Tuesday, July 28, 2009

लोकमान्य की याद में

1 अगस्त, 2009 को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को गुजरे लगभग 90 साल पूरे हो जाएंगे। हम अब ये दावा नहीं कर सकते कि देश में कोई ऐसा होगा जिसने लोकमान्य को अपनी आंखों से कभी देखा होगा, हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोकमान्य की आंखों के सपने अभी भी कुछ भारतीयों की आंखों में तिरते होंगे। संभवत: मुट्ठीभर ऐसे भी अवश्‍य होंगे जो आज भी सही मायनों में ‘स्वराज’ आने का इंतजार कर रहे हैं।
बहुतों को अजीब लगेगा कि ये स्वराज की बात अब क्यों? क्या पराधीनता 1947 में खत्म नहीं हो गई? आखिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जीवित होते तो आज क्या कर रहे होते? क्या आज भी वे स्वराज, स्वराज का मंत्रजाप कर रहे होते? आज कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी सहित देश के तमाम राजनीतिक दलों के अंदर उपजी विचारहीनता को देखकर इस प्रश्‍न का उत्तर खोजना ज्यादा मुश्किल नहीं है। मुझे लगता है कि तिलक आज जिंदा होते तो शायद पहले से भी कहीं अधिक वेग से हिंदुस्तान में स्वराज की स्थापना के संघर्ष का बिगुल बजा रहे होते। आज के भारत का कड़वा सच यही है कि भारतीय राजनीतिक पटल पर एक भयानक तमस और कुहासा चारों ओर छाया दिख रहा है। तिलक का कालखण्ड बीतने को शताब्दी आ गई लेकिन उस समय जो गाढ़ा अंधकार भारत के राजनीतिक क्षितिज पर छाया हुआ था, जिससे निजात दिलाने के लिए तिलक भारतभूमि पर पैदा हुए, वह तो आज कहीं ज्यादा विकराल हो उठा है। लोकप्रियता को ही मानक मान लें तो आज देश में किस राजनीतिक दल का कौन नेता दावा कर सकता है कि उसकी एक दहाड़ पर हिंदुस्तान ठप्प हो सकता है? शायद ही कोई राजनेता ऐसा हो जिसके पास अखिल भारतीय दृष्टि हो, जिसके लिए भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत की जनता में बेइंतहा प्यार हो, जो अपने जीवन में किसी विचारधारा की लीक पर चलता हो, जिसका कोई सिद्धांत हो और वह सिद्धांत उसके आचरण से स्पष्‍ट झलकता भी हो।
आज हिंदुस्तान की 77 प्रतिशत आबादी जब 10 से 20 रूपए प्रतिदिन में गुजर-बसर कर रही है, सारा देश सांस्कृतिक संक्रमण, बेरोजगारी, आंतरिक आतंकवाद और वैदेशिक आतंकवाद, घोर गरीबी, गांवों की खस्ताहाल हालत, बजबजाते शहरों और कस्बों से लहूलुहान हो उठा है, विदेशी कारपोरेट कल्चर हिंदुस्तान और उसकी नियति के निर्धारकों राजनीतिक नेताओं और अफसरों को पूरी तरह से जब अपनी गिरफ्त में ले चुका है तब हमें तिलक की याद आती है। तिलक की ही याद क्यों? क्योंकि यही वह अकेला शख्स था जिसने 100 साल पहले भारत की राजनीति को अपने मन और बुद्धि से सोचना सिखाया। हां ये तिलक ही थे जिन्होंने पहले पहल ये करके दिखाया था। उनकी सिंहगर्जना से ब्रिटिश हुकूमत हिलती थी और कांग्रेस का नरमपंथी धड़ा भी। आखिर यूं ही उन्हें तमाम ब्रिटिश दस्तावेजों ने ‘फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट’ अर्थात भारत में अशांति का जन्मदाता होने के खिताब से नवाजा नहीं था। ये उनकी लोकप्रियता का ही भय था कि ब्रिटिश हुकूमत को उन्हें गुपचुप कालेपानी जैसी कैद के लिए बर्मा स्थित माण्डले जेल रवाना करने पर मजबूर होना पड़ा।
तिलक के समय हिंदुस्तान की राजनीतिक परिस्थिति क्या थी, उस पर भी एक निगाह दौड़ाना वाजिब होगा। कैसे नेता थे हमारे उस समय! ऐसे जो सवेरे कहीं किसी क्लब में गोष्‍ठी करके ब्रिटिश हुकूमत को शासन संबंधी सुझाव और सलाह देने से अधिक कुछ करने में विश्‍वास नहीं रखते थे और शाम को ब्रिटिश हुक्मरानों के खैरमकदम और जीहुजूरी में जो पलक पांवड़े बिछाकर खड़े रहने में ही अपना जीवन धन्य मानते थे कि कहीं साहब बहादूर उन्हें भी कहीं पर रायबहादुरी या सर का कोई खिताब अदा फरमाएंगे। कांग्रेस को उन्होंने क्लबनुमा थिएटर मंडली बना रखा था जिसकी हालत आज देश में चल रहे तमाम चैरिटी क्लबों के समान थी जो सरकार और समाज के साथ अपना पीआर जमाए रखने के लिए गाहे बगाहे मिलते-जुलते और अधिवेशन आदि करते रहते थे। हमारी कांग्रेस उस समय औपनिवेशिक स्वराज को ही अपनी राजनीति का अखण्ड लक्ष्य मानकर चलती थी, और कर भी क्या सकती थी क्योंकि उस कालखण्ड की विकट परिस्थिति में कांग्रेस के सामने ब्रिटिश हुक्मरानों के सामने गिड़गिड़ाने के सिवाय अपना अस्तित्व बचाए रखने का कोई और उपाय भी शेष नहीं दिखता था। एक राजनीतिक दल होने के मायने क्या हैं, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस होने का मतलब क्या है, इसके बारे में भी लोकमान्य तिलक ने ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पहले पहल सीख दी। लोकमान्य जनता के नेता थे, किसी को ‘मैनेज’ करके तीन तिकड़म से या किसी की कृपा से उन्होंने लोकमान्य की पदवी हासिल नहीं की थी। लोकमान्य के समय राजनीतिक क्षेत्र में काम कर रहे अधिकांश राजनेता अंग्रेज सरकार के कृपापात्र बने रहने के लिए लालायित रहते थे और समूची राष्‍ट्रीय राजनीति ही अंग्रेजपरस्ती का शिकार बन चुकी थी। लोकमान्य ने अपने पराक्रम से अंग्रेजपरस्त राजनीति को भारतपरस्त बनाने का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया।
1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर का दीपक करोड़ों हिंदुस्तानियों में आजादी की आस जगाकर बुझ चला था। जो दिया मंगल पाण्डे प्रभृति वीरों ने अपना जीवन दीप जलाकर रोशन किया था उस दीपक को कांग्रेस विलायती घी से जला कर रखने की कोशिश कर रही थी। विदेशी पराधीनता का विकट घना अंधेरा जब हमारे लाखों ग्रामों से होता हुआ दूर लाहौर, कोलकाता, मुंबई, मद्रास और दिल्ली तक पसरा पड़ा था, जब कोई राह सुझाने वाला नहीं था, अंग्रेजी राज मानो ईश्‍वर ने सदा के लिए हमारी नियति में लिख-पढ़ दिया था तब लोकमान्य का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में हुआ। उस महनीय व्यक्तित्व की याद आज के संदर्भ में तो और भी प्रासंगिक हो उठती है क्योंकि उसी ने उन्नीसवीं सदी के उगते सूर्य को साक्षी मानकर पहले पहल कहा था कि अंग्रेजों तुम हमारे भाग्यविधाता नहीं हो, हमारी आजादी हमें सौंपकर तुम हम पर कोई अहसान नहीं करोगे, ये हमारा स्वराज है, सदियों से ये स्वराज हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का साधन रहा है, तुम हमारी आत्मा पर राज नहीं कर सकते, तुम्हें हिंदुस्तान से जाना होगा, जाना ही होगा क्योंकि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।
स्वराज!!! छोटा सा शब्द, किंतु मानव ही क्या मानवेत्तर अन्य योनियों, पशु-पक्षियों के जीवन के लिए भी सर्वाधिक गहन और महत्वपूर्ण इस शब्द के अर्थ को देश को समझाने के लिए तिलक महात्मा ने कैसा भीशण संघर्ष और संताप अपने जीवन में झेला इसे पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ब्रिटिश हुकूमत और भारत के कुछ कथित राजनीतिक रहनुमाओं की षडयंत्री राजनीति ने सन् 1908 में उन्हें 6 साल के लिए बर्मा स्थित माण्डले जेल पहुंचा दिया, जेल में रहने के दौरान ही उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को खो दिया। इसके पूर्व अपने नरमपंथी साथियों के खिलाफ दिसंबर, 1907 के कांग्रेस के सूरत महाधिवेशन में ताल ठोंककर वे खड़े हो गए। कहां कहां उन्होंने संघर्ष नहीं किया। ब्रिटिश परीधीनता की चक्की में पिस रहे स्वदेशी शिल्पकारों, मजदूरों, किसानों, मजलूमों की वे सशक्त आवाज बने। उनकी लोकप्रियता कैसी थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्हें केसरी में ब्रिटिश शासन विरोधी संपादकीय लिखने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हिंसक आतंकवाद और बगावत भड़काने के आरोप में सन् 1908 में कैद की सजा सुनाई गई, समूची मुंबई उस दिन ठप्प पड़ गई। और मुंबई ही क्यों समूचे देश में अंग्रेजी शासन ने अलर्ट की घोषणा कर दी। बैरकों में सिपाहियों को किसी संभावित विद्रोह को कुचलने के लिए तैयार रहने को सावधान कर दिया गया।
लोकमान्य को याद करने का मतलब आज क्या हो सकता है? इसे जानने के लिए हमें लोकमान्य के जीवन में झांकना होगा। वह जीवन जिसने आत्माभिमान शून्य, दिमागी तौर पर अलसाये, मुरझाए और गुलामी के बोझ से कांपते, कातर हिंदुस्तान को सही मायनो में सोचना और बोलना सिखाया। तिलक की याद करना सिर्फ अतीत के बीते पन्नों को पलटना मात्र नहीं है, उनकी याद आज की तरंगित, उमंगों से भरी युवा पीढ़ी को, संसद में कलफदार धोती कुर्ता, पाजामा और पैंट-शर्ट पहने नेताओं को अपना जीवनोद्देश्‍य फिर से तलाशने की राह पर ले जाने का प्रयास भी है। ये उस विरासत को संभालने और संजोए रखने का प्रयत्न है जिसकी रक्षा के लिए महात्मा तिलक ने अपना जीवन अर्पित किया।
पर लोकमान्य को याद करने का मतलब आज क्या हो सकता है? इसे जानने के लिए हमें लोकमान्य के जीवन में झांकना होगा। वह जीवन जिसने आत्माभिमान शून्य, दिमागी तौर पर अलसाये, मुरझाए और गुलामी के बोझ से कांपते, कातर हिंदुस्तान को सही मायनो में सोचना और बोलना सिखाया। तिलक की याद करना सिर्फ अतीत के बीते पन्नों को पलटना मात्र नहीं है, उनकी याद आज की तरंगित, उमंगों से भरी युवा पीढ़ी को, संसद में कलफदार धोती कुर्ता, पाजामा और पैंट-शर्ट पहने नेताओं को अपना जीवनोद्देश्‍य फिर से तलाशने की राह पर ले जाने का प्रयास भी है। ये उस विरासत को संभालने और संजोए रखने का प्रयत्न है जिसकी रक्षा के लिए महात्मा तिलक ने अपना जीवन अर्पित किया।
राजनीतिक दलों में पद को लेकर आज जो मारामारी हम देखते हैं ये मारामारी तिलक के समय विचारों के स्तर पर प्रबल थी। कांग्रेस पर उन तत्वों ने कब्जा जमा लिया था जो हिंदुस्तान को अंग्रेजी राज के खिलाफ किसी निर्णायक जंग के खिलाफ खड़ा करने में बुद्धिमानी नहीं समझते थे। ऐसे तत्व 1857 की क्रांति की असफलता के बाद मुकम्मल आजादी यानी पूर्ण स्वराज की मांग को उतना ही गैर जरूरी मानते थे जितना जरूरी वे भारत के कल्याण के लिए अंग्रेजों की उपस्थिति को मानते थे। इसी सिद्धांत में से औपनिवेशिक स्वराज का सिद्धांत जन्मा जिसके अनुसार ब्रिटिश हुकूमत तो हमारे हित में ही है, वह बनी रहे, देश का विकास करे, डाक-तार-स्कूल-विश्‍वविद्यालय, सड़कें, रेल, प्रशासन और सेना, साफ-सफाई की व्यवस्था करे, नगरीकरण करती रहे और कुछ टुकड़े यह हुकूमत हम सभ्य नागरिकों की ओर भी कृपा कर फेंकती रहे तो क्या हर्ज है। कुछ साल पहले हमारे देश के एक वरिष्‍ठ केंद्रीय मंत्री ने अंग्रेजों द्वारा सौंपी गई इस महान विरासत के लिए लंदन में कैसा धन्यवाद ज्ञापित किया था, उसे यहां दुहराने की जरूरत नहीं है, हां ये सच जरूर स्वीकार कर लेने की जरूरत है कि तिलक का कालखण्ड बीतने के 90 साल बाद भी वह कौम हिंदुस्तान में खत्म नहीं हुई है जिसके खिलाफ तिलक जीवन भर संघर्ष करते रहे किंवा वह कौम तो और मजबूती और कहीं ज्यादा प्रभावी ढंग से आज हम हिंदुस्तानियों को उपदेश करती फिर रही है। ये वो कौम है जो ये कहने में कोई संकोच नहीं करती कि हे हमारे विधाता अंग्रेज भाइयों! तुमने 17वीं सदी में हिंदुस्तान आकर हमारे उपर कितनी कृपा की, ये तुम्हारे 200 साल के कठोर शासन का ही प्रतिफल है कि हम हिंदुस्तानी कुछ पढ़ लिख गए हैं अन्यथा अगर तुम ना आए होतो तो जरा सोचो हमारा क्या हाल होता? तब ना ये संसद होती और ना ये बिजली बत्ती, दुनिया जरूर 21वीं सदी में पहुंच गई हम तो वैसे ही आदम के जमाने में रह गए होते। तुमने यहां आकर जो कृपा की उसका क्या अहसान हम चुकाएं! हम तो बस यही कह सकते हैं कि तुम एक बार फिर आओ, पिछली बार 200 साल के लिए आए पर इस बार आओ तो ऐसे आओ कि जाने की जरूरत ही न पड़े। क्योंकि हम हिंदुस्तानी तभी शांति से रह सकते हैं जब तुम हमारा मार्गदर्शन करने के लिए हमारे सिर पर डण्डा लिए बैठे रहो। इस बार आओगे तो ज्यादा मुश्किल ना आएगी क्योंकि तुम्हारी मदद के लिए हिंदुस्तान भर में हमने अंग्रेजी पढ़ी लिखी, तुम्हारी सभ्यता में पली बढ़ी और तुम्हारे जैसी आधुनिक सोच रखने वाली पूरी की पूरी जमात खड़ी कर रखी है। और अगर ना आना हो तो कोई बात नहीं, हमारा मार्गदर्शन करते रहो, आपकी अनुपस्थिति में आपकी खड़ाउं रखकर हम आपके राज को उसके सच्चे स्वरूप में हिंदुस्तान में बनाए रखेंगे।
ये उस सोच का ही नमूना है जो 19वीं सदी के प्रारंभ में समग्र हिंदुस्तान के कथित प्रगतिशील राजनीतिक नेतृत्व में देखी जा सकती थी और आज जब हम इस कथित 21वीं सदी में आ गए हैं तो यह औपनिवेशिक सोच और ज्यादा प्रभावी ढंग से नए रूप धरकर हमारे सामने खड़ी है। तिलक कदम कदम पर कांग्रेस में इसी गुलाम मानसिकता का सामना कर रहे थे। उन्होंने कांग्रेस की नरम दलीय कोटरी के मकड़जाल के विरूद्ध समान विचार वाले राष्‍ट्रीय नेताओं से संपर्क किया और फिर क्या था देश में अंग्रेजी राज के खिलाफ बगावत का बिगुल बज उठा।
जारी……..

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