Saturday, August 22, 2009

जसवंत सिंह! इतिहास से मत खेलो

गजब बानगी देखने को मिल रही है। सन 2005 में जो कवायद श्री लालकृष्ण आडवाणी ने शुरू की उसे अब जसवंत सिंह ने किताबी शक्ल के बौद्धिक ढांचे में लाकर यूं प्रस्तुत कर दिया है कि मानो जिन्ना जैसा अवतारी पुरूष बीती सदी में भारत में दूसरा नहीं जन्मा।
क्या आज देश में कोई और मुद्दे नहीं हैं जिस पर हम बहस करें और समाधान तलाशें। गरीबी, बेरोजगारी, विकास के वर्तमान ढांचे की विसंगतियां, विकट होता पर्यावरण, यूरोपीय अमेरिकी बौद्धिक दादागिरी और उनसे निपटने के उपाय, भारतीय विकल्प, पंडित दीनदयाल उपाध्याय प्रणीत एकात्म मानव दर्शन की व्यावहारिक व्याख्या, हिंदुत्व का राजनीति दर्शन , महात्मा गांधी, जेपी और लोहिया की भावभूमि और उनके विचार दर्शन के अनुरूप वैकल्पिक विकास पथ और भी दर्जनों मुद्दे हो सकते हैं जिन पर चिंतन चर्चा कर कुछ ऐसा समाधानपरक विकल्प निकल सकता है जिनसे वर्तमान और भविय का मार्ग सुधारने और प्रशस्त करने में युवा पी़ढी को मदद मिल सकती है। लेकिन जसवंत सिंह के पास इन मुद्दों के लिए लेखन, चिंतन और प्रबोधन की फुरसत नहीं है।

देश विभाजन के लिए गांधी, नेहरू और पटेल जिम्मेदार थे। इस एक पुरानी और भोथरी हो चुकी ‘थीसिस’ को जसवंत ने फिर से हवा दी है। देश विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था, जिन्ना महान था या नहीं था, जिन्ना सेकुलर था या नहीं था, इन प्रश्नों के जवाब के पूर्व जसवंत सिंह को खुद के अंतःकरण में झांककर देखना चाहिए था कि कंधार विमान प्रकरण के लिए कौन जिम्मेदार था? इस पर तो जसवंत सामूहिक निर्णय की बात कर गोलमोल हो जाते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जब इस मामले ने तूल पकड़ा तो पीएम इन वेटिंग श्री लालकृष्ण आडवाणी की चादर बेदाग बताते हुए आखिर वे बोल ही पड़े और वह भी इतना भर कि आडवाणीजी कंधार ले जाकर आतंकवादियों को छोड़ने के सवाल पर सहमत नहीं थे। आज जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई अपनी अस्वस्थता के कारण लगभग पूरे तौर पर सार्वजनिक जीवन से हट चुके हैं तो जसवंत सिंह को ये कहने में संकोच नहीं होता कि कंधार प्रकरण तो प्रकारांतर से अटलजी के नेतृत्व की असफलता थी।

खैर यहां सवाल जिन्ना का है। जिन्ना महान था तो इस बारे में जसवंत सिंह के तर्कों के बारे में तो पुस्तक पढने पर ही पता चलेगा लेकिन ऊपरी तौर पर उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को जो वक्तव्य दिया उसे देखने पढने से जिन्ना की महानता के पीछे की उनकी दीवानगी समझ आ जाती है। जाहिर तौर पर इस पर टिप्पणी करना अभी मुनासिब नहीं है लेकिन यह विश्लेषण करने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि जसवंत सिंह किस पृष्ठभूमि से सोच रहे हैं। हाल ही में बजट पर चर्चा के दौरान जसवंत सिंह ने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को आयकर छूट सीमा में मामूली वृद्धि पर जो सलाह दी वह इस लिहाज से गौर फरमाने लायक है। वित्तमंत्री से जसवंत सिंह ने कहा था कि आयकर की वर्तमान सीमा में 10000रूपये की छूट का क्या मतलब है इतने में तो कायदे से एक व्हिस्की की बोतल भी बाजार में नहीं मिल पाती है।

देश के बाजार में आम आदमी की दाल रोटी भी इस समय जब जेब की औकात से बाहर हो गई है तब यदि कोई राजनेता व्हिस्की के जरिए महंगाई जैसे गंभीर मुद्दे को स्पर्श करता है तो उसके राजशाही ठाट का अंदाज लगाया जा सकता है। खैर यही कुछ शौक जसवंत के महान पुरूष जिन्ना के भी थे। वह जिन्ना जो कभी इतिहास में हिंदू-मुस्लिम एकता का अग्रदूत कहा जाता था और जो बाद में मानवता का खुंखार कातिल बनकर उभरा। जसवंत सिंह ने जिन्ना के इतिहास के बारे में लगता है कि कुछ ज्यादा ही शोध किया होगा लेकिन वह कुछ भी करें, इतिहास की संकरी गलियों में से भी सच बाहर आकर ही रहता है।

पहली बात तो ये किताब उस प्रतिक्रिया की उपज है जिसने श्री जसवंत के प्रिय नेता श्रीआडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से हटने को विवश कर दिया था। श्री आडवाणी ने उसके बाद अपनी जो जीवनी लिखी उसमें जिन्ना प्रकरण पर एक पूरा अध्याय ही समाहित किया है । आई हैव नो रीग्रेट्स। ठीक उसी तर्ज पर चलकर जसवंत सिंह ने इस नो रीग्रेट्स को किताब की शक्ल में व्याख्यायित करते हुए 'ग्रेट डिबेटेबल आइटम’ में तब्दील कर दिया है।

जिन्ना के बारे में जसवंत हिंदुस्तान के लोगों को क्या नया बताना चाहते हैं जो देश के बौद्धिक वर्ग को पहले से मालूम नहीं है। जिन्ना राष्ट्रवादी था, लोकमान्य तिलक पर सन 1908 में जब देशद्रोह का मुकदमा अंग्रेज सरकार ने ठोंका तो जिन्ना उस मुकदमे की पैरवी में तिलक के साथ खड़ा होता था। दादाभाई नरौजी जब कोलकाता कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो जिन्ना उनके निजी सहायक के रूप में काम कर रहा था। ये लोकमान्य तिलक और दादाभाई नरौजी की ही देन थी जो उसे कांग्रेस की राजनीति में कुछ स्थान मिला। तिलक की प्रेरणा से वह हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी काम करता था। कांग्रेस की राजनीति में गरमपंथ और नरमपंथ दोनों ही धड़ों में उसने अच्छे मधुर संबंध बना कर रखे थे और फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के साथ भी जिन्ना का अच्छा तारतम्य बैठने लगा था। लेकिन इन सबके बीच उसके अंदर राजनीति का वह कीड़ा भी बैठा हुआ था जो किसी व्यक्ति को तुच्छ स्वार्थों की खातिर इंसान से हैवान और नायक से खलनायक बना देने में एक पल की देरी नहीं लगाता है। भारत के अनेक राष्ट्रवादी नेता जिसके शिकार आज भी होते दिखाई दे रहे है।

लोकमान्य को सन 1908 में 6साल की सजा हुई। केसरी में प्रकाशित एक संपादकीय को आधार बनाकर तिलक पर देशद्रोह का मुकदमा थोपा गया। संपादकीय का जो अनुवाद न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया गया वह अनुवाद ही मूलतः गलत था। जिन्ना तेज तर्रार वकील था लेकिन इस त्रुटि को पकड़ नहीं सका या यूं कहें कि अंग्रेज सरकार तिलक को जेल भेजने पर आमादा ही थी। तिलक को न तो कांग्रेस का नरमपंथी धड़ा ही पचा पा रहा था और न अंग्रेज कारिंदे। सो सजा तो होनी ही थी, इसलिए कह सकते हैं कि तिलक के मुकदमे में जिन्ना को सफलता न मिल सकी। इधर तिलक जेल गए उधर जिन्ना का राष्ट्रवाद काफूर हो गया। 1913 आते आते जिन्ना उस मुस्लिम लीग की गोद में जा बैठा जिस मुस्लिम लीग का उसने बंग भंग के सवाल पर 1906 में जमकर विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग की गठन 1906 में ढाका में हुआ था।

1915 में महात्मा गांधी का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में होता है। इधर जिन्ना मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों नावों की सवारी कर रहा था और उसके मन में एक कल्पना यह भी थी कि एक दिन कांग्रेस उसकी मुट्ठी में होगी। गांधी का आगमन इस लिहाज से उसके लिए अच्छा नहीं रहा क्योंकि गांधी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के बाद से ही देश की आम जनता में लोकनेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।

कुछ लोग कहते हैं कि जिन्ना ने तो खिलाफत आंदोलन का विरोध किया, वह कट्टरवाद के खिलाफ था और खिलाफत के सवाल पर कांग्रेस के आंदोलन का भी उसने विरोध किया। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। जिन्ना सिर्फ अपना नेतृत्व चाहता था और वह भी बिना किसी लोकतांत्रिक पद्धति के पालन के वह खुद को सबसे ऊपर रखने की चाहत रखता था। उसकी ऐंठ नवाबी थी। भारत के लोगों की दुःख दशा देखकर जब गांधी ने अपना ब्रिटिश चोला उतार फेंका और पूरे तौर पर देसी खादी की शरण में आ गए तो उनके साथ समूची कांग्रेस ने ही खादी का अनुसरण करना प्रारंभ कर दिया। गांधी राजनीति को धर्माधिस्थित करना चाहते थे, आचरण की पवित्रता के भी वे आग्रही थे। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में जिन्ना को ये पच नहीं रहा था। इसलिए जिन्ना ने गांधी को ढोंगी आदि कहना शुरू कर दिया। और तो और वह कांग्रेस की बैठकों में भी अपनी सिगरेट व सिंगार की सुलग बनाए रखता था। पीने और पहनने की जिन्ना की जो शौकीनी थी उसमें से गांधी को समझ आ गया कि इस आदमी में न तो भारत के लोकजीवन के प्रति आदर है और ना ही मुसलमानों का सच्चा हितैषी हो सकता है। इधर जिन्ना गांधी की लोकप्रियता से इतना जलभुन गया कि उसने हर मोर्चे पर गांधी का विरोध शुरू किया।

दिसंबर, 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन ने गांधी और जिन्ना दोनों को झकझोर कर रख दिया। अधिवेशन में सभी के लिए जमीन पर ही बैठने की व्यवस्था की गई। सभी के लिए एक प्रकार से खादी का वस्त्र अनिवार्य हो गया। और तो और इस अधिवेशन में गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को चरखा चलाकर सूत कातने का काम भी सिखाना शुरू किया। गांधी की प्रेरणा से समूची कांग्रेस ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई । जिन्ना से यह सब ना देखा गया। समूचे अधिवेशन में वही एकमात्र व्यक्ति था जिसने ना तो विदेशी कपड़े उतारे ना तो सार्वजनिक रूप से सिगरेट फूंकना बंद किया। आखिर जिन्ना भारत की राजनीति में नेतृत्व का कौन सा आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे?
जिन्ना की मृत्यु के समय पाकिस्तान में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त श्री प्रकाश की ये टिप्पणी जिन्ना पर बिल्कुल ही सटीक बैठती है॔- 'नंगे सिर और नंगे पैर मैं उस कमरे में गया जहां जमीन पर जिन्ना साहब का शरीर पड़ा हुआ था। मैं उसके चारों ओर घूमा। मेरे ह्दय में दुःख हुआ कि ऐसे पुरूष को भी मृत्यु नहीं छोड़ती जिसकी चाल ढाल से हमेशा ऐसा प्रतीत होता था कि वे पृथ्वी को ही अपने टहलने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं समझते। इन्हें भी कफन से ढके हुए पृथ्वी पर एक दिन चित्त पड़ना ही होता है।’

जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान सभा में अपना पहला भाषण क्या दिया था इस पर श्री आडवाणी जी ने भी अपनी टिप्पणी दी थी और इस संदर्भ में स्वामी रंगनाथानंद का हवाला दिया था। इस भाषण को तो हमारे जसवंत सिंह ने भी हाथों हाथ लिया है। लेकिन इस भाषण की सच्चाई क्या थी आज इतिहास के अध्येताओं से छुपी नहीं है। भारत के प्रख्यात पत्रकार और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक बीजी वर्गीज इस भाषण की सच्चाई के एक पहलू से पर्दा उठाते हैं। वर्गीज के अनुसार, इस भाषण को जिन्ना ने अपने जीवित रहते ही रद्द कर दिया था या यूं कहें कि वापस ले लिया था।’
विस्तार से जानने के लिए प्रवक्ता.कॉम पर सर्च करें।

जिन्ना का पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया क्या था इसका एक उदाहरण और देखने को मिलता है। देश विभाजन के पूर्व गवर्नर जनरल लार्ड वेवेल ने एक्जीक्यूटिव काउंसिल के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया था। पहले तो इसमें मुस्लिम लीग ने आना स्वीकार नहीं किया लेकिन बाद में उनका पांच सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल काउंसिल के लिए नामित किया गया। इसमें चार मुसलमान और एक हिंदू प्रतिनिधि शमिल किया गया था। हिंदू प्रतिनिधि के रूप में जोगेंद्र नाथ मण्डल नियुक्त किए गए थे। जोगेंद्र नाथ मण्डल जाति से हरिजन थे। उन्हें शामिल कर जिन्ना ने संकेत किया था कि उनके भावी राज्य का स्वरूप सेकुलर रहने वाला है। जोगेंद्र नाथ मण्डल पाकिस्तान के पहले मंत्रिमण्डल में भी शमिल किए गए लेकिन यही जोगेंद्र मण्डल विभाजन के बाद पाकिस्तान से भागकर रहने के लिए कलकत्ते आ गए थे। ये सारा कुछ जिन्ना की जानकारी में था। मण्डल ने भारत के पाकिस्तान में उच्चायुक्त श्रीप्रकाश को अपनी जान पर मंडराते खतरे की जानकारी दी थी। श्रीप्रकाश के अनुसार, उन्हें जान से मारने के लिए मुस्लिम लीग के लोगों ने ही षडयंत्र रच दिया था। पता नहीं कि मण्डल का प्रकरण जसवंत सिंह को ध्यान में आया कि नहीं।

जिन्ना एक झूठा इंसान था, वह कई मायनों में फरेबी था। उसने हिंदुओं के साथ, अपनी मातृभूमि के साथ धोखा किया ही, मुसलमानों के साथ भी उसने कम गद्दारी नहीं की। यही कारण है कि अपने अंत समय में एक कुटिल व्यक्ति की जो दुर्दशा होती है वही दशा जिन्ना की भी हुई। वह अंतिम समय तक लोगों पर अविश्वास करता रहा, एक बेचैन आत्मा, एक अशांतविक्षिप्त मनोदशा में उसने अपना शरीर छोड़ा। श्रीप्रकाश अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान के प्रारंभिक दिन’ में लिखते हैं- 'संसार के इतिहास में जिन्ना उन कतिपय व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने एक नए देश की स्थापना की और पृथ्वी के मानचित्र पर उसे अंकित किया। लेकिन उनके अंतिम दिन सुखी नहीं थे। वे नितांत एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे किसी को अपनी बराबरी का नहीं मानते थे इस कारण उनका कोई मित्र नहीं था। कानून शास्त्र के विशेष ज्ञाता होने के कारण विभाजन के बाद के दृश्यों से वे दुखी थे लेकिन बड़े अभिमानी होने के कारण वे इसे स्वीकार भी नहीं करते थे।’

किस बात का अभिमान था जिन्ना को? इसकी परत दर परत यदि खोली जाए तो वह विषबेल अपनी जीभ लपलपाए हमारे सामने आ जाती है जिसने आज समूचे संसार को आतंकवाद के खून खराबे से त्रस्त कर रखा है। वही आतंकवाद जिन्ना ने हिंदुस्तान में आजादी के पूर्व ही पैदा कर दिया था। गांधी, नेहरू और पटेल जिसे येन केन प्रकारेण समझा बुझा कर, कहीं कहीं कुछ कांग्रेसी तुष्टीकरण के द्वारा भी रास्ते पर लाने का प्रयास कर रहे थे, उस समुदाय के अंदर जिन्ना ने जलजला पैदा कर दिया। किस बात का जलजला पैदा किया था। यही न कि मुस्लिम कौम शासन करने वाली कौम है, वो भला किसी के अंतर्गत कैसे रह सकती है। जिन्ना की गांधी और नेहरू से चिढ का मूल कारण यही था कि गांधी और नेहरू धीरे धीरे हिंदुस्तान में लोकप्रियता के उस शिखर पर पहुंच गए जहां पहुचने का स्वप्न जिन्ना रह रह कर देखा करते थे।

ये किस हद तक खतरनाक दर्जे तक पहुंच चुकी थी उसका एक उदाहरण श्रीप्रकाश के हवाले से मिलता है। महात्मा गांधी के निधन के उपरांत पाकिस्तान की विधानसभा में गांधी के प्रति श्रद्घांजलि प्रस्ताव आया। उस समय श्री प्रकाश खुद उस सभा में उपस्थित थे। सभा की कार्रवाई के बारे में श्रीप्रकाश बताते है - पाकिस्तान की विधानसभा में गांधीजी की मृत्यु के सम्बंध में शोक प्रदर्शन किया गया। मैं इस अधिवेशन में दर्शक के रूप में गया था। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली खां, सिंध के मुख्यमंत्री जनाब खुरो साहब और अन्य वक्ताओं ने गांधीजी की बड़ी प्रशंसा की और उनके बारे में ‘महात्मा’ शब्द से बार बार निर्देश करते रहे। इस सभा की अध्यक्षता जिन्ना साहब कर रहे थे। जैसा की प्रथा थी अंत में वे भी बोले। उन्होंने एक बार भी गांधीजी का नाम नहीं लिया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे ‘महात्मा’ शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते थे। गांधीजी के नाम के साथ महात्मा शब्द जोड़ना उन्हें पसंद नहीं था। गांधीजी का नाम संकेत उन्होंने ‘उन’ और ‘वह’ से ही किया और कहा कि ‘उन्होंने अपनी जाति वालों और अपने धर्मावलंबियों की सेवा यथाबुद्धि और यथाशक्ति की। उन्होंने बार बार जोर देकर कहा कि ‘उन्होंने अपने संप्रदाय और धर्म वालों की सेवा की।’ नियमानुसार जिन्ना साहब के हस्ताक्षर से शोक प्रस्ताव भारत सरकार को जाना था लेकिन उस प्रस्ताव को जिन्ना साहब ने अपने हस्ताक्षर से नहीं भेजा।... आश्चर्य की बात कि गांधीजी की मृत्यु का समाचार सुनने के बाद से ही जिन्ना का स्वास्थ्य भी गिरता गया। वे अधिकांश समय कराची की बजाए क्वेटा और जियारत में ही बिताने लगे। जब वे कराची कभी कभी आते तो बड़े धूमधाम से उनकी सवारी निकलती। उन्हें देखने पर ऐसा प्रतीत होता था कि महात्माजी के उठ जाने के बाद उन्हें ऐसा लगता था कि संसार में मेरे बराबर का अब कोई रह ही नहीं गया जिससे प्रतिद्वंद्विता की जाए। संसार में तो मेरा काम ही समाप्त हो गया। गांधी जी की मृत्यु के बाद जिन्ना सिर्फ सा़ सात महीने ही जीवित रहे।’

जिन्ना गांधीजी के प्रति प्रारंभ से ही पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। इसका विवरण अनेक अंग्रेज अफसरों ने बार बार अपने वक्तव्यों में दिया था। ऐसा ही एक अंग्रेज था लुईस जो असम में इंडियन ऑयल कंपनी का मुख्य अधिकारी थी। लुईस के अनुभवों को जानकर श्रीप्रकाश ने लिखा कि एक बार देश की राजनीतिक स्थिति पर उससे बात होने लगी। मैंने बातों ही बातों में कहा कि जाने क्यों जिन्ना साहब के मन में गांधीजी के प्रति विकार घर गया? तो उसने तपाक से जो उत्तर दिया उससे मैं स्तब्ध रह गया। उसने कहाक्यों न हो? आखिर गांधी ने ये क्यों कहा कि जिन्ना समाप्त हो गया। और जब गांधी ने ये कहा तो जिन्ना के लिए ये जरूरी था कि वो दिखावे कि वो समाप्त नहीं हुआ है।….. जिन्ना तो लंदन में बसने का निश्चय कर लिया था। वहां वकालत करने के लिए कार्यालय और मकान का प्रबंध भी उसने कर लिया था। जब उन्हें ये समाचार मिला कि गांधी कहते हैं कि मैं समाप्त हो गया और इसी कारण लंदन आया हूं तो स्वाभाविक था कि वे भारत वापस आए और गांधी को दिखाया कि वे समाप्त नहीं हुए हैं।’
इस प्रसंग पर श्रीप्रकाश आगे लिखते हैं, 'बहुत से अंग्रेजों से मेरी बातचीत हुई और सभी ने कांग्रेस के विरूद्ध जिन्ना और पाकिस्तान का पक्ष लिया। वे तो भारत का पक्ष ही सुनने को तैयार नहीं थे। एक अंग्रेज ने तो दांत पीसकर मुझसे कहा कि मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम विशालकाय राक्षस की तरह हो जो छोटे से बेचारे पाकिस्तान को पीस कर रख देना चाहते हो।… आखिर मेरे पास इनकी सुनने के अतिरिक्त क्या उपाय था। जहां तक गांधी जी को मैं जानता था उन्होंने जिन्ना के बारे में कभी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जैसा कि अंग्रेज अफसर बताया करते थे।’

3 comments:

  1. क्या आपने जसवंत की पुस्तक पढ़ी है ?

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  2. अपने विचार व्यक्त करने का हक़ सभी को है. और कोई कौन होता है किसी को यह सलाह देने वाला की किस विषय पर लिखो और किसपर नहीं. जिसको जिस विषय पर लिखना है वह लिख सकता है अगर किसीको लेखक के तथ्य व तर्क गलत लगते हैं तो उनका प्रतिवाद तथ्य और तर्क से करें. इतिहास में सचमुच जो हुआ उसे जानने का हक़ सभी को है, छः दशकों से ज्यादा भारतियों की पीढी ने तोडा मरोड़ा और अर्धसत्यों से भरा सरकारी इतिहास ही पढ़ा है, क्यों न आज हम सच भी जान लें? जसवंत एक वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ और राजनेता होने के नाते अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों, इतिहासकारों, विश्वविद्यालयों, थिंक टेंक, और गुप्त दस्तावेजों तक अपनी पहुँच रखते हैं, उनके तर्कों को नकारना या सवालों से बचना मुश्किल है.

    और क्या आपने जसवंत की पुस्तक पढ़ी है? ज़ाहिर है कोई भी समझदार इन्सान बिना पढ़े आलोचना नहीं करेगा, तो किन पृष्ठों के किस पैरा पर आपको आपत्ति है? कौन से ऐसे तर्क व तथ्य हैं जिन्हें आप गलत मानते हैं और क्यों? पुस्तक में कहाँ कहाँ जसवंत जिन्ना का अंध समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं? ज़रा विस्तार से बताएं.

    या फिर इधर उधर से पढ़ी सुनी बातों पर ही इतना ज्ञान दे डाला?

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  3. ये हमारी हे विशेषता है कि चार्वाक दर्शन हमारे यहां दर्शन है. सबको अपनी बात कहने का हक़ है. विचार का प्रतिवाद विचार से किया जाय.

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