Monday, July 20, 2009

हे काशी! तुम रहती कहाँ हो...

एक पुरानी कविता जो काशी में गंगा तट पर अनायास फूट पड़ी थी।


गलियों में गंगा किनारे,
घर घर में अंगना दुआरेतुमको ढूंढा
बहोत मिलती नहीं हो!
अब तो बता दो हे काशी,
हे काशीतुम रहती कहाँ हो, रहती कहाँ हो, रहती कहाँ हो?


बाबा की छांव में, हनुमत के गाँव में
वरुणा किनारे, अस्सी के द्वारे
तुमको खोजा बहोत, मिलती नहीं हो
अब तो बता दो हे काशी तुम रहती कहाँ हो......


मंत्रो में खोजा, सन्तों में खोजा
ग्रन्थों को बांचा, मन में भी झाँका
तुम मिलती नहीं होअब तो बता दो
हे काशीतुम रहती कहाँ हो...

।ध्यान होता नहीं, मन सधता नही
तुमको जाने बिना कुछ दिखता नहीं
भोले कृपा हो तो जीवन सफल हो
काशी बिना कुछ होता नहीं........जारी

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