Monday, January 25, 2010

जंगल का ‘गणतन्त्र’


चली लोकतन्त्र की आंधी, जंगल में भी हवा चली

जंगल में भी होंगे चुनाव, पशुओं में यह आस जगी।


स्वयं सिंह जो बना है राजा

उसको अब हटना होगा,

गीदड़ बोला मैं प्रत्याशी

शेर को मुझसे लड़ना होगा।


जंगल में चुनाव आयोग बैठाया गया

हाथी दादा को आयोग प्रमुख बनाया गया,

कुछ नियम-कानून बनाए गए,

आयोग द्वारा सब पशुओं को सुनाए गए।


जिस-जिस को लड़ना है वह हो जाए तैयार

जंगल में इस बार बनेगी लोकतन्त्र सरकार,

लोकतन्त्र सरकार, सिंह न केवल राजा होगा

सिंहासन मिलेगा उसको, जिसको पीछे बहुमत होगा।


चुनाव की होने लगी तैयारी

पर सिंह को यह लगने लगा भारी।

सबके सामने वह हो गया तैयार, पर

चुपचाप लगाई उसने बिरादरी में गुहार।

सिंह, बाघ, चीता, तेन्दुआ आदि

सबके यहां सन्देशा भिजवाया गया

स्वयं सिंह द्वारा उन्हें बुलवाया गया।

जब भीड़ हो गई जमा

तो सिंह गंभीर होकर बोला-

भाइयों,

आज अस्तित्व पर संकट आया है,

हमारे सिंहत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया है।

अरे भाई बाघ और तेन्दू,

आप सब अपनी बिरादरी के हैं,

चीता सहित हम सभी एक ही जाति के हैं,

मिलकर चुनाव लड़ेंगे,

अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेंगे।


तभी तेन्दुआ बीच में ही बोला,

अपना मुंह धीरे से उसने खोला,

कहा-पहले वोट बढाइए,

बिल्ली भी स्वजातीय है,

बैठक में उसे भी बुलाइए।


तुरन्त बिल्ली बुलवाई गई,

सबके द्वारा उसकी स्तुति गाई गई।

बीच में बिल्ली को सिंह ने एकटक निहारा

धीरे से उसके मुखड़े पर उसने पुचकारा।

कुछ मीठी, कुछ सकुचाती वाणी में सिंह बोला-

मौसी!!!!!!!!!!!!!!!!

तू कहां थी!

तुझसे तो पुराने सम्बंध हैं,

कद में है तू बस छोटी,

मिलते मुझसे तेरे सब अंग हैं।

अपने पूरे परिवार के साथ जंगल में

कह दे कि तू मेरे संग है।

बिल्ली, तेन्दू, चीता, शेर और बाघ

जंगल में शुरू हो गया जातिवाद।।


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जैसे ही हुई भोर,

गीदड़ ने मचाया शोर

शेर कर रहा है जातिवाद

चुनाव आयोग से मैं करूंगा फरियाद,


लेकिन तभी उसके समीप

एक कुत्ता आया,

साथ में लोमड़ी, लकड़बघ्घे

और भेड़िए को भी लाया।

कुत्ता बोला,

बिरादर! हम भी जातिवाद करेंगे

जो हो, शेर को जीतने नहीं देंगे,

तुम आयोग में शिकायत भिजवाओ

साथ में जातिवाद का बवण्डर चलाओ।


भीषण जातिवाद देखकर,

रेंकने लगा जंगल का गधा,

क्योंकि

उसने भी था पर्चा भरा।

सोचने लगा,

मैं कैसे जातिवाद चलाऊं,

आखिर किसके पास जाऊं।

अचानक उसे ध्यान में आया

घोड़े, खच्चर और जेब्रा,

पानी में रहने वाला दरियाई घोड़ा,

ये सब तो मेरे ही स्वरूप हैं,

मेरी जाति वाले भी मजबूत हैं।

अब नहीं कोई चिन्ता,

बजने दो चुनावी डंका।


नामांकन का दिन गया बीत,

वोटिंग के दिन पास आ गए,

गधा, गीदड़ और शेर बने प्रत्याशी,

तीनों जंगल में छा गए।


अन्य सभी पशुओं ने वोटर

बनना स्वीकार किया,

किन्तु कुछेक पशुओं ने

चुनाव का बहिष्कार किया।

हिरन गले में तख्तियां लटकाए,

अपने लिए जंगल में,

पृथक ग्रासलैण्ड की

मांग कर रहे थे।

शेर, गधा ओर गीदड़

बारी-बारी से उनके

पास वोट की फरियाद कर रहे थे।


प्रत्याशी सभा में जंगल सुरक्षा

के सवाल पर सिंह दहाड़ा,

प्रचार में उसने सबको पछाड़ा।


शेर बोला, प्यारी हिरनों!

यदि मैं सत्ता में आया,

तो तुम्हें पूरी सुरक्षा दिलवाउंगा,

पृथक ग्रासलैण्ड के निर्माण के साथ,

एक शेर वहां चौकीदार बिठाऊंगा।


लेकिन अपने भाषण में

गधे ने हिरनों को समझाया,

भाइयों-बहनों, सावधान रहना,

चौकीदार शेर छुप-छुपकर

एक-एक को हजम कर जाएगा।

पृथक ग्रासलैण्ड तुम्हारे अस्तित्व की

समाप्ति का कारण बन जाएगा।

उपाय मेरे पास है, मैं सत्ता में आया

तो....इतने में गीदड़ मंच पर लपक आया।

वोट मांगते हुए बोला,

आपको सुरक्षा हम दिलवाएंगे,

गधे ने तत्काल उसे फटकारा,

उसने सबके सामने उसे लताड़ा।


गधा बोला-गीदड़ का चरित्र संदिग्ध है।

यह शेर से मिला हुआ है,

सुरक्षा के सवाल पर गीदड़ और शेर

आप सभी को बरगलाएंगे,

मेरा मानना है कि

ये दोनों मिलकर जंगल को खा जाएंगे।


इस प्रकार होने लगा प्रचार।

तीनों पक्षों में शुरू हुई तकरार।


प्रचार अभियान के सिलसिले में

शेर मधुमिक्खयों के पास पहुंचा।

मधुमिक्खयों की रानी के पास

उसने सन्देशा भेजा।

बहन, सुना है भालू

शहद के लिए तुम्हारे छत्ते

भंग करते हैं,

रह-रहकर पूरे परिवार सहित

तुम्हें तंग करते हैं।

परेशान ना हो,

मुझे वोट दो,

मैं भालुओं को दुरूस्त करूंगा,

तुम्हारी सुरक्षा मजबूत करूंगा।


उधर भालुओं के पास जाकर

सिंह ने पुचकारा

सबको बुलाकर कान में फुसकारा,

भालू भाइयों, तुम्हारे लिए शहद

के सारे छत्ते आरक्षित किए जाएंगे।

मेरे जीतने पर जंगल में शहद के

सारे लाइसेंस तुम्हें ही दिए जाएंगे।


आ गया वोटिंग वाला दिन

पशु सब निकल पड़े।

वोट देने के लिए

घर से सब चल पड़े।


वोटिंग में गधे का पक्ष होने लगा भारी

क्योंकि अचानक एकजुट हो गए शाकाहारी।


शाकाहारी पशुओं ने ठीक ही सोचा,

शेर तो मांसाहारी है और गीदड़ का क्या भरोसा।


गधा ठीक है, ये कोई

नुकसान तो नहीं ही कर पाएगा,

किसी आक्रमण के समय कम से कम,

आगे होकर ढेंचू-ढेंचू तो चिल्लाएगा।


गधे के पक्ष में चुनाव जाता देख,

क्रुद्ध सिंह ने ललकारा,

चीता तुरन्त हरकत में आया,

उसने भी दिया सिंह को सहारा,

बोला-

ये शाकाहारवाद यहां नहीं चलने देंगे।

सारे बूथों को बाहुबल से कैप्चर कर लेंगे।


जंगल में हो गया हंगामा

पशुओं में पड़ गई दरार,

अलग-अलग हो गए खेमे

एक शाकाहारी, दूजा मांसाहार।


सिंह ने दिया आदेश,

बूथों पर कब्जा कर लो,

जहां मिले गीदड़ और गधे

उनको वहीं दबोचो।


तेन्दू, बाघ और चीते ने

मिलकर किया प्रहार,

सारे बूथ कब्जे में

बन गई सिंह की सरकार।


बनी सिंह की सरकार, सिंह आ गया विजयी मुद्रा में

बोला, लोकतन्त्र नहीं, जंगल कानून चलेगा जंगल में।

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जंगल में जुटी विजय सभा,

सिंह ने किया गर्जन,

स्वागतोपरान्त, सिंह ने दिया

अपना प्रथम राजकीय भाषण।


विजयी सिंह ने विराट जनसभा में

सर्वप्रथम चुनाव आयोग को ललकारा,

आयुक्त हाथी दादा को उसने

खुले आम जमकर फटकारा।


सिंह बोला-सुन लो हाथी दादा,

जंगल में आयोग के जन्मदाता,

आयोग भंग किया जाता है,

जाओ मौज करो जाकर, क्योंकि

कुछ मर्यादा है, अत: तुम्हें

बंधन-मुक्त किया जाता है।


लेकिन गीदड़ और गधे

कदापि छोड़े नहीं जाएंगे,

हर कीमत पर उनके

प्राण अवश्य लिए जाएंगे।


सिंह ने फिर दर्शन झाड़ा,

मनुष्यों पर भी गुस्सा

उसने उतारा।


कहने लगा-

लोकतन्त्र मनुष्यों का

उन्हें ही मुबारक हो भाई,

गधे और गीदड़ भी लड़ते चुनाव

आखिर यह कैसी पद्धति आई।


यह तो प्रकृति विरूद्ध है,

इसी से सम्पूर्ण विकास अवरूद्ध है।


जिसका जितना संख्याबल,

लोकतन्त्र में बस उसी का बल!

भाइयों, यह खतरनाक निर्वाचन है!

क्योंकि हमारा तो कम संख्याबल है।


अब यदि आज मैं चुनाव हार जाता,

तो क्या मांस की जगह घास खाता!

चुनाव में झूठे नारों, वायदों से

अपना हित मैंने साधा,

मेरे अनुसार, लोकतन्त्र के विकास में

यह है सबसे बड़ी बाधा।


जो मैं कभी नहीं करता,

ऐसा मुझको कहना पड़ता था,

हिरनों की रक्षा, मधुमक्खी को भी

झूठा वायदा देना पड़ता था।

बोलो ऐसा लोकतन्त्र, क्या होगा कभी यहां सफल,

संख्या बल चले जुटाने, लेकर जातिवाद का संबल।


अरे, जिसमें जो गुण हैं, वह वैसे ही जिएंगे।

मांसाहार छोड़कर क्या हम तृण से पेट भरेंगे?

शाकाहारवाद चलाकर जो सत्ता पाने की सोच रहे,

हम उनके भरोसे ही जीवित हैं, क्यों वह भूल गए?


लोकतन्त्र का ही यह पुण्यप्रताप!

हिरनों ने मेरा उपहास किया,

पृथक ग्रासलैण्ड की मांग लिए

उन्होंने बहिष्कार का साथ दिया।


इसके पहले तो कभी नहीं,

हिरनों ने ऐसा कुछ मांगा था,

अधिकारों की बढ़ गई पिपासा

लोकतन्त्र ने ही अलगाव जगाया था।


गणतन्त्र नहीं यह समस्या तन्त्र है,

जंगलराज में यह चल नहीं सकता।

मानव जाति करे कुछ भी,

जंगल में लोकतन्त्र फल नहीं सकता।

Monday, January 18, 2010

मुमुक्षा के पथिक...

मुमुक्षा के पथिक, लोक आराधक प्रमुखस्वामीजी के 89वें जन्मोत्सव पर...

भारत के जिन श्रेष्ट संत विभूतियों की जीवन-ज्योति आज सारे संसार में हिन्दुत्व का महान विश्व-मंगलकारी प्रकाश प्रसारित कर रही है, उनमें अग्रणी है पूज्य प्रमुख स्वामी जी महाराज। अक्षरपुरुषोत्तम के उपासक, स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रमुख एवं जगद्गुरू के रूप में लाखों-करोड़ों के जीवन में श्रद्धा और आस्था का दिया जलाने वाले महान संत प्रमुख स्वामी जी ने विगत् दिनों अपने जीवन के 89वीं अलौकिक वर्ष पूर्ण किए तो सहज ही उनके भक्तों, उपासकों और चाहने वालों के आनन्द का ठिकाना ना रहा।

सदाचार और निर्व्यसन को लाखों लोगों के जीवन का ध्येय-सूत्र बना देने वाले प्रमुख स्वामी जी की कृपा छांह जिसके ऊपर भी पड़ी, उसका जीवन ही आनन्द से भर उठा। इस आनन्दवर्षा का लाभ लेने वाले गृहस्थ भी हैं तो ब्रह्मचारी भी। सामान्य और साधारण हैं तो अपने कृर्तत्व से विश्व में भारत का नाम रौशन करने वाले असाधारण भी। उनके तप का परिणाम है कि बी.ए.पी.एस संस्था का संजाल आज संपूर्ण विश्व में फैल गया है।

ऐसे महान संत का जन्म भारत की पवित्र भूमि पर गुजरात राज्य के चाणसद गांव में सन् 1921 में हुआ। आठ वर्ष की अल्पआयु में ही उन्होंने प्राथमिक विद्याभ्यास कर गृहत्याग कर दिया। अमदाबाद के शास्त्रीजी महाराज से शास्त्र आदि का पारायण कर उन्होंने स्वामी नारायण प्रभु की पार्षदी प्राप्त कर ली। 10 जनवरी 1940 को गोंडल में उन्होंने भागवत दीक्षा प्राप्त कर इहलौकिक जीवन से पूर्ण रूपेण संन्यास ले लिया और मुमुक्षा की उस महान अन्तःयात्रा पर निकल पड़े जिसकी ओर जाने के लिए वेद, उपनिषद युगों से मानवमात्र का आह्वान करते आ रहे हैं।। 21 मई, 1950 को ब्रह्मस्वरूप शास्त्रीजी महाराज ने इन्हें बीएपीएस संस्था का प्रमुख घोषित कर दिया और तब से वे प्रमुखस्वामीजी के नाम से संसार में विख्यात हो गए।

संत का शरीर भूमि पर आखिर किस हेतु विचरता है। भारतीय विचार ने, हिंदू विचार ने संत को ईश्वर की श्रेणी प्रदान की है। तुलसी बाबा ने जैसा कि रामायण में कहा है कि सोई जानेउ जेहि देहू जनाई, जानत तुमहि तुमहि होई जाई।। सियाराम, सियाराम, सियाराम, जय जय राम। तो संत-पथ पर आने के बाद अपना क्या बचता है, जो है वह सब कुछ ईश्वरमय, ईश्वर का प्रतिबिम्ब हो जाता है। भगवा लपेटे संत सदा जीवन को उस ज्योर्तिमय प्रकाश में जलाता रहता है जिसका कुछ अंश पाकर ही हमारा संसार निहाल हो उठता है।

इसलिए संत-पथ को हमारे यहां लोकयात्रा का सर्वश्रेष्ठ पथ कहा गया है। इस पथ पर आने वाले के लिए मानो तो सब कुछ न्योछावर, इतना तक विश्वास किया है भारत की परंपरा ने और इस महान परंपरा की कसौटी पर प्रमुख स्वामीजी महाराज ने स्वयं को ऐसा तपाया है कि उन्हें देखकर लगता है कि दया, करुणा, ममता, वात्सल्य मानो सदेह हमारे सामने खड़ा है, देखो तो बस आंखों से करूणासागर अब फूटा कि तब फूटा। इस महान संत और दिव्य विभूति को निकट से देखने वाले बताते हैं कि उनके कण-कण से कृपा और करूणा की महान किरणें पल-प्रतिपल यूं झरती रहती हैं मानो ब्रह्माण्ड से दिव्य कणों की, अमृत बूंदों की वह वर्षा जिसकी अनुभूति भारत का लोकजीवन इस प्रकृति के साथ प्रति शरदपूर्णिमा की शीतल रात्रि को करता है। स्वामी जी अर्थात लोकजीवन के लिए शरदपूर्णिमा की अमृत धरोहर, जिसे पाकर तर जाने का जी किसका न होगा भला।

विश्वभर में 700 से अधिक ऐसे मंदिर अर्थात अक्षरधाम उनकी अनुपम तपस्या और भारत की महान विरासत के अमिट धरोहर बन गए हैं। कैसे हैं ये सद्गुरू जिनकी चरणरज से देश और संपूर्ण विश्व के 16000 शहर और गांव पवित्र हो चुके हैं। दुनिया में करीब ढाई लाख से अधिक परिवार होंगे जिनके घर-आंगन में पूज्यवर ने पधार कर वसुधैव कुटुंबक के वैदिक मंत्र को सार्थक किया है। और इसमें जाति-वर्ग-भाषा-मत-पंथ-देश की सीमाएँ कहीं आड़े नहीं आईं। सन् 2006 में नई दिल्ली में जब अक्षरधाम मंदिर का भव्य लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ तो इन पंक्तियों के लेखक को भी पत्रकार दीर्घा में उस महान अवसर का साक्षी बनने का महनीय सौभाग्य मिला था। और जैसा कि बाद में लिखा भी गया, मानो उस रात दिल्ली ने अपनी भूमि पर देवलोक के दर्शन किए थे। इस्लाम मजहब के अनुयायी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, सिख पंथ के अनुयायी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और श्री लालकृष्ण आडवाणी की उपस्थिति में शायद हजारों वर्ष के बाद दिल्ली ने देखा कि सारे तमस को चीरकर सचमुच भारत के भाल पर सभ्यता, संस्कृति और धर्म का महान सूर्य उदित हो रहा है।

जो आधुनिक संसार आज तकनीकी को ही सारे विकास का मंत्र मानकर चल रहा है उस संसार की युवा पीढ़ी को भारत के लोकजीवन के प्राचीन और अर्वाचीन तकनीकी प्रयोगों, ज्ञान और विज्ञान की अमर विरासत के साक्षात्कार का अवसर भी महाराज श्री की कृपा से प्राप्त हुआ।

आज जब लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भूख और गरीबी के रहते हुए हिंदुस्थान मंदिरों को लेकर क्या करेगा तब प्रमुखस्वामी जी महाराज के ये वचन हमें रास्ता दिखाते हैं- समाज को अस्पताल, महाविद्यालय, पाठशालाएं चाहिएं क्योंकि इनसे लोग शिक्षित होते हैं लेकिन मंदिर भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, इनमें संतों के सत्संग से वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है, मानसिक दुःख दूर होते हैं, आन्तरिक ऊर्जा का संचार होता है, पारिवारिक दुःखों और सामाजिक तनावों का निराकरण होता है और सबसे बड़ी बात व्यक्ति आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख होने लगता है, और यह आत्मज्ञान ही उसकी चिरंतन शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। आखिर क्या हमारे शहर केवल सिनेमाघरों, कैसीनो और शराब की दुकानों के लिए ही जाने जाएंगे। ये रास्ता तो बिगाड़ का रास्ता है। भारतीय संस्कृति और परंपरा सदियों से मंदिरों और अपनी आध्यात्मिक विरासत के लिए दुनियां में जानी और पहचानी गई है, हमें उसके तेजस्वी स्वरूप को और दिव्यता प्रदान कर भावी पीढ़ी को सौंपना चाहिए।

सत्य राह दिखाई है स्वामीजी ने। सैंकड़ों वर्षों की पराधीनता ने हिंदू समाज को तमस और आत्मविलोपन की जिस गहरी खाई में धकेला, उसके दुष्परिणाम हिंदू समाज आज भी झेल रहा है। हम भूल गए कि मंदिर ही हमारे आत्मगौरव और समाज जागरण के सर्वप्रमुख केंद्र थे। यही कारण है कि विदेशी आक्रमण के समय इन पर भी आक्रांताओं ने अपनी पूरी बर्बरता दिखाई। हम अपने मंदिरों की दिव्यता और भव्यता को शायद विस्मृति कर बैठे। हमारा विराट और विशाल चिंतन भी वैसे ही संकुचित होता गया जैसे हमारे मंदिरों के परिसर और उनकी विशालता पर गुलामी का ग्रहण लगा। पर अब तो देश स्वतंत्र है और उसी स्वतंत्रता में हिंदू जीवनमूल्यों के अनुरूप जीवन जीने की कला सिखाने के लिए अभिनव तीर्थ-मंदिर विकसित करने का महान कार्य संभव कर दिखाया है अक्षरधाम के प्रेरक प्रमुखस्वामीजी ने।

गोशाला, अन्नशाला, यज्ञशाला, अनुसंधान, चिंतन, वेदशिक्षा, योग-आयुर्वेद-अध्यात्म आदि के जिस महान जागरण केंद्रों के रूप में वैदिक ऋषियों ने मंदिरों की जो अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, प्रमुखस्वामीजी महाराज ने अपने जीवन की साधना से उसे पुनः सार्थक करने का प्रयास किया है। वे दीर्घजीवी होकर भौतिक रूप में संसार के कल्याण के लिए भारत की विरासत का मार्गदर्शन करते रहें, यही कामना है।

राकेश उपाध्याय। 26 दिसंबर 2009