Thursday, August 27, 2009

जसवंत सिंह! ये देश के साथ बौद्धिक गद्दारी है

जसवंत सिंह राजनीति में किस करवट बैठेंगे ये तो भविष्य ही बताएगा लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें निष्कासित कर खुद को एक बड़ी आपदा से बचा लिया। वास्तव में जिन्ना आधारित पुस्तक में जसवंत ने जिन्ना के पक्ष में जो प्रेमालाप किया है आगे चलकर उसके दुष्परिणाम देश और राष्ट्रवादी राजनीति को झेलने ही होंगे। पहले से ही संभ्रमों में उलझा हुआ भारतीय समाज अब और गहरे संभ्रमों का शिकार हो जाएगा।

जसवंत सिंह ने जिन्ना की प्रशंसा करने और देश के अन्य प्रमुख नेताओं की खाल उधेड़ने में पूरी चतुराई और मासूमियत का परिचय दिया है। भारत के विभाजन की बात करते करते कब वे देश विरोधी बातें करने लगते हैं यदि बारीकी से न पढ़ा जाय तो इसका पता भी नहीं चलता है। जाहिर है नई पीढ़ी के मन में उन्होंने अपने ही राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ घृणा का भाव भरने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

ऐसा नहीं है कि पूरी पुस्तक में जसवंत ने सब गलत ही गलत लिखा है। अधिकांशत: तो वे ऐसा बताते प्रतीत होते हैं कि वे अखण्ड भारत ke samarthak hain और विभाजन विरोधी लाइन पर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन अपने देशभक्तिपूर्ण लंबे-लंबे आख्यानों, उध्दरणों के बीच बीच वे जिस प्रकार से जिन्ना की प्रशंसा और हिंदू नेताओं की खामियों को गूंथते गए हैं, उसी से पता चलता है कि उनके मन की ग्रंथि कितनी भयावह है। जिन्ना प्रेम के अतिरेक की रौ में गांधी, नेहरू और सरदार पटेल समेत पूरी हिंदू नेतृत्व परंपरा को ही जसवंत ने विभाजन का दोषी ठहरा दिया है।

पुस्तक के द्वितीय अध्याय में जसवंत ने ये सिध्द करने का प्रयास किया है कि भारत की राजनीति में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता आया है। जिन्ना भी उसी दोयम दर्जे के व्यवहार के शिकार हुए और मुख्यधारा की राजनीति से अलग फेंक दिए गए। जसवंत के अनुसार,’ या तो नियति को कुछ और मंजूर था? या जिन्ना ही चतुराई नहीं दिखा सके? या और भी दु:खद रूप से कहा जाए तो क्या मुसलमान होना ही जिन्ना के लिए शुरू से नुकसानदेह साबित हुआ? राजनीतिक प्रभुता प्राप्त करने की निष्ठुर दौड़ में जिन्ना ताजिंदगी इस भारी विकलांगता को ढोते रहे।’

क्या जसवंत सिंह कहना चाह रहे हैं कि मुसलमान होना ही भारतीय राजनीति में जिन्ना का गुनाह हो गया? ये आरोप लगाकर जसवंत क्या सिध्द करना चाह रहे हैं? जरा सोचिए कि जिन्ना को राजनीति की डगर पर आगे लाने वाले कौन थे? लोकमान्य तिलक, दादा भाई नरौजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृश्ण गोखले, आखिर इसमें से कौन मुसलमान था? आगे चलकर भारतीय राजनीति में जो राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व आया जिसमें अबुल कलाम आजाद, जफर अली, हसरत मोहानी, शिबली नोमानी, हकीम अजमल खां, खां अब्दुल गफ्फार खां, डा. एम.ए. अन्सारी, रफी अहमद किदवई आदि के जीवन में क्या मुसलमान होना विकलांगता थी? जसवंत ने तो हिंदुओं किंवा भारतीयों की समग्र सहिष्णु परंपरा को यहां एक लाइन में दांव पर लगा दिया। वह परंपरा जिसने अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम स्वातंत्र्य समर में निर्विरोध बहादुर शाह जफर को अपना सम्राट घोषित कर दिया था।

धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर अपने विचार प्रकट करते हुए जसवंत सिंह अध्याय 5 में कहते हैं- ‘धर्म तो रिलिजन का सही अनुवाद बिल्कुल भी नहीं है। कुछ ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि जो धर्मनिरपेक्षतावाद पश्चिम से अब आया है वह तो एक जीवंत दार्शनिक परंपरा के रूप में भारत में बहुत पहले से ही मौजूद है। इस कई हजार साल पीछे लौटने में क्या यह भाव भी अन्तर्निहित नहीं है कि सांप्रदायिकता के लिए मुस्लिम समुदाय ही जिम्मेदार ठहराया जाता था और आज भी ठहराया जा रहा है?’

बहुत बारीकी से इसे देखें तो ध्यान में आएगा कि जसवंत वास्तव में क्या कह रहे हैं। उनके कहने का अभिप्राय यही है कि हिंदुओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता को अपनी जीवन पंरपरा से जोड़कर बताने का परिणाम ये है कि मुसलमान सांप्रदायिकता के लिए दोषी ठहरा दिए गए।

आगे बढ़ने के पूर्व पिछली कड़ी में उल्लिखित कुछ बातों का पुर्नस्मरण आवश्यक है। अपनी पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के अध्याय दो के पृष्ठ क्रमांक 102 पर जसवंत सिंह उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में गांधीजी को ‘रिलीजियसली प्राविन्सियल’ बताते हैं तो वहीं पर जिन्ना को ‘सैध्दांतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष एवं राष्‍ट्रवादी उत्साह से लबरेज राजनीतिज्ञ’ की संज्ञा देते हैं।

मैंने ‘रिलीजियसली प्रॉविन्सियल’ का अनुवाद ‘पांथिक या धार्मिक भाव-भावना से युक्त प्रांतीय’ स्तर के नेता के रूप में लिया है। वैसे शब्दकोश में ‘प्रॉविन्सियल’ के मायने ‘संकीर्ण’ और ‘गंवार’ भी है। जसवंत आखिर गांधी को क्या कहना चाहते हैं ये तो ठीक से वे खुद ही बता सकते हैं। मेरे इस कथन के पीछे का कारण भी वाजिब है। मेरे द्वारा लिखी जा रही जिन्ना सीरीज़ को पढ़कर एक सज्जन ने मुझसे कहा-आप तो जसवंत को गलत उध्दृत कर रहे हैं। मैंने कहा कि कहां गलत उध्दृत किया है, मुझे बताइए? तो उन्होंनें तुरंत बता दिया कि उनकी पुस्तक के हिंदी संस्करण में कहीं भी ये मुद्दा नहीं आया है कि गांधी 1920 के शुरूआती दौर में एक ‘प्रादेशिक भाव भावना’ वाले नेता थे। मैं चकरा गया और मैंने फिर अंग्रेजी संस्करण का वाक्य उन्हें पढ़कर सुनाया तो वे भी चकरा गए कि ‘रिलीजियसली प्रॉविन्सियल’ का अनुवाद हिंदी में गलत क्यों कर दिया गया है? हिंदी संस्करण में लिखा है-’ द्वितीय विश्वयुध्द के आते आते गांधी का दृष्टिकोण और नीति पूरी तरह बदल चुकी थी। इन दिनों गांधी के नेतृत्व में लगभग पूरी तरह एक ‘धार्मिक और सही रोल व स्थान को तलाशते चरित्र’ के दर्शन होते हैं वहीं दूसरी ओर जिन्ना निस्संदेह एक सैध्दांतिक पंथनिरपेक्ष व राष्ट्रवादी उत्साह से भरपूर राजनीतिज्ञ की तरह उतरते हैं।’ अब इस अनूदित हिंदी पैरे की अंग्रेजी जो निष्चित रूप से जसवंत सिंह ने लिखी है, उसे पढ़ा जाए- “In any event, Gandhi’s leadership at this time had almost an entirely religiously provincial character, Jinnah, on the other hand was then doubtless imbued by a non sectarian, nationalistic zeal.” (p.102)

अब पाठकगण ही तय करें कि उपरोक्त अंग्रेजी वाक्य का सही अनुवाद क्या होगा? मुझे जो सही लगा और जो सही है उसे मैंने अंग्रेजी संस्करण से अपनी भाषा में अनूदित कर लिया लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अधिकृत हिंदी संस्करण में क्या लिखा है उस पर मैं क्या टिप्पणी कर सकता हूं। जब ये गलती ध्यान में आई तो मैं अंग्रेजी संस्करण लगभग पूरा पढ़ चुका था और दूसरी किश्त वेब पर पोस्ट हो चुकी थी। लेकिन बाद में मैंने पुस्तक के हिंदी संस्करण को जब ध्यान से पढ़ना शुरू किया तो ध्यान में आया कि इसमें तो गजब गड़बड़-झाला किया गया है, अनेक स्थानों पर वाक्य भ्रम भी पैदा करते हैं। अतएव हिंदी संस्करण के पाठकों को बहुत ही सावधानी से पुस्तक पढ़नी चाहिए। जसवंत सिंह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सम्बंधी जो लघु टिप्पणी अंग्रेजी पुस्तक में लिखी है वह तो पूरी की पूरी ही हिंदी संस्करण से गायब कर दी गई है। आखिर ये क्यों किया गया, उस पर बाद में प्रकाश डालेंगे।

पुन: जसवंत सिंह लिखते हैं कि ‘मुंबई में आयोजित स्वागत समारोह में जिन्ना ने जहां गांधी की पुरजोर प्रशंसा की वहीं गांधी की प्रतिक्रिया अपमानजनक और हतोत्साहित करने वाली थी।’

जसवंत सिंह जिन्ना की प्रशंसा और गांधीजी की आलोचना का कोई मौका चूकते हुए दिखाई नहीं देते। एक कुशल क्रिकेट कमेंटेटर की भांति लेखकीय निष्पक्षता दरकिनार करते हुए जिन्ना के पक्ष में और राष्‍ट्रीय नेताओं के खिलाफ कमेंट्री की है।
जसवंत सिंह को 1920 के दशक में जिन्ना की मुस्लिम लीग में सक्रियता दिखाई नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि जिन्ना अनौपचारिक रूप से सन् 1911 में और औपचारिक रूप में 1913 में मुस्लिम लीग के विधिवत सदस्य हो गए थे। पाठकगण ध्यान रखें कि इस अवधि में भारतीय राजनीति में गांधी, नेहरू और पटेल कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति की कमान गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता जैसे उदारपंथियों के हाथ में है जबकि पूर्ण स्वराज्य के प्रखर समर्थक लोकमान्य तिलक 1908 से 1914 तक माण्डले जेल के कैदी के रूप में जीवनयापन कर रहे हैं।

ये उदारपंथी नेता जिनकी करनी के बारे में तिलक सीरीज में हमने काफी कुछ लिखा था, आखिर उस कालखण्ड में कर क्या रहे थे? कहना गलत न होगा कि वे दिन में संवैधानिक सुधार पर संगोश्ठी करते थे तो रात में अंग्रेज अफसरों की दावतें काटते थे। औपनिवेशिक आजादी के सवाल पर मंथन चलता था और उसी में कुछ प्रगतिशील जिन्ना पंथी नेता कम वकील भी शामिल रहते थे। घुमा-फिराकर अंग्रेज इसी सवाल को उठाते थे कि हम भारत को औपनिवेशिक आजादी दे देंगे, डोमिनियन स्टेटस दे देंगे लेकिन भारत के नेताओं को इसमें अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी के संदर्भ में पहले स्पष्ट निर्णय कर लेना चाहिए।

पूर्ण स्वराज्य का सवाल तो बहुत बाद में आता है। लोकमान्य तिलक का हश्र देखकर भी भारतीय नेता ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे।

दरअसल हकीकत तो ये थी कि उस समय अंग्रेजों से प्रेमपींगे बढ़ाने के प्रयास अक्सर हिंदुस्तान के संभ्रांत वर्ग में चला करते थे। अंग्रेजों से सम्बंध और अंग्रेजी में महारत ये दो ऐसे गुण थे जिससे किसी बैरिस्टर की बैरिस्टरी हिंदुस्तान क्या दूर सागर पार लंदन में भी चल निकलती थी। अंग्रेजों से सम्बंध के लिए जरूरी था कि कांग्रेस या फिर किसी ऐसे संगठन का कमान अपने हाथ में ले ली जाए ताकि अपना प्रभाव बना रहे और वकालत भी हाथ की हाथ चमकती रहे।

लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस में इसी का विरोध प्रारंभ किया था, परिणामत: उनकी नरमपंथियों से ठन गई। बंग-भंग में लाल-बाल-पाल ने जो जनज्वार देश में खड़ा किया उसके परिणाम स्वरूप नरमपंथी भी संशकित हुए और अंग्रेज सरकार भी। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने तभी ढाका में मुर्स्लिम लीग की नींव रखवा दी थी क्योंकि वो जानते थे कि भारतीय मानस धर्म-जाति की दीवारें तोड़कर उनके खिलाफ एकजुट हो रहा है। इस एकजुटता को तोड़ने के लिए देश में ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ का झूठा हौव्वा खड़ा किया गया। अंग्रेजों ने अल्पसंख्यकवाद और उससे जुड़ी विभाजनकारी प्रवृत्तियों को मुस्लिम लीग के माध्यम से देश में गहरे स्थापित कर देने का अभियान शुरू किया। राष्ट्रवादियों के प्रबल प्रताप से ‘बंग-भंग’ तो मिट गया लेकिन ‘भारत-भंग’ की योजना पर चोट खाए ‘लंदन’ ने काम शुरू कर दिया। और इसी योजना को पूर्ण करने के काम में ‘विभीषण’ बने थे मोहम्मद अली जिन्ना।

मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राजनीति के प्रारंभ से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अपने साथियों के साथ माथापच्ची में लगे थे कि इस कथित औपनिवेशिक आजादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी क्या होगी? इस एक सवाल के अतिरिक्त कौन सा मुद्दा है जिसे जिन्ना ने अपने उस समय के राजनीतिक जीवन में स्पर्श किया? आप कलम चाहे कितनी ही क्यों ने घिस लें आप एक प्रमाण नहीं दे सकते कि जिन्ना ने बंग-भंग के ‘वातानुकूलित विरोध’ के अतिरिक्त 1901 से लेकर 1920 तक एक भी ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया हो या फिर किसी आंदोलन का श्रीगणेश किया हो? जिस लखनऊ समझौते के लिए जिन्ना की प्रशंसा की गई है, प्रकारांतर से देखें तो वह भी देश में मुस्लिमों के तुश्टीकरण का एक अप्रत्यक्ष प्रयास था जिसमें मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस से सौदेबाजी कर ये तय कराया कि विधायिका और कार्यपालिका में दो तिहाई सदस्य हिंदू और एक तिहाई सदस्य मुसलमान रहेंगे। इसी के साथ इस बात पर भी सैध्दांतिक सहमति बना ली गई कि मुसमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल गठित किये जाएंगे।

जसवंत सिंह ने पुस्तक में ‘डोमिनियन स्टेटस’ और ‘पूर्ण स्वराज्य’ की भी गजब परिभाषा दी है। अध्याय 4 में वे लिखते हैं कि ‘गांधी और नेहरू में ‘डोमिनियन स्टेटस’ और ‘पूर्ण स्वराज्य’ के सवाल पर तीखे मतभेद खड़े हो गए। गांधी जहां ‘डोमिनियन स्टेटस’ की वकालत कर रहे थे वहीं नेहरू ‘पूर्ण स्वराज्य’ की। ये विवाद 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में सामने आया और….इसको लेकर दो साल तक दोनों में मतभिन्नता बनी रही। सन् 1929 में जब नेहरू लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष बने तब जाकर ये विवाद सुलझा और कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य को अपना राजनीतिक लक्ष्य तय कर लिया।’

पुन: आगे बिना किसी उध्दरण के जसवंत सिंह अपनी बेबाक राय रखते हैं-भले ही दोनों नेताओं का लक्ष्य आजादी ही पाना था लेकिन दोनों अलग-अलग तरह की उम्मीद जगाते थे और उनकी प्रतिबध्दताएं भिन्न थीं। डोमिनियन दर्जे का मतलब था कि ब्रिटिश ताज के साथ जुड़े रहना, राजशाही से जुड़ी तमाम संस्थाओं में शामिल रहना…डोमिनियन दर्जे का एक मतलब यह भी था कि भारत में सत्ता हस्तांतरण किस तरह और किन शर्तों पर होगा इसको लेकर भी मोलभाव होगा। ब्रिटिश सरकार इस बात पर जोर देती थी कि अल्पसंख्यकों के अधिकार सुनिष्चित किए जाएं और उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो…। दूसरी ओर पूर्ण स्वराज का मतलब था कि ब्रिटिश राजशाही का विरोध, एकल राष्ट्रवाद…राजनीतिक तौर पर उठा-पटक…जो आगे चलकर गठित होने वाली सरकार की बागडोर राष्ट्रवादी लोगों के हाथ में सौंप देती। पूर्ण स्वराज का मतलब यह भी था कि नयी बनने वाली सरकार में अल्पसंख्यकों की सत्ता में भागीदारी की उम्मीद नहीं होगी।’

तालियां! तालियां! वाह क्या थ्यौरी प्रतिपादित की है जसवंत सिंह ने। चूंकि यहां उन्होंने किसी को उध्दृत नहीं किया है इसलिए कहा जा सकता है कि ये उनके अपने विचार हैं। अक्सर आजकल क्या होता है कि लोग विवाद से बचने के लिए अपने मनमाफिक बात कहने के लिए किसी दूसरे का उध्दरण उठा लेते हैं, अपनी बात भी कह देते हैं और किसी विवाद से बचने की पूरी संभावना बनाए रखते हैं कि ये तो फलां ने कहा था, मैंने तो सिर्फ उन्हें उध्दृत किया है। लेकिन यहां जसवंत ने किसी को उध्दृत नहीं किया है। डॉमिनियन स्टेटस और पूर्ण स्वराज्य के सम्बंध में ये संभ्रम भी उन्हीं अंग्रेजों और तिलक विरोधी खेमे की देन थी जिन्होंने डॉमिनियन स्टेटस का विरोध करने और पूर्ण स्वराज का पक्ष लेने के लिए तिलक को राजद्रोह के मुकदमें में जेल भेजवाया था।

जसवंत सिंह ने पूर्ण स्वराज को परिभाषित कर जाहिर कर दिया कि उन्हें भारत की महान विरासत के प्रति कितना गहन ज्ञान है? उन्होंने अपनी परिभाषा में अंग्रेजों के इस मत की पुष्टि भी कर दी कि अगर पूर्ण स्वराज्य दे दिया जाता जैसा कि तिलक मांग रहे थे तो देश में हिंदू राज आ जाता और अल्पसंख्यकों अर्थात मुसलमानों की नींद हराम हो जाती।
आखिर किस आधार पर जसवंत कह रहे हैं कि पूर्ण स्वराज का मतलब ये है कि अल्पसंख्यक सत्ता से बेदखल कर दिए जाएंगे। अरे! ये तो अंग्रेजों की गढ़ा हुआ तर्क था जिसे देश की आजादी को दो संप्रदायों की लड़ाई में उलझाने के लिए परवान चढ़ाया गया। जिसके आधार पर गांधी, नेहरू, पटेल सहित समूची कांग्रेस को जिन्ना और उनके अनुयायियों ने हिंदू पार्टी और सांप्रदायिक घोषित कर दिया। आखिर जसवंत सिंह जैसे एक राजनीतिज्ञ को ये समझने में भूल कैसे हो सकती है कि अल्पसंख्यक शब्द का वजूद भी हिंदुस्तान की राजनीति में 1857 तक नहीं था। सन् 57 की क्रांति की असफलता के बाद अचानक भारत में अल्पसंख्यक अवधारणा कहां से आ गई? इसे लाने वाले कौन थे? किसने इसे भारत में सींचने का काम किया? और इसके पीछे की उनकी सोच क्या थी?

आखिर देश के मुसलमानों को ये समझने और समझाने में क्या दिक्कत हो सकती थी कि जिस देश पर गोरी, गजनवी, खिलजी, गुलाम, तुर्क, अफगान और मुगलिया सल्तनत समेत अनेक वंशों ने शताब्दियों तक राज किया उसे कुछ समय तक हिंदू राज के केंद्र के अन्तर्गत क्यों नहीं लाया जा सकता? आखिर हिंदू इस देश में राजा क्यों नहीं बन सकता? ये देखने की चीज होती और निष्चित रूप से दुनिया देखती कि जो हिंदुस्तान सदियों तक इस्लामी हुकूमत में रहा, जहां कुछ सैकड़ा साल अंग्रेजी शासन रहा वहां हिंदू किस प्रकार से सभी को साथ लेकर शासन चला पाते हैं? शायद अगर इस तर्क को जिन्ना जैसे लोग बहस का मुद्दा बनाते तो भारत राष्ट्र का भवितव्य कुछ और होता।

नियति ने वास्तव में जो सपना इस महान भूमि के लिए निर्धारित किया है और जिसे पाना ही इस धरती का महान भविश्य भी है उसी के साक्षात्कार के लिए गांधी ने रामराज्य का प्रेरक मंत्र देश को दिया था। दुर्भाग्य कि जिन्ना जैसों की मानसिकता को समझने में गांधी-नेहरू ने देर कर दी। कांग्रेस अहिंसा की माला जन- जन के गले में उतार रही थी उधर जिन्ना लाखों लोगों का खूं पीकर सत्ता पाने के लिए मतवाला हो चला था। वह तो सर्वधर्म समभाव को लेकर चल रहे हिंदू नेतृत्व के बारे में प्रतिहिंसा की भयानक आग दिल में बिठाए मानो दशकों से धधक रहा था।

प्रख्यात मुस्लिम विचारक, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रफीक जकारिया अपनी सुप्रसिध्द पुस्तक ‘इंडियन मुस्लिम्स: व्हीअर दे हैव गोन राँग’ में ‘जिन्ना की जिद’ नामक अध्याय में लिखते हैं-’मुझे हमेशा ये संदेह रहा कि जिन्ना कांग्रेस के साथ किसी समझौते पर कभी राजी नहीं होगा। उसकी प्रवृत्ति प्रतिहिंसा प्रधान है। भारतीय राजनीति में लंबे समय तक दरकिनार रखे जाने के खिलाफ वह गांधीजी को पाठ पढ़ाना चाहता है।…देश के दो टुकड़े करो और मुझे मेरा पाकिस्तान दे दो, यही उसका प्रिय गीत है। मेरी तो कांग्रेस से यही विनती है कि गृहयुध्द हो जाने दो मगर इस आदमी के हाथों में देश गिरवी मत रखो। एक मुसलमान के नाते मैं मानता हूं कि उसने मुसलमानों का भविष्य तबाह किया। उसके नेतृत्व में फासीवाद झलकता है जिससे हर कीमत पर लड़ा जाना चाहिए।

जसवंत सिंह को ये दिखाई नहीं देता कि जिन्ना के समकालीनों ने उसके बारे में क्या विचार प्रकट किए हैं। खुद जिन्ना ने किस संदर्भ में क्या बात कही है। बैसिरपैर की बातें, ‘कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा-भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ को चरितार्थ करते हुए जसवंत सिंह ने उध्दरणों का अनर्थकारी इस्तेमाल किया है। उदाहरण के लिए-पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त, 1947 को जो कथित सेकुलर भाषण जिन्ना ने दिया उसकी असलियत सुविज्ञ को पाठकों को पिछली कड़ी में पता लग चुकी है। एक अन्य उध्दरण जो गांधीजी की ओर से जसवंत सिंह ने पुस्तक के अध्याय 11 में उध्दृत किया है जरा उसकी सच्चाई भी देखते हैं-’जिन्ना ने घोषणा की कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों से, यदि संभव हुआ तो, मुसलमानों से भी बेहतर तरीके से पेश आया जाएगा। कोई भी कम हक वाला या अधिक हक वाला प्रतियोगी नहीं होगा।’ जसवंत सिंह ने धीरे से ये बात गांधीजी के हवाले से पुस्तक में प्रविष्ट करा दी। वे चाहते तो इसे जिन्ना के हवाले से भी उध्दृत कर सकते थे लेकिन ऐसा करने में उन्हें जरूर उस खतरे का भान रहा होगा जो उनकी सारी जिन्ना थीसिस को ही सिर के बल खड़ा कर देने में अकेले सक्षम है।

पाठक मित्रों! जिन्ना का ये वक्तव्य जो भी पढ़ेगा क्या उसके मन में जिन्ना के प्रति प्यार नहीं उमड़ेगा। लेकिन आप अब इसकी असलियत भी देख लीजिए। ये वक्तव्य जिन्ना ने कब दिया? ये वक्तव्य तब आया जब जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग, उसके अन्तर्गत गठित नेशनल गार्डस के हथियारबंद दस्ते ‘सीधी कार्रवाई’ के नाम पर 16 अगस्त, 1946 से रक्तपात का दौर शुरू कर चुके थे। कोलकाता, नोआखली चारों ओर लीगी गुण्डों ने ऐसा जलजला पैदा किया कि मानवता तक शर्मा गई। क्यों किया ऐसा जिन्ना ने? क्योंकि उसे हर कीमत पर पाकिस्तान चाहिए था? लेकिन जैसा कि हर क्रिया के विरूध्द प्रतिक्रिया होती ही है, लीगी गुण्डों के इस बर्ताव ने समूचे हिंदू जनमानस में तीव्र क्षोभ पैदा कर दिया। प्रतिक्रिया में उत्तर प्रदेश और बिहार में हिंदुओं ने लीगी मुसलमानों से मोर्चा ले लिया। और तब जो आग भड़की उससे जिन्ना और उनकी पूरी लीगी मंडली के होश फाख्ता हो गए।

लीग की सीधी कार्रवाई की प्रतिक्रिया में जो दंगे भड़के उस पर ब्रिटिश लेखक सर फ्रांसिस टकर अपनी पुस्तक व्हाइल मेमोरी सर्वस् में लिखते हैं-’1946 के दंगों में बिहार का दंगा सबसे ज्यादा भयावह सिध्द हुआ। लगभग 8 हजार मुसलमान मौत के घाट उतार दिए गए। मुस्लिम लीग ने जो रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को सौंपी उसमें मृतकों की संख्या 20,000 से 30,000 तक बताई गई। यद्यपि ये संख्या बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की गई लेकिन इसके बावजूद जो नरसंहार हुआ उसकी मिसाल मिलना कठिन है।’ और ये मारकाट केवल बिहार तक ही सीमित नहीं थी, इसकी उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत समूचे देश में फैल रही थीं।

लीग को अपने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का परिणाम भीषण हिंदू प्रतिक्रिया के रूप में मिलना शुरू हो चुका था। दंगे रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। शुरू में लीगी मुसलमान मार-काट में आगे थे लेकिन आगे चलकर उनकी हालत खराब हो गई। इस विकट परिस्थिति में मोहम्मद अली जिन्ना को दिन में तारे दिखने लगे। तब उन्होंने 11 नवंबर, 1946 को देश के नाम अपील जारी की और हिंदुओं से प्रार्थना की कि वे ये भयानक मार-काट बंद कर दें।

जिन्ना ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘ये गलत बयानी की जा रही है कि जो मार-काट मची है उसके लिए लीग जिम्मेदार है। मुस्लिम लीग पर लगाए जा रहे बर्बर और गलत आरोपों का कोई आधार नहीं है। लेकिन ये समय इस पर बहस का नहीं है कि कौन गलत है और कौन सही। मैं जानता हूं कि मुसलमान भारी कष्ट और विपदा में हैं। लेकिन बिहार की हिंसा तो मुसलमानों पर ग्रहण बनकर टूटी है। मैं हिंसा की घोर निंदा करता हूं चाहे वह किसी रूप में क्यों न की जाए। बिहार की हिंसा के समान मुसलमानों के संहार का दूसरा उदाहरण नहीं है जो बहुसंख्यक हिंदुओं ने अल्पसंख्यक मुसलमानों पर ढाया है।

…अगर हम पाकिस्तान चाहते हैं तो मुसलमानों को बिहार जैसी किसी भी हिंसक प्रतिहिंसा से दूर रहना चाहिए। यद्यपि हमारे ह्दय लहूलुहान हैं तो भी जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहां उन्हें निर्दोषों के कायरतापूर्ण नरसंहार से अपने को अलग रखना होगा।

अगर हम अपना संतुलन और धैर्य खो देंगे… तो न सिर्फ पाकिस्तान हमारे हाथ से निकल जाएगा वरन् रक्तपात और क्रूरता का ऐसा दुश्चक्र प्रारंभ हो जाएगा जो मुसलमानों की आजादी को न सिर्फ अवरूध्द करेगा वरन् हमारी दासता और बंधनों को और लंबे काल तक के लिए आगे धकेल देगा।

हमें राजनीतिक रूप से ये सिध्द करना है कि हम बहादुर हैं, उदार हैं, विश्वसनीय हैं… कि हमारे पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को उनके जान-माल और इज्जत की सुरक्षा की पूरी गारंटी होगी जैसे कि मुसलमानों के लिए- नहीं, नहीं मुसलमानों से भी ज्यादा सुरक्षा बख्शी जाएगी।…इसलिए मेरी मुसलमानों से अपील है कि वे जहां जहां बहुमत में हैं वहां वहां अल्पसंख्यक गैर मुस्लिमों की हिफाजत का पूरा प्रबंध करें।…

अंत में जिन्ना कहते हैं- मुसलमानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। ये बलिदान पाकिस्तान के हमारे दावे को और मजबूती देगा।

तो ये है सच्चाई जसवंत सिंह जी। जब जिन्ना की जान पर बन आई तो उसे प्रेम संदेश गुनगुनाने में दो मिनट नहीं लगे। समूची पुस्तक में जसवंत सिंह ने संदर्भों के साथ इसी तरह मनमाने ढंग से खिलवाड़ किया है। ऐसा लगता है कि उन्होंने जिन्ना के पापों को धो डालने का बीड़ा उठा रखा है। लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि ना तो वे जिन्ना के पाप पक्ष का प्रक्षालन कर सकते हैं और ना ही उसके कुकर्मों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोड़ सकते हैं। इतिहास उन्हें इसकी इजाजत कदापि नहीं देगा। वास्तव में तो इतिहास को तथ्यपरक दृष्टि से परखकर उसके परिणामों पर गौर किया जाना चाहिए और तब तय करना चाहिए कि कौन गलत है और कौन सही है।
इसके पहले जब जिन्ना ने सीधी कार्रवाई का ऐलान किया तो तमाम हिंदू नेता उसके पैरों पर गिड़गिड़ा रहे थे कि वह हिंसा और रक्तपात को रोकने के लिए आगे आए। लेकिन जिन्ना ने एक न सुनी। मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई सम्बंधी जो प्रस्ताव 29 जुलाई, 1946 को जारी किया उस पर भी एक नजर डालना लाजिमी होगा-

‘जैसा कि मुस्लिम भारत अपनी मांगों के संदर्भ में सभी सुलह-वार्ताओं, संवैधानिक व शांतिपूर्ण तरीकों की असफलता से थक चला है…

जैसा कि कांग्रेस भारत में हिंदूराज स्थापित करने में जुटी है और इस कार्य में उसे ब्रिटिश सरकार का समर्थन हासिल है, और…

जैसा कि भारत के मुसलमान एक पूर्ण संप्रभुता सम्पन्न पाकिस्तान की प्राप्ति और तत्काल स्थापना से कमतर किसी चीज़ पर संतोश नहीं करेंगे।

अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की यह परिशद मानती है कि मुस्लिम राष्ट्र के समक्ष अब पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसी रास्ते से हमें ब्रिटिश गुलामी और हिंदुओं के वर्चस्व से मुक्ति मिल सकती है। इसी से हमारा सम्मान और हमारे अधिकार हमें प्राप्त होंगे।

परिषद मुस्लिम राश्ट्र का आह्वान करती है कि वे सभी अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के झण्डे के नीचे खड़े हों और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहें।

परिषद कार्यकारी समिति को निर्देशित करती है कि वह ‘सीधी कार्रवाई’ का सारा कार्यक्रम तैयार करे और भविष्य के संघर्ष के लिए जहां जैसी जरूरत हो वहां मुसलमानों को संगठित करे। परिषद मुसलमानों का आह्वान करती है कि वह इस सरकार के सभी तमगे और सम्मान उन्हें वापस कर दे।’

डायरेक्ट एक्शन को परिभाषित करते हुए मुस्लिम लीग के सचिव लियाकत अली खां ने सार्वजनिक वक्तव्य दिया कि ‘यदि हमें आजादी तलवार के बल पर ही लेनी है तो हिंदुओं को ध्यान रखना चाहिए कि ये हमारे अतीत को देखते हुए कहीं ज्यादा सस्ता सौदा है।’

जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन को गोल-मोल परिभाषित करते हुए तब अखबारों में जो वक्तव्य दिया था, उस पर भी गौर करना जरूरी है। जिन्ना कहते हैं-’हमने सर्वाधिक एतिहासिक महत्व का निर्णय लिया है। मुस्लिम लीग अब तक केवल संवैधानिक उपायों की बात करती रही है।…लेकिन आज हमने सभी संवैधानिक उपायों को तिलांजलि दे दी है। ब्रिटिश सरकार और हिंदुओं के साथ हमने मोल-तोल बहुत किया लेकिन हमारी वार्ता का कोई परिणाम सामने नहीं आया। वे हमारे सामने पिस्तौल ताने रहे। एक के हाथ में राज्यशक्ति और मशीनगनें थीं तो दूसरे के हाथ में असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन का डण्डा। इसका तो कुछ उत्तर हमें देना ही होगा। हम बताना चाहते हैं कि हमारी जेबों में भी पिस्तौल है।’

संवाददाताओं ने जब जिन्ना से संवैधानिक उपायों को तिलांजलि देने के संदर्भ में पूछा कि क्या वे हिंसा का रास्ता आख्तियार करने जा रहे हैं, जिन्ना ने पलट जवाब दिया- हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में वे किसी नैतिक सूक्ष्म भेदों में उलझना नहीं चाहते।

मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त को सीधी कार्रवाई शुरू करने का दिन घोशित किया। लीग के अधीन सिंध और बंगाल सरकार ने 16 अगस्त को सार्वजनिक छुट्टी का दिन घोशित कर दिया। बंगाल के मुख्यमंत्री एच.एस. सुहरावर्दी ने धमकी भरे स्वर में कहा कि यदि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता सौंपी गई तो हम बंगाल को स्वतंत्र देश घोशित कर देंगे।

डायरेक्ट एक्शन डे की इस घोषणा ने समूची कांग्रेस का सकते में डाल दिया। लीग ने किसी भी बातचीत से इंकार कर दिया और फिर जो हुआ उसने मानवता के मुंह पर भयानक कालिख पोत दी।

कोलकाता में 16 अगस्त की सवेरे मुस्लिम लीग के नेतृत्व में जो भयानक विशाल जुलूस निकला, उसमें नारे लगने लगे-’लड़कर लेंगे हिंदुस्तान।’ सार्वजनिक सभा में खुले आम हिंदुओं के विनाश की शपथ ली जाने लगी। और जैसे ही सभा समाप्त हुई, मानो पूरे कलकत्ते मे जलजला आ गया। हत्या, आगजनी और महिलाओं से बलात्कार, लूटपाट को सुहरावर्दी सरकार के संरक्षण में अंजाम दिया गया। मुख्यमंत्री सुहरावर्दी पुलिस नियंत्रण कक्ष से स्वयं दंगों के संचालन में जुटे थे। अंग्रेज गवर्नर एफ बरोज को मानो तो सांप सूंघ गया था। निरपराध हिंदुओं के करूण क्रंदन का किसी पर कोई असर नहीं था। कोलकाता की सड़कों पर पुरूष-महिलाओं और बच्चों की लाशें ही लाशें बिछ गईं। हिंदू दो दिनों तक दानवता के साये में लुटने-पिटने को मजबूर थे। लेकिन इसके बाद जो हुआ उसने मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार को भी दिखा दिया कि शंकर की तीसरी आंख खुलने का नतीजा क्या होता है?

वस्तुत: इतिहास के पन्ने पलटो तो उसमें से अनेक घाव स्वत: ही रिसने लगते हैं। समझदारी इसी बात में है कि इन घावों पर मरहम लगाने का काम किया जाए न कि इन घावों को फिर से उधेड़ उधेड़ कर देखा जाए कि ये ठीक हो रहा है या नहीं? जसवंत सिंह ने जो कार्य किया है वह घावों को कुरेदने के सिवाय कुछ नहीं है।

-राकेश उपाध्याय

जारी….

1 comment:

  1. लोग इतने नादान नहीं हैं कि जशवंतसिंह द्वारा पढ़ाये गये उल्टे इतिहास को न समझें.उन्हें निशाने पाकिस्तान मिलना तय. किताब भी धड़ल्ले से बिकेगी.
    कांग्रेस की ख़ामोशी मौकापरस्ती ही कही जा सकती है. गाँधी,नेहरू,पटेल से उन्हें क्या लेना. उनकी गिद्द दृष्टि कहीं और है फिर जिन्ना साहब की शान के बरखिलाफ कहने से उनकी बोट बेंक को ख़तरा हो सकता है.
    आप ने कई सत्यों से अवगत कराया.धन्यवाद

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