Sunday, August 23, 2009

जसवंत की पुस्तक इतिहास लेखन के साथ खिलवाड़

जसवंत सिंह की पुस्तक जिन्ना - इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस जिस दिन रिलीज़ हुई, नेहरू ऑडिटोरियम, दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में मैं उपस्थित था, उसके एक दिन पूर्व ही जिन्ना सीरीज़ लिखनी शुरू की थी, अब चूँकि पुस्तक पुरी पढ़ चुका हूँ और जसवंत सिंह के द्वारा उल्लिखित कुछ तथ्यों की छानबीन भी पूरी शिद्दत से कर रहा हूँ इसलिए ये कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है की जसवंत का जिन्ना प्रेम पूरे तौर पर इतिहास का साथी आकलन है, तथ्यों के साथ एकतरफा खिलवाड़ है। प्रस्तुत है प्रिय पाठकों के अवलोकनार्थ दूसरी किश्त जो जसवंत की पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण को पढने के बाद लिखी गई है.

जिन्ना सीरीज़- दूसरा भाग

जसवंत सिंह अब भारतीय जनता पार्टी में नहीं हैं। उनके जिन्ना प्रेम ने अंतत: उन्हें अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दौर में लाकर खड़ा कर दिया।

जिन्ना के प्रति उनकी भक्ति कैसे जगी इसे वो खुद ही कई मर्तबा बयान कर चुके थे। 2005 में ‘लालजी’ के साथ जिन्ना प्रकरण को लेकर पार्टी ने जो व्यवहार किया था उससे जसवंत सिंह को बहुत ही धक्का पहुंचा था। तभी उन्होंने तय कर लिया कि वो जिन्ना के बारे में विस्तार से सच्चाई को सामने लाने का काम करेंगे।

अब जबकि जिन्ना के जिन्न ने उनकी बलि ले ली है और उनके प्रिय नेता ‘लालजी’ ने भी उन्हें गलत ठहरा दिया है तो उनके सब्र का बांध टूट चला है। उन्होंने भी पलटवार करते हुए यह कहने में संकोच नहीं किया कि लालजी के संकट के समय तो मैं उनके साथ खड़ा था लेकिन जब मुझ पर संकट आया तो वह किनारे खड़े हो लिए।

‘लालजी’ यानी लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने जून, 2005 में पाकिस्तान में जिन्ना के बारे में यह कहकर भारतीय राष्ट्रवादी जगत में हलचल मचा दी थी कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे, वे इतिहास निर्माता थे। अपनी बात को सच सिध्द करने के लिए आडवाणी जी ने तब पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त, 2005 को जिन्ना द्वारा दिए गए भाषण का हवाला दिया था।

जैसा कि जिन्ना सीरीज की पहली कड़ी में हमने स्पष्ट किया था कि जिन्ना द्वारा संविधान सभा में दिए गए इस भाषण को बाद में जिन्ना ने खुद ही वापस ले लिया था। इस संदर्भ में प्रख्यात पत्रकार बीजी वर्गीज के वक्तव्य को उध्दृत किया गया था जो वर्गीज ने जिन्ना पर जसवंत सिंह की पुस्तक के लोकार्पण समारोह से बाहर आते ही हिंदुस्थान समाचार के संवाददाता को अनौपचारिक बातचीत में बता दिया था। चूंकि ये वर्गीज ही थे जिन्होंने जिन्ना पर पुस्तक लोकार्पण के दौरान ही अनेक सवाल खड़े कर दिए थे। वे समारोह में उपस्थित आधा दर्जन से अधिक वक्ताओं में अकेले ऐसे वक्ता थे जिन्होंने सीधी कार्रवाई सहित अनेक सवालों को लेकर जिन्ना के सेकुलरिज्म पर सीधी चोट की थी ।

इस्लामिक गणराज्य के समर्थक थे जिन्ना

वस्तुत: जिन्ना ने संविधान सभा में दिए गए अपने कथित सेकुलर भाषण के थोड़े दिनों पूर्व 9 जून, 1947 को आयोजित मुस्लिम लीग की बैठक में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बनेगा। मुस्लिम लीग के समूचे पाकिस्तान आंदोलन की बुनियाद ही इस्लामिक राज्य पर आधारित थी।

चूंकि संविधान सभा में जिन्ना द्वारा दिया गया भाषण अप्रत्याशित था इसलिए बैठक में हलचल मच गई। जिन्ना का भाषण समाप्त होते ही प्रधानमंत्री लियाकत अली खां ने राष्ट्रीय ध्वज का सवाल खड़ा कर मामले को किनारे लगाने का सफल प्रयास किया। अगले दिन पाकिस्तान के सभी प्रमुख अखबारों में ये खबर नदारद थी कि कायदे आजम ने अपने भाषण में पाकिस्तान को सेकुलर स्टेट बनाने की बात कही है। जाहिर है जो भाषण बाद में प्रेस को जारी किया गया उसमें से आधिकारिक रूप से वो सारी लाइनें हटा दी गईं जिनका जिक्र कर भारत में जिन्ना को सेकुलर बताने का काम शुरू किया गया है।

जिन्ना ने संविधान सभा में दिए गए अपने कथित सेकुलर भाषण के थोड़े दिनों पूर्व 9 जून, 1947 को आयोजित मुस्लिम लीग की बैठक में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बनेगा।

भारत विभाजन पर लिखी गई ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ नामक सुप्रसिध्द पुस्तक में इस बात को विद्वान लेखक कॉलिन्स और डोमिनिक लैपियर ने भी स्वीकार किया है संविधान सभा में जिन्ना का भाषण अप्रत्याशित और चौंकाने वाला था। ये उनके अब तक के स्टैण्ड से विपरीत बात थी। जिन्ना की जीवनी पर काम करने वाले अनेक लेखकों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बाद में जिन्ना की सहमति से आधिकारिक रूप से भाषण को संशोधित कर दिया गया।

सवाल उठता है कि जिन्ना ने संविधान सभा के सम्मुख इस प्रकार की नितांत भिन्न भाषा में बात क्यों की जिसे उस समय के हालात में कोई भी समझदार पाकिस्तानी मुसलमान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। तत्कालीन पाकिस्तान सरकार तो कतई इस मूड में नहीं थी। वस्तुत: इसके उत्तर में उस सत्ता संघर्ष के बीज छुपे हुए थे जिससे पाकिस्तान आज भी जूझ रहा है।

खैर, संविधान सभा की बैठक में हुए इस भाषण को लेखन की चूक ठहराकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया। 18 अगस्त, 1947 को अपनी चूक को दुरूस्त करते हुए जिन्ना ने अपने ईद संदेश में कहा कि ‘केवल पाकिस्तान ही नहीं इस उपमहाद्वीप के समस्त मुसलमानों की चिंता का दायित्व भी हमारा ऊपर आन पड़ा है।’
पुन: दिसंबर, 1947 में कराची में मुस्लिम लीग की परिषद् की बैठक में जिन्ना ने कहा-’भारत में जो मुसलमान रह गए हैं उनके हितों की चिंता मुझे सताने लगी है। इस उद्देश्य के लिए फौरी तौर पर हमें मुस्लिम लीग की इकाई को भारत में बनाए रखना चाहिए।…ऐसा देखने में आ रहा है कि भारत में मुसलमानों की पहचान खत्म करने में कुछ लोग जुट गए हैं, हमें ये हरगिज नहीं होने देना है और यदि आवश्यकता पड़ी और लीग की ओर से मुझे अनुमति दे दी जाए तो मैं भारत के मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए भारत में जाकर फिर से रहने को तैयार हूं।’

jaswant सिंह से मैं गुजारिश करूँगा की वह चाहें तो अपने पाकिस्तान के मित्रों के मध्यम से उपरोक्त तथ्यों के बारे में असलियत का पता लगा लें।

जिन्ना के मन में हिंदुओं के प्रति कितनी भयानक घृणा ने घर कर लिया था इसे समझने केलिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि उसने अपने हिंदू अतीत को स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया। जसवंत सिंह तो अपनी पुस्तक में लिखा है कि गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र ने इतिहास की दो महान हस्तियों का उदय एक साथ देखा-एक थे गांधी तो दूसरे थे मोहम्मद अली जिन्ना। लेकिन इस सच के विपरीत पाकिस्तान में जिन्ना को ईरानी मूल का कहने वालों की जमात भी पैदा हो गई है जो जिन्ना के हिंदू मूल को अब सिरे से नकारती है तो ऐसा क्यों हुआ। इसके पीछे खुद जिन्ना द्वारा अपने हिंदू अतीत से किया गया इंकार ही जिम्मेदार है।

'कायदे आजम' के प्रति इतनी दीवानगी क्यों?

पिछले कुछ दशकों से समूचे पाकिस्तान के इतिहासकारों और लीगी लेखकों में इस बात की होड़ मची हुई है कि किस प्रकार कायदे आजम की छवि को दुनिया भर में निखारा जाए। ये इतिहासकार और लेखक इस बात पर सदा नाराजगी प्रकट करते आए हैं कि जो स्थान विश्वपटल पर गांधी को मिला, जो स्थान नेहरू को मिला वो स्थान हमारे कायदे आजम को क्यों ना मिल सका। पाकिस्तान के इतिहासकार अजीज बेग कहते हैं- ‘कायदे आजम जिन्ना को वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे वास्तव में हकदार थे।’
पाकिस्तान के संदर्भ में एक अत्यंत प्रामाणिक अनुसंधान आधारित पुस्तक ‘पाकिस्तान: जिन्ना से जिहाद तक’ में लेखक एस.के.गुप्ता और राजीव शर्मा ने इस बात को प्रथम अध्याय में ही रेखांकित किया है कि ‘पाकिस्तानी इतिहासकार जिन्ना को उपेक्षित स्थान से निकालकर एक सजीव-जीवंत व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के लिए उतावले हैं’।

उपरोक्त लेखकों का ये निष्कर्ष सन् 2003 में ही सामने आ गया था जब उनकी पुस्तक पहली बार प्रकाशित हुई थी। अजब संयोग है कि उसके बाद हम भारत में जिन्ना के महिमामण्डन की बढ़ती कोशिशों को लगातार देख सकते हैं।

श्री आडवाणी ने अपनी पुस्तक 'माई कंट्री माई लाइफ' में एक स्थान पर जिक्र किया है कि पाकिस्तान में नियुक्त एक विदेशी राजदूत ने उनसे यह कहा था कि भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बंध तभी मधुर और प्रगाढ़ हो सकते हैं जबकि पाकिस्तान में सत्ता एक सशक्त सैनिक कमान के हाथ में रहे और इधर भारत में धुर दक्षिणपंथ यानी हिंदुत्व की वकालत करने वाले दिल्ली में आसीन हों।
उस राजदूत के शब्दों को यदि जिन्ना के व्यक्तित्व के मण्डन के संदर्भ में लागू किया जाए तो ये निष्कर्ष निकालने में कितनी देरी लगेगी कि जब तक धुर दक्षिणपंथ जिन्ना की वकालत शुरू नहीं करता तब तक जिन्ना को लोकप्रिय बनाना या उसकी स्वीकार्यता विश्व पटल पर बढ़ा सकना आसान नहीं होगा।
इस संदर्भ में यह देखना भी रोचक है कि जसवंत सिंह की पुस्तक की लोकप्रियता पाकिस्तान में भी आसमां छू रही है। और तो और पुस्तक लोकार्पण समारोह में पाकिस्तान से आए अतिथियों की संख्या भी अच्छी खासी रही थी।

जसवंत ने किताब में झूठी बातें लिखीं

परंतु कोई भी लेखक या इतिहासकार ये कैसे भूल सकता है जिन्ना द्वारा 'सीधी कार्रवाई' के एलान के पूर्व तक समूची कांग्रेस एक ओर विभाजन के खिलाफ खड़ी थी और जिन्ना विभाजन की जिद पर अड़ा हुआ था। आखिर जिन्ना ने भारत का विभाजन करवा कर ही दम लिया। वह विभाजन जिसमें डेढ़ करोड़ लोग बेघरबार हुए, बीसों लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, माताओं, स्त्रियों और बच्चों की जो दुर्दशा हुई उसकी कल्पना करना भी आज कठिन हो चुका है।

खैर इस सवाल पर आज बहस हो रही है कि जिन्ना की आखिर कौन सी मजबूरी थी कि उसने इतना भयानक कदम उठा लिया। जसवंत सिंह इसके लिए गाँधी, पंडित नेहरू और सरदार पटेल को जिम्मेदार ठहराते हैं। अपनी थीसिस को सही ठहराने की शुरूआत करते हुए जसवंत सिंह अपनी पुस्तक में लिखते हैं-'गांधी जनवरी, 1915 में पानी के जहाज से भारत पहुंचे।…तब तक जिन्ना अखिल भारतीय नेता के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे। जिन्ना न सिर्फ हिंदुओं और मुसलमानों, नरमपंथी और गरमपंथी कांग्रेसियों के बीच एकता का सूत्र बनकर उभरे थे वरन् भारत के विविध वर्गों में उनकी पर्याप्त पहुंच स्थापित हो चुकी थी।…जिन्ना ने मुंबई में गांधी के स्वागत के लिए 13 जनवरी, 1915 को गुर्जर समुदाय द्वारा आयोजित एक सभा की अध्यक्षता की। इस सभा में जिन्ना ने जहां गांधी की जमकर प्रशंसा की वहीं गांधीजी ने जिन्ना को हतोत्साहित और अपमानित करने वाला वक्तव्य दिया।’

यहां सवाल उठता है कि गांधी ने जिन्ना का क्या अपमान कर दिया। जसवंत सिंह के अनुसार, जिन्ना ने इस सभा में गांधी को आजादी के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ सुझाव दिए जिस पर गांधी ने मात्र इतना कहकर चुप्पी साध ली कि अभी तो मैं विदेश से आया हूं, परिस्थिति का अध्ययन कर निर्णय करूंगा। वैसे भी गांधी को गोपाल कृष्ण गोखले ने निर्देशित किया था कि वो सर्वप्रथम भारत को समझें। अब इस छोटी सी बात को जिन्ना ने दिल पर ले लिया तो इसे क्या समझा जाए। गोखले का निर्देश तो जिन्ना भी उनके जिंदा रहते अक्षरश: मानते रहे। जिन्ना ने 1920 के बाद से ही आजीवन सारे हिंदू नेताओं की जमकर बखिया उधेड़ी लेकिन जिन नेताओं के बारे में जिन्ना ने कभी एक भी अपशब्द या निंदाजनक बात नहीं निकाली उनमें से गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य तिलक का नाम अग्रणी है।

जसवंत सिंह आगे लिखते हैं-…गांधी ने सन् 1920 तक सभी के साथ सहयोगात्मक रवैया रखा लेकिन 1920 के बाद वे खुद ही सर्वेसर्वा हो गए। इसके पीछे गोखले का वह समर्थन था जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार और वॉयसराय लार्ड हार्डिंग को गांधी के पीछे खड़े रहने के लिए अपनी सारे प्रभाव और शक्ति का इस्तेमाल किया। ये वह समय था जब जिन्ना से ब्रिटिश सरकार सशंकित थी क्योंकि वह हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पैरोकार थे और सरकार के लिए ये कठिन हो गया था कि वह मुस्लिम लीग को कांग्रेस से अलग रख सके।…इस पूरे कालखण्ड में गांधी की नीति और रवैया पूरे तौर पर धर्म से प्रभावित एक प्रादेशिक भाव भावना से युक्त नेता के समान था जबकि इसके विपरीत जिन्ना नि:संदेह संप्रदाय निरपेक्ष और राष्ट्रवादी भावना से लबरेज थे।…पृष्ठ-102
अब इसे पक्षपात पूर्ण दृश्टिकोण नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। यहां दो बातें जसवंत सिंह कह रहे हैं। जिसमें से एक गोखले से संबंधित है कि गोखले ने गांधी के पीछे समूची ब्रिटिश सरकार को खड़ा किया। अब इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है। इतिहास के अध्येता जानते हैं और जसवंत सिंह भी लिख रहे हैं कि गांधी जनवरी, 1915 में विदेश से भारत आए। दूसरी ओर 19 फरवरी, 1915 में गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। आखिर ब्रिटिश सरकार से गांधी के ताल्लुकात बनवाने में गोखले को समय कब मिला? ये बात सही है कि गांधी उनसे कई बार मिलने गए, उन्होंने भी गांधी को आषीर्वाद दिया और देश को घूमने, जानने और समझने का निर्देश भी। लेकिन गोखले गांधी और ब्रिटिश हुक्मरानों के बीय ताल्लुकात बनवाने में सक्रिय थे, ये निराधार और झूठी बात भला कौन स्वीकार करेगा। दूसरी बात कि लोकमान्य तिलक उदारवादियों की लाइन पर आ गए तो इसे भी स्वीकार कर पान कठिन है। तिलक ने 1914 में माण्डले कारावास से लौटने के बाद कांग्रेस और उसके उदारवादी खेमे को बुरी तरह से फटकारा और कहा कि इस उदारवादी टोले ने कांग्रेस का प्रभाव ही देश से खत्म कर दिया है। तिलक ने पूर्ण स्वराज्य के सवाल को लेकर कभी समझौतावादी रूख नहीं अपनाया। इसी से पता चलता है कि जसवंत सिंह की पुस्तक कितने पूर्वाग्रहों से भरी है।

आज दिनांक २३.८.२००९ को वरिष्ट पत्रकार कारन थापर के साथ बातचीत में भी जसवंत सिंह ने dohraya- की लखनऊ paikt के दौरान गोखले ने जिन्ना को हिंदू-मुस्लिम एकता kaa दूत कहा। paathak gan jante होंगे ki pharwari, 1915 me hi gokhle ki mrutyu ho gai thi jabki lucknow pact 1916 me hua jisme lokmanya tilak ki mukhya bhumika thi.

शौकीन मिजाज जिन्ना और देशभक्त गांधी

हिंदुस्थान की राजनीति को गौर से देखने वाला कौन अध्येता जसवंत सिंह की इस ‘थ्योरी’ को स्वीकार करेगा कि 'गांधी एक प्रादेशिक भाव भावना वाले पांथिक नेता थे और जिन्ना परम धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त था।' वस्तुत: जिन्ना कुछ हद तक अपने स्वार्थों के लिए ही राष्ट्रवादी थे और उनकी लोकप्रियता ऐसी भी नहीं थी कि देश उन्हें हाथों हाथ ले रहा था।
सभी जानते हैं कि भारत की परंपरा में सार्वजनिक जीवन में सादगी को पहले कितना भारी स्थान लोकमानस देता आया था। और जैसा कि जिन्ना का व्यक्तिगत जीवन सार्वजनिक रूप से लोग देखते थे उस हिसाब से हिंदुस्तान की कसौटी पर जिन्ना कभी खरे उतर ही नहीं सकते थे। वो महंगे से महंगे ब्राण्ड की शराब के शौकीन थे। अपने बेटी की उम्र की एक अति धनाढय पारसी लड़की को भगाकर उन्होंने विवाह कर लिया था। मुंबई के सुप्रसिद्ध पारसी उद्योगपति दिन्शा पेटिट की बेटी रत्ती से उन्होंने 16 अप्रैल, सन् 1918 को जब विवाह किया तो जिन्ना 52 साल के थे और रत्ती मात्र 16 साल की लड़की थी। जिन्ना ने विवाह करने के लिए उसे इस्लाम धर्म में मतांतरित किया और ये सब बातें उस समय बहुत ही मशहूर हो गईं थीं क्योंकि दिनशा पेटिट जिन्ना के मित्र थे।

हिंदुस्थान की राजनीति को गौर से देखने वाला कौन अध्येता जसवंत सिंह की इस ‘थ्योरी’ को स्वीकार करेगा कि 'गांधी एक प्रादेशिक भाव भावना वाले पांथिक नेता थे और जिन्ना परम धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त था।'

जिन्ना उस समय एक विधुर का जीवन व्यतीत कर रहे थे। दिनषॉ पेटिट को तो ये अपेक्षा भी नहीं थी कि 52 साल के विधुर जिन्ना उनकी बेटी पर डोरे डाल रहे हैं। उन्हें ये झटका बर्दाश्त नहीं हुआ और इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को मुक्त करवाने के लिए जिन्ना के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की और भी जो संभव तरीके थे, सभी आजमाए। ये बात और है कि ये वैवाहिक बंधन ज्यादा समय तक नहीं चला। रत्ती ने विवाह के 9 साल बाद ही उनसे तलाक ले लिया। इसी रत्ती से जिन्ना को जीवन में इकलौती संतान बेटी दीना के रूप में प्राप्त हुई जो आगे चलकर जिन्ना से अलग हो गई। दीना ने मुंबई के एक पारसी vaadiya परिवार में विवाह किया और कालांतर में अमेरिका में रहने लगीं।

इस प्रकरण पर जसवंत सिंह कुछ नए प्रकार से रोशनी डालते हैं- ‘अपनी दूसरी पत्नी से जिन्ना के संबंध बिगड़ गए थे। दोनों एक दूसरे से अलग रहने लगे। भारत के स्वतंत्रता समर का उनके वैवाहिक जीवन पर असर पड़ा। वैवाहिक संबंधों को समय और परवाह की जरूरत होती है लेकिन जिन्ना तो आजादी के संग्राम में ही व्यस्त थे। परिणामत: दोनों अलग अलग हो गए। 1929 में पत्नी का देहांत हो गया। बेटी डिना की जिम्मेदारी जिन्ना पर आ गई और उन्हें अपने राजनीतिक भागमभाग वाली जिंदगी में बदल करना पड़ा। बेटी के कारण वे लंदन रहने लगे।’
यानी इससे ज्यादा बेतुकी बात क्या लिखी जा सकती है कि ‘जिन्ना आजादी के आंदोलन में इतने ज्यादा सक्रिय थे कि पत्नी से रिश्ते बिगड़ गए।' क्या वो अकेले इस लड़ाई में शामिल थे? देश में और नेताओं के पत्नियां नहीं थीं? जसवंत सिंह ने समूची पुस्तक में कहीं ये नहीं बताया कि जिन्ना आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण कितनी बार जेल गए? लेकिन इसके विपरीत जसवंत ने हर बार लिखा है कि जिन्ना भारत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। इससे झूठी बात भला और क्या हो सकती है? जिन्ना तो विभाजन की लड़ाई लड़ रहे थे और वह भी ब्रिटिश हुक्मरानों के इशारे पर लड़ रहे थे।

सुअर के मांस सहित जितने प्रकार के मांस हो सकते हैं सभी का स्वाद लेने में जिन्ना रसिक थे, एक बार जो टाई पहन ली तो उसे दुबारा नहीं पहन सकते थे, उनके वार्डरौब में 200 से अधिक सूट एक समय रहा करते थे और ऐसे ही विलायती अन्य कपड़ों का अंबार लगा हुआ रहता था। सिगरेट के वे इतने शौकीन थे कि 50 से अधिक सिगरेट रोज फूंक जाते थे और वह भी यूरोप के सबसे मंहगे ब्रांड की सिगरेट जो ‘क्रेवन ए’ के नाम से प्रसिध्द थी।

बादशाही चाहत ने जिन्ना को भटकाया

अजब बात ये है कि जसवंत सिंह ने अपनी किताब में जिन्ना को दरकिनार करने का आरोप कांग्रेस नेताओं पर मढ़ दिया है लेकिन जिन्ना के इस चरित्र पर उन्होंने जरा भी कलम नहीं चलाई है। जसवंत सिंह राष्ट्रवाद से जिन्ना की दूरी बनने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- ‘नागपुर कांग्रेस अधिवेशन तक आते आते जिन्ना कांग्रेस पार्टी में किनारे लगा दिए गए। गांधी ने 1915 के बाद के छ: सालों में न केवल मुसलमानों को बड़ी संख्या में अपने पक्ष में खड़ा कर लिया वरन् बड़ा भारी आर्थिक समर्थन भी हासिल कर लिया। गांधी ने खुद को आजादी के आंदोलन के नायक के रूप में स्थापित कर लिया जिसे जिन्ना कभी प्राप्त नहीं कर पाए। अमृतसर से कोलकाता और फिर1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के आते आते गांधी देश में छा गए।’

पिछली कड़ी में जैसा कि हमने उल्लेख किया था कि जिन्ना सन् 1911 से ही मुस्लिम लीग के कार्यक्रमों में आने जाने लगे थे, सन् 1913 में ही बाकायदा उन्होंने लीग की सदस्यता ग्रहण कर ली। कांग्रेस के अधिवेशनों में जिन्ना अपने आचरण के कारण कुछ ज्यादा ही चर्चित रहते थे। उनका नवाबी ठाट, aisho -आराम का प्रदर्शन , सिगरेट और बदमिजाज टिप्पणियां ही उन्हें चर्चित रखने के लिए पर्याप्त होती थीं। यदि कोई उनसे लगातार मुंह में सिगरेट पीते रहने पर कुछ कहता था तो उनका तपाक से जवाब हाजिर हो जाता था-तेरे बाप का पीता हूं क्या? ऐसे में जब गांधी जी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को खादी, सादगी और सत्याग्रह अपनाने का मंत्र दिया तो जिन्ना उबल पड़े। उस वक्त कांग्रेस के अधिवेशनों में एक ओर जहां विलायती कपड़े के खिलाफ लोग holika jalate तो जिन्ना dusare किनारे पर खड़े होकर अपने विलायती वस्त्रों में सिगरेट की कश खींचने में मशगूल रहते।
जसवंत सिंह का मानना है कि गांधी और नेहरू ने जिन्ना को कांग्रेस में किनारे लगा दिया। किंतु जिन्ना के आचरण को देखकर क्या किसी समझदार आदमी को ये समझने में देर लगेगी कि जिन्ना ने खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली थी।

जसवंत लखनऊ पैक्ट को लेकर जिन्ना की प्रशंसा करते नहीं थकते। इस पैक्ट में जिन्ना ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन का विरोध किया था। लेकिन क्या ये वास्तविकता नहीं है कि लखनऊ पैक्ट में ही पहली बार मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन को सैध्दांतिक सहमति प्रदान की गई थी? वास्तविकता तो यही है कि जिन्ना जिस मिजाज के व्यक्ति थे वो कभी भी सर्वसाधारण हिंदुओं के बीच raashtriiy नेता के रूप में स्वीकार नहीं हो सकते थे।
जिन्ना के पाकिस्तानपरस्त बनने पर जसवंत सिंह का एक और vishleshan गौर फरमाने लायक है-
‘1927 के कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन से जिन्ना ने तय कर लिया कि उसके रास्ते अब कांग्रेस से अलग हो चुके हैं।…जिन्ना के मन में अन्तर्द्वंद्व तेज हो गया कि वह कांग्रेस कैंप में रहे या मुस्लिम कैम्प में। वह अब दोनों में नहीं रह सकता था। इसी द्वन्द्व के कारण जिन्ना की कायदे आजम की यात्रा शुरू हो गई। मुसलमान ब्रिटिश सरकार की ओर झुक चले थे। जिन्ना पर मुस्लिम नेताओं ने इस बात का जवाब देने का दबाव बढ़ा दिया कि जिन्ना मुसलमानों के साथ हैं अथवा नहीं? इधर भारत की राजनीति विभक्त हो चली थी, सरकार और मुसलमान एक पक्ष में तो कांग्रेस तथा हिंदू दूसरी तरफ खड़े थे।’
जैसा कि पूर्व में मुद्दा आ चुका है कि जिन्ना कांग्रेस पर अपना वर्चस्व चाहते थे लेकिन उनके आचरण ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। अपने स्वभाव के कारण वो कांग्रेस के अनुशासन और देश के लोकजीवन की मान्यताओं के विरूध्द होते चले गए। क्यों हुआ ऐसा तो इसका उत्तर जिन्ना के भाई के हवाले से मिलता है। मोहम्मद अली जिन्ना के भाई अहमद अली जिन्ना ने सन् 1946 में अपने भाई के पाकिस्तान प्रेम को रेखांकित करते हुए कहा था-’उन्हें तो इस्लाम या पाकिस्तान में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह तो खुद को बादशाह के तौर पर देखने के लिए लालायित थे।’

जसवंत सिंह को ये चीजें क्यों नहीं दिखाई detin.
अगली कड़ी में सरदार पटेल, चर्चिल की भूमिका, विभाजन और मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई से sambandhit जसवंत की पुस्तक के अन्य विवादित अंशों पर हम प्रकाश डालेंगे।
जारी…

2 comments:

  1. 16 saal ki ratti se vivah ke samay vidhur jinna 42 saal ke the, lekh me galti se 52 saal type ho gaya hai.font parivartan ki gadbadi se anek sthano par proof ki galtiyaan bhi hain, pathak gan kchma karenge.
    aapka
    rakesh upadhyay

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  2. very good artical. jaswant singh has done the foolish job . country and party both has given him so much respected to this man and he is writing this foolish idea which is against the history and mind of all indians

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