Tuesday, December 8, 2009

सभी भारतीय एक पुरखों की संतान

विज्ञान ने भी आर्य-द्रविड़ के भेद को नकारा

नई दिल्लीः 8 दिसंबर, 2009। सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण सम्बन्धी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार-तार कर दिया है।

विज्ञान की आंखों ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है।

इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीनएनए गुणसूत्र आधारित अनुसंधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में हाल ही में सम्पन्न हुआ है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिध्द किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।

शोधकार्य में अखण्ड भारत अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई।

इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। भारतीयों के पूर्वजों का डीएन गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशों की नस्लों से बिल्कुल अलग है और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है ।


जेनेटिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया

ज्ञानेश्वर चौबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच.डी. उपाधि स्वीकृत की गई है उसका शीर्षक है- 'डेमॉग्राफिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया: प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्रॉम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स' अर्थात 'दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता' संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित 'सेन्टर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी' अर्थात सीसीएमबी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डॉ. लालजी सिंह और डॉ के. थंगराज के अन्तर्गत परास्नातक बाद की एक शोधपरियोजना में जुटे थे।

ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता-पिता के बारे में सच्चाई का पता लगाया जा सकता है तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हैं-बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढे़, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियों की संतान हैं? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा-परदादी कौन थे, कहां से आए थे,उनका मूलस्थान कहां है और इतिहास के बीते हजारों वर्षों में उनके पुरखों ने प्रकृति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहां हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया में दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहां-कहां रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे हैं?


उनके अनुसार- माता और पिता दोनों के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है।


कैंब्रिज के डॉ. कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन

हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो. कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ में ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसांख्यिक संरचना अपने जातीय एवं जनजातीय स्वरूप में केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टत: भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसेंटर का निर्देशन कर रहे हैं।

प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चौबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया। और देखते ही देखते जीवविज्ञान सम्बंधी अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स में उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेक शोध पत्र जहां उन्होंने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विषय से मिलते-जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं।

अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यों को भी गलत सिद्ध किया है जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लें हैं और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात् भारत में कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार, 'पूर्व के शोधकार्यों में एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूने लिए गए थे, दूसरे उन नमूनों की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन 'लो-रीजोलूशन' अर्थात न्यून-आवर्धन पर किया गया। इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और 'हाई-रीजोलूशन' अर्थात उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला में परीक्षण किया तो हमें भिन्न परिणाम प्राप्त हुए।'


माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखों का इतिहास
ज्ञानेश्वर द्वारा किए गए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमासोम्स और उनसे जुड़े हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात मानव गुणसूत्र के निर्माण में भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहुंचाता है और वह इस उत्परिर्तन को आने वाली पीढ़ियों में सुरक्षित भी रखता है।

इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएं अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहां यह समझना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका में उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियों के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते हैं।

इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते हैं। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र में रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हैं। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी में उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका में स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ में भी लागू होती है।

एक वंशवृक्ष से जुड़े हैं सभी भारतीय

ज्ञानेश्वर
ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्मों-जातियों की जनसांख्यिकी संरचना पर केंद्रित किया। शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है।

उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं। इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं।
प्रस्तुति
- राकेश उपाध्याय

18 comments:

  1. माइटोकोंड्रिया जींस की यह थ्योरी तो लगभग 10-12 वर्ष पूर्व ही प्रकाश मे आ चुकी है और विश्व के अनेक लोगो पर यह रयोग हो चुका है .. इन सबसे यह भी प्रकट होता है कि आधुनिक मानव जिसकी उम्र लगभग 40000 वर्ष है और हमारी आदिमाता लगभग इतने ही वर्‍ष पूर्व अफिका से आई थी ।

    ReplyDelete
  2. आप ने जो बात सिद्ध करने की कोशिश की है वह पूरे विश्व के होमोसेपियन्स के लिए सही है। उस से भारत में आर्यों और द्रविड़ों के भिन्न होने और उन में संघर्ष और समन्वय का इतिहास रद्द नहीं होता। मैं शरद जी से सहमत हूँ।

    ReplyDelete
  3. यह सही है कि सारे होमोसेपिएंस मनुष्य एक जेनेटिक कोड के हैं, यह भी सही है कि इतिहास के किसी दौर में हजारों साल पहले अफ्रीका में मानव ने पहली सांस ली. फिर भी नस्ल के हिसाब से भारतीय, यूरोपीय, मंगोल आदि में जेनेटिक भिन्नता तो है ही. ज्ञानेश्वरजी ने इसी भिन्नता का अध्यन कर सिद्ध किया है कि आर्य और द्रविण कोई दो भिन्न नस्लें नहीं हैं वरन एक नस्ल हैं. कृपया इसे ठीक सन्दर्भ में समझने का प्रयास करें. पुनः धन्यवाद. मैं रिपोर्ट की कुछ पंक्तियाँ पुनः उधृत करता हूँ.


    शोधकार्य में अखण्ड भारत अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई।


    इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। भारतीयों के पूर्वजों का डीएन गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशों की नस्लों से बिल्कुल अलग है और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जब हम सब एक हैं तो फिर जातियों में वर्ण में क्यों बांटा गया

      Delete
    2. Jaati aur varna karya ke hisab se bana tha

      Delete
  4. जहाँ तक अफ्रीका में मानव उत्पत्ति का सवाल है मुझे संयोग से एक सन्दर्भ पढने को मिला है, अभी मैं कुछ भूगर्भ विज्ञान से जुड़े लोगों से इस तथ्य की प्रमाणिकता पता कर रहा हूँ, यदि यह सच है तो अफ्रीका में मनुष्य की प्रथम उत्पत्ति का रहस्य भी जगजाहिर हो जायेगा. वह सन्दर्भ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ....

    भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार आज जहां आर्यावर्त का उपजाऊ एवं मैदानी क्षेत्र है, वहां प्राचीन काल में समुद्र था और दक्षिण का पठार अफ्रिका से संलग्न था। पश्चात् आर्यावर्त का भूभाग ऊपर आया एवं वहां का पानी अफ्रिका की ओर फैल गया। इस कारण भारत नाम का एक नवीन महादेश प्रकट हुआ।
    (सन्दर्भ- मृत्युन्जय भारत,प्रकाशक-सुरुचि साहित्य, नई दिल्ली)

    ReplyDelete
  5. एक साझा मूल होने की बात बहुत पहले से ही की जा रही है। परन्तु कुछ छद्म बुद्धिजीविता के ठेकेदारों को अपनी तुरही के अतिरिक्त सुनाई ही क्या देता है?

    वस्तुत: आर्य-द्रविड़ संघर्ष की थियोरी इस राष्ट्र के मन-प्राण औए आत्मा को विदेशी साबित कर कुंठित करने के लिये प्रतिपादित की गई थी... समय आ गया है कि समस्त उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक-सह-आनुवांशिक एकात्मकता को एंडोर्स किया जाय।

    ReplyDelete
  6. महत्वपूर्ण शोध है। आवश्यकता इस बात की भी है कि भाषा वैज्ञानिक साक्ष्यों के मद्देनजर इसे परखा जाए। यही नहीं इन तथ्यों के बारे में भी आम लोगों की जिज्ञासा का समाधान किया जाए कि द्रविड़ों और उत्तर भारतीयों में शारीरिक भिन्नता क्यों है। द्रविड़ों का रंग गहरा क्यों है। गूजरों-जाटों की आंखों का रंग गहरा काला क्यों नहीं होता। दक्षिण की गर्मी अगर किसी को काला बना सकती है तो कर्नाटक के एक समूदाय के लोग गौरवर्ण क्यों होते हैं। इन के बारे में भी जीव वैज्ञानिक रूप से तार्किक समाधान आने चाहिए।
    अच्छी पोस्ट

    ReplyDelete
  7. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  8. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  9. Nai soch ka swagat hai. vikas ki parakriya yahi to hai.
    sabhi ke vicharon me sachhai ke beej hain.Arya shreshth aur ssbhya logon ke liye prayukt shabd hai, aur achhe log duniya me kahin bhi ho sakte hain. jo lagbhag 1700 varsh yahan aur arya sabhyata prachintam haiaaye ve bhi arya ( achhe log) ho sakte hai. parantu bharat mein arya log aur arya sabhyata prachin hai isme koi sahk nahi hai. jo aapravasi bharat aaye hum unhen aapravasi ayra ya visdeshi aarya kah sakte hain. ve yahan achhe jivan ki talash mein bhatake hua aaye the, aur yehin basa gaye the. unki bhasha aur sanskriti ka hamari tatkalin bhasha aur sanskrity par prabhav padana swabhavik hai.han unki aur hamari soch mein kuch samanta thi jo darshata hai ki aadi kaal mein ya to ve bharta se hi pravas par chale gaye honge ya phir humare aur ueke poorvaj bahut pahle kisi ek hi sthan mein sath sath rahte rahe honge ya prakrit karnon se bhubhag door khisak gaye honge. karan jo bhi rahe hon bhartiya aarya bhart ke moolvaasi hain aur uttar tatha dakshin bhartiya shabd videshiyon ki sajish ki soch hai.Is baat me koi shak nahi ki aadhunik aarya bhashon ka vikas videshi aaryon ke aane ke baad hamari tatkaleen bhashaon tatha unki bhashaon ke meljol se hua hai.

    ReplyDelete
  10. Upar ka vichar mera hi hai , mujhe nahi malum ki yahan devnagri mein kaisa likha jata hai , kryapya koi margdarshan karein.

    ReplyDelete
  11. CONGRATULATIONS TO MR.CHOBEY I AM HIGHLY AGREE WITH MR AJIT VADNERKAR'S POINT HAVING SAME GENETIC'S WE HAVE DIVERSE DIFFERENCE OF DEMOGRAPHICS AND PHYSIC WHY IT'S SO?

    WILL ANY RESPECTED SCHOLARS SATISFY THIS? I REALLY WANT TO KNOW MOST OF THE TIME DISCUSSION REMAINS UNANSWERABLE.

    ReplyDelete
  12. वाह वाह क्या खोज किया हॆ आपलोगों ने, यह वही वॆगानिक हॆ जो पहले ईश्वर की शक्तियों को अनाधार ऒर ईश्वर को ही गल्त साबित करने मे लगे थे, पर अब सारे लोग ईश्वर को मानने लगे,सोध अच्छी थी ऒर कुछ हदतक सही भी, लेकिन द्रविड़ ऒर आर्यों मे जो अन्तर था वह तो खोजा नहीं, सारा टाइम खराब कर दिया आपने, ऊपर से आर्यों के बारे मे जो लिखा, लिखने वाले ने कभी दुनिया का इतिहास सही अध्ययन नही किया था ।अब सामने होता तो बात करता ।

    ReplyDelete
  13. Confusion dur krne aya tha is page pr... lekin post or niche k comments padh kr mai or v jyada confuse ho gya... Aakhir sch kya hai...
    Sch jo v ho pr mai bhartiya hu or mera desh meri priority hai...

    ReplyDelete
  14. नई खोज का स्वागत है हम सब सब भारतीय एक गुणसूत्रीय हैं इस समाज में कटुता हटेगी और भारतीयों में सद्भावना और समभाव का विकास होगा

    ReplyDelete