पण्डाल में उपस्थित गरम दल के नेता सकते में आ गए। तिलक समर्थक दर्जनों प्रतिनिधि तत्काल अपने नेता के बचाव में मंच पर कूद पड़े और सैंकड़ों अन्य प्रतिनिधियों ने फिरोजशाह मेहता और सुरेंद्र नाथ बनर्जी को घेर लिया। दोनों पक्षों में खुला घमासान छिड़ गया। दोनों ओर से लाठियां, कुर्सियां चलने लगीं। जिधर देखो उधर हाहाकार मच गया। हालात नियंत्रण से बाहर जाता देख पुलिस को पंडाल के अंदर घुसकर लाठीचार्ज करना पड़ गया। गरम दल के प्रतिनिधियों ने एक-एक कर नरम दल के नेताओं को निशाने पर ले लिया। पंडाल में नारे लगने लगे-तिलक नहीं तो अधिवेशन नहीं। 27 दिसंबर की तारीख कांग्रेस अधिवेशनों के इतिहास में काला अध्याय लिख गई। नरमपंथी और गरमपंथी अब पूरे तौर पर दो जुदा राहों पर चल पड़े।
आखिर तिलक ने बिना अनुमति मंच पर चढ़ने का दुस्साहस क्यों किया? इस पर टिप्पणी देते हुए टाइम्स ऑफ लंदन ने दिनांक 30 दिसंबर, 1907 को अपने संपादकीय में जो कुछ लिखा उससे पता चलता है कि भारत के राजनीतिक नेता लोकमान्य तिलक और उनके साथियों के साथ किस प्रकार का बर्ताव कर रहे थे। पता इस बात का भी चलता है कि तिलक किस प्रकार से दृढ़प्रतिज्ञ होकर अपने मत पर अड़े हुए थे। अखबार लिखता है- ….एक विद्वान मराठा ब्राह्मण जो इसके बहुत पहले भी भारत में असंतोष को हवा देने के जुर्म में जेल जा चुका है। तिलक भयभीत है, लगभग भारत के सभी राजनीतिक समूहों का उस पर अविश्वास है फिर भी वह अपने को स्थापित करने, अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने और भारत सरकार के विरूद्ध असंतोष को हवा देने की युक्ति बनाने में जुटा हुआ है। राजनीतिक नजरिये से उसके पास कोई सिध्दांत नहीं दिखता सिवाय विध्वंस के। जब वह कांग्रेस पर नियंत्रण कर सकने में कामयाब ना हो सका तो उसने कांग्रेस को ही नष्ट करने का निश्चय कर लिया। लंबे समय से वह इसी फिराक में था और सूरत अधिवेशन ने उसे ये मौका दे ही दिया।
सुप्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक वेलेंटाइन चिरोल ने भी सूरत में हुए उपद्रव के लिए तिलक को जिम्मेदार ठहराया। वेलेंटाइन चिरोल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडियन अनरेस्ट में लिखते हैं- तिलक और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस अधिवेशन को उलट-पलट दिया। जिस प्रकार का फसाद और संभ्रम निर्माण किया वह अत्यंत निंदाजनक था।
अंग्रेजों ने जो लिखा और बोला, उसी से जाहिर होता कि उनका रवैया तिलक के प्रति कितना तिरस्कारपूर्ण था। तिलक के आगमन के पूर्व कांग्रेस देश को किस ओर ले जाने की वकालत कर रही थी इसका पता भी अंग्रेजी चिट्ठे से चल जाता है। तिलक ने बाद में जारी किए गए अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया कि बार बार आग्रह के बावजूद कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्तुत प्रस्तावों को सूरत कांग्रेस अधिवेशन में चर्चा के लिए आखिर क्यों प्रस्तुत नहीं किया गया? पूर्ण स्वराज, स्वदेशी, अंग्रेजों का बहिष्कार और शिक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय विकल्प का आह्वान इनमें से कौन सी बात कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को पसंद नहीं आ रही है? तिलक ने कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले की मंडली से पूछा कि आप लोग किस मुंह से ऐसी आजादी मांग रहे हैं जिसमें हमें हर कदम पर अंग्रेजों के सामने हाथ फैलाकर खड़ा होना पड़ेगा? उन्होंने कहा कि जिस प्रकार से कोलकाता नगरी में बहुत सी स्वशासी कालोनियां बन गई हैं जो अपनी रोजमर्रा की व्यवस्थाएं खुद संभालती है तो भारत को भी अंग्रेजी राज के अंतर्गत ऐसी ही कालोनी के रूप में देखा जाना आपको मंजूर हो सकता है किंतु मुझे ये कदापि मंजूर नहीं है। अंग्रेजों को हर हाल में पूरे तौर पर देश से जाना होगा।
तिलक के वज्र संकल्प और कठोर व्यवहार का परिणाम था कि समूची कांग्रेस एक तरफ डॉ. रास बिहारी घोष, गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोजशाह मेहता तो दूसरी तरफ लाला लाजपत राय, अरविंद घोश, विपिन चंद्र पाल और लोकमान्य तिलक के समूह वाले नेतृत्व में दो धड़ों में बंट गई। कांग्रेस की राजनीति में जो धारा तिलक ने संघर्ष के द्वारा निर्मित की वही धारा आगे चलकर आजादी के महान आंदोलन में परिवर्तित हुई, तिलक के द्वारा जो नींव डाली गई उसी पर महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन का सारा भवन खड़ा करने का प्रयास किया। चाहते तो तिलक भी उस समय पार्टी अनुशासन मानकर चुप बैठ सकते थे, चाहते तो अंदर ही अंदर गोपाल कृष्ण गोखले से तालमेल कर वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन सकते थे लेकिन इस प्रकार की धूर्त और लंपट राजनीति का हिस्सा बनना तिलक ने कभी गंवारा नहीं किया। जैसे को तैसा और अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर उन्होंने कांग्रेस सहित समूचे देश को स्वराज के प्रश्न पर झकझोर कर रख दिया। सचमुच जो नींव उन्होंने डाली आगे चलकर उसी पर भारत की आजादी के आंदोलन का सारा ताना बाना रचा व बुना गया।
1907 का कांग्रेस अधिवेशन बीत गया लेकिन तिलक के हृदय में धधक रही क्रांतिज्वाला ने नया रूप धारण कर लिया। तिलक ने अपने अखबार केसरी और मराठा में ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ तर्कपूर्ण भाषा में जमकर लिखना शुरू किया। इसका परिणाम ये निकला कि एक ओर उनके अखबार की मांग समूचे देश में बढ़ गई और दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देने का उपक्रम सोचने लगी। शीघ्र ही नियति ने सरकार को ये मौका दे दिया।
30 अप्रैल, 1908 के दिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में जिला न्यायाधीश किंग्सफोर्ड को लक्ष्य कर खुदीराम बोस ने एक बम फेंका। संयोग से इस बम विस्फोट में किंग्सफोर्ड तो बच गया लेकिन एक अंग्रेज महिला श्रीमती केनेडी और उनकी बेटी मारी गर्इं। फिर क्या था? अंग्रेज सरकार ने लोकमान्य तिलक को इस हमले का प्रेरक मानकर उन्हें पुणे स्थित उनके घर से गिरफ्तार कर लिया।
जारी…..

1 comment:

  1. राकेश जी, ऐसा लगा जैसे जसवंत प्रकरण पर आप से अच्छा किसी ने इसकी जाँच-पड़ताल नही की है। सचमुच में आपकी सोच काबिलेगौर है। अगले सोच का मै इंतज़ार करूँगा। मै, नरोत्तम का आपको सहर्ष नमस्कार।

    ReplyDelete