Monday, January 18, 2010

मुमुक्षा के पथिक...

मुमुक्षा के पथिक, लोक आराधक प्रमुखस्वामीजी के 89वें जन्मोत्सव पर...

भारत के जिन श्रेष्ट संत विभूतियों की जीवन-ज्योति आज सारे संसार में हिन्दुत्व का महान विश्व-मंगलकारी प्रकाश प्रसारित कर रही है, उनमें अग्रणी है पूज्य प्रमुख स्वामी जी महाराज। अक्षरपुरुषोत्तम के उपासक, स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रमुख एवं जगद्गुरू के रूप में लाखों-करोड़ों के जीवन में श्रद्धा और आस्था का दिया जलाने वाले महान संत प्रमुख स्वामी जी ने विगत् दिनों अपने जीवन के 89वीं अलौकिक वर्ष पूर्ण किए तो सहज ही उनके भक्तों, उपासकों और चाहने वालों के आनन्द का ठिकाना ना रहा।

सदाचार और निर्व्यसन को लाखों लोगों के जीवन का ध्येय-सूत्र बना देने वाले प्रमुख स्वामी जी की कृपा छांह जिसके ऊपर भी पड़ी, उसका जीवन ही आनन्द से भर उठा। इस आनन्दवर्षा का लाभ लेने वाले गृहस्थ भी हैं तो ब्रह्मचारी भी। सामान्य और साधारण हैं तो अपने कृर्तत्व से विश्व में भारत का नाम रौशन करने वाले असाधारण भी। उनके तप का परिणाम है कि बी.ए.पी.एस संस्था का संजाल आज संपूर्ण विश्व में फैल गया है।

ऐसे महान संत का जन्म भारत की पवित्र भूमि पर गुजरात राज्य के चाणसद गांव में सन् 1921 में हुआ। आठ वर्ष की अल्पआयु में ही उन्होंने प्राथमिक विद्याभ्यास कर गृहत्याग कर दिया। अमदाबाद के शास्त्रीजी महाराज से शास्त्र आदि का पारायण कर उन्होंने स्वामी नारायण प्रभु की पार्षदी प्राप्त कर ली। 10 जनवरी 1940 को गोंडल में उन्होंने भागवत दीक्षा प्राप्त कर इहलौकिक जीवन से पूर्ण रूपेण संन्यास ले लिया और मुमुक्षा की उस महान अन्तःयात्रा पर निकल पड़े जिसकी ओर जाने के लिए वेद, उपनिषद युगों से मानवमात्र का आह्वान करते आ रहे हैं।। 21 मई, 1950 को ब्रह्मस्वरूप शास्त्रीजी महाराज ने इन्हें बीएपीएस संस्था का प्रमुख घोषित कर दिया और तब से वे प्रमुखस्वामीजी के नाम से संसार में विख्यात हो गए।

संत का शरीर भूमि पर आखिर किस हेतु विचरता है। भारतीय विचार ने, हिंदू विचार ने संत को ईश्वर की श्रेणी प्रदान की है। तुलसी बाबा ने जैसा कि रामायण में कहा है कि सोई जानेउ जेहि देहू जनाई, जानत तुमहि तुमहि होई जाई।। सियाराम, सियाराम, सियाराम, जय जय राम। तो संत-पथ पर आने के बाद अपना क्या बचता है, जो है वह सब कुछ ईश्वरमय, ईश्वर का प्रतिबिम्ब हो जाता है। भगवा लपेटे संत सदा जीवन को उस ज्योर्तिमय प्रकाश में जलाता रहता है जिसका कुछ अंश पाकर ही हमारा संसार निहाल हो उठता है।

इसलिए संत-पथ को हमारे यहां लोकयात्रा का सर्वश्रेष्ठ पथ कहा गया है। इस पथ पर आने वाले के लिए मानो तो सब कुछ न्योछावर, इतना तक विश्वास किया है भारत की परंपरा ने और इस महान परंपरा की कसौटी पर प्रमुख स्वामीजी महाराज ने स्वयं को ऐसा तपाया है कि उन्हें देखकर लगता है कि दया, करुणा, ममता, वात्सल्य मानो सदेह हमारे सामने खड़ा है, देखो तो बस आंखों से करूणासागर अब फूटा कि तब फूटा। इस महान संत और दिव्य विभूति को निकट से देखने वाले बताते हैं कि उनके कण-कण से कृपा और करूणा की महान किरणें पल-प्रतिपल यूं झरती रहती हैं मानो ब्रह्माण्ड से दिव्य कणों की, अमृत बूंदों की वह वर्षा जिसकी अनुभूति भारत का लोकजीवन इस प्रकृति के साथ प्रति शरदपूर्णिमा की शीतल रात्रि को करता है। स्वामी जी अर्थात लोकजीवन के लिए शरदपूर्णिमा की अमृत धरोहर, जिसे पाकर तर जाने का जी किसका न होगा भला।

विश्वभर में 700 से अधिक ऐसे मंदिर अर्थात अक्षरधाम उनकी अनुपम तपस्या और भारत की महान विरासत के अमिट धरोहर बन गए हैं। कैसे हैं ये सद्गुरू जिनकी चरणरज से देश और संपूर्ण विश्व के 16000 शहर और गांव पवित्र हो चुके हैं। दुनिया में करीब ढाई लाख से अधिक परिवार होंगे जिनके घर-आंगन में पूज्यवर ने पधार कर वसुधैव कुटुंबक के वैदिक मंत्र को सार्थक किया है। और इसमें जाति-वर्ग-भाषा-मत-पंथ-देश की सीमाएँ कहीं आड़े नहीं आईं। सन् 2006 में नई दिल्ली में जब अक्षरधाम मंदिर का भव्य लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ तो इन पंक्तियों के लेखक को भी पत्रकार दीर्घा में उस महान अवसर का साक्षी बनने का महनीय सौभाग्य मिला था। और जैसा कि बाद में लिखा भी गया, मानो उस रात दिल्ली ने अपनी भूमि पर देवलोक के दर्शन किए थे। इस्लाम मजहब के अनुयायी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, सिख पंथ के अनुयायी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और श्री लालकृष्ण आडवाणी की उपस्थिति में शायद हजारों वर्ष के बाद दिल्ली ने देखा कि सारे तमस को चीरकर सचमुच भारत के भाल पर सभ्यता, संस्कृति और धर्म का महान सूर्य उदित हो रहा है।

जो आधुनिक संसार आज तकनीकी को ही सारे विकास का मंत्र मानकर चल रहा है उस संसार की युवा पीढ़ी को भारत के लोकजीवन के प्राचीन और अर्वाचीन तकनीकी प्रयोगों, ज्ञान और विज्ञान की अमर विरासत के साक्षात्कार का अवसर भी महाराज श्री की कृपा से प्राप्त हुआ।

आज जब लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भूख और गरीबी के रहते हुए हिंदुस्थान मंदिरों को लेकर क्या करेगा तब प्रमुखस्वामी जी महाराज के ये वचन हमें रास्ता दिखाते हैं- समाज को अस्पताल, महाविद्यालय, पाठशालाएं चाहिएं क्योंकि इनसे लोग शिक्षित होते हैं लेकिन मंदिर भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, इनमें संतों के सत्संग से वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है, मानसिक दुःख दूर होते हैं, आन्तरिक ऊर्जा का संचार होता है, पारिवारिक दुःखों और सामाजिक तनावों का निराकरण होता है और सबसे बड़ी बात व्यक्ति आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख होने लगता है, और यह आत्मज्ञान ही उसकी चिरंतन शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। आखिर क्या हमारे शहर केवल सिनेमाघरों, कैसीनो और शराब की दुकानों के लिए ही जाने जाएंगे। ये रास्ता तो बिगाड़ का रास्ता है। भारतीय संस्कृति और परंपरा सदियों से मंदिरों और अपनी आध्यात्मिक विरासत के लिए दुनियां में जानी और पहचानी गई है, हमें उसके तेजस्वी स्वरूप को और दिव्यता प्रदान कर भावी पीढ़ी को सौंपना चाहिए।

सत्य राह दिखाई है स्वामीजी ने। सैंकड़ों वर्षों की पराधीनता ने हिंदू समाज को तमस और आत्मविलोपन की जिस गहरी खाई में धकेला, उसके दुष्परिणाम हिंदू समाज आज भी झेल रहा है। हम भूल गए कि मंदिर ही हमारे आत्मगौरव और समाज जागरण के सर्वप्रमुख केंद्र थे। यही कारण है कि विदेशी आक्रमण के समय इन पर भी आक्रांताओं ने अपनी पूरी बर्बरता दिखाई। हम अपने मंदिरों की दिव्यता और भव्यता को शायद विस्मृति कर बैठे। हमारा विराट और विशाल चिंतन भी वैसे ही संकुचित होता गया जैसे हमारे मंदिरों के परिसर और उनकी विशालता पर गुलामी का ग्रहण लगा। पर अब तो देश स्वतंत्र है और उसी स्वतंत्रता में हिंदू जीवनमूल्यों के अनुरूप जीवन जीने की कला सिखाने के लिए अभिनव तीर्थ-मंदिर विकसित करने का महान कार्य संभव कर दिखाया है अक्षरधाम के प्रेरक प्रमुखस्वामीजी ने।

गोशाला, अन्नशाला, यज्ञशाला, अनुसंधान, चिंतन, वेदशिक्षा, योग-आयुर्वेद-अध्यात्म आदि के जिस महान जागरण केंद्रों के रूप में वैदिक ऋषियों ने मंदिरों की जो अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, प्रमुखस्वामीजी महाराज ने अपने जीवन की साधना से उसे पुनः सार्थक करने का प्रयास किया है। वे दीर्घजीवी होकर भौतिक रूप में संसार के कल्याण के लिए भारत की विरासत का मार्गदर्शन करते रहें, यही कामना है।

राकेश उपाध्याय। 26 दिसंबर 2009

No comments:

Post a Comment