Thursday, September 17, 2009

जसवंत सिंह! क्या पाकिस्तान सरदार पटेल की करनी है?

जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में विभाजन और जिन्ना की निर्दोष भूमिका पर बहुत गंभीर चर्चा की है। गहरा विश्लेषण है उनकी पुस्तक में, जो जो उद्धरण जिन्ना के खिलाफ जाते हैं उन उद्धरणों को भी उन्होंने कुशलतापूर्वक जिन्ना और पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा कर दिया है। लेकिन इनके सबके बीच उनकी एक या दो-दो पंक्ति की टिप्पणियां, उनके सुदीर्घ विश्लेषण के संक्षिप्त निष्कर्ष बहुत ही सतही और पूर्वाग्रही मानसिकता से प्रेरित प्रतीत होते हैं। आइए कुछ टिप्पणियों पर गौर फरमाएं।

पुस्तक के हिंदी संस्करण के पृष्ठ 465 पर जसवंत सिंह अपनी पुस्तक का निष्कर्ष दो पंक्तियों में लिखते हैं- ‘निष्कर्ष साफ है कि आखिर में पाकिस्तान जिन्ना को दे दिया गया। जिन्ना ने जितना उसे जीता नहीं उससे ज्यादा तो कांग्रेस के नेताओं ने, नेहरू और पटेल ने इसे दे दिया और इसमें अंग्रेजों ने हमेशा मदद करने वाली एक कुशल दाई का काम किया।’
‘जिन्ना ने जोर देकर कहा कि इलाज केवल अलग होने में है और नेहरू, पटेल और कांग्रेस के अन्य लोग अंतत: इससे सहमत हो गए, पाकिस्तान बन गया।’ (पृष्ठ 445)
‘भारत की एकता की खिलाफत करने वाले अनेक कारक थे। बंटवारा तो होना ही था, परंतु साथ ही उन दिनों एक जबर्दस्त थकावट ने अंग्रेजों को, नेहरू को, जिन्ना को, यहां तक कि पटेल समेत सभी को जकड़ लिया था। गांधीजी ने अकेले ही, इस बंटवारे को विखंडन का नाम दिया, केवल वह ही थे जिन्होंने शुरू से इसका विरोध जारी रखा। लेकिन अब तो वे एक अकेले ही जिहादी बचे थे, शायद इसीलिए अब उन्होंने भी अपने हाथ-पैर समेट लिए।’ (पृष्ठ-457)

पृष्ठ 383 पर जसवंत सिंह सरदार पटेल के एक पत्र को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- ‘पटेल ने भले ही सीधे तौर पर नहीं किंतु वास्तव में पहली बार पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था।…।8 मार्च, 1947 को कांग्रेस कार्यसमिति ने जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के समर्थन से एक प्रस्ताव पारित किया…इस प्रस्ताव ने जिन्ना के दो राष्ट्र वाले सिद्धांत को अंतत: मंजूरी दे दी।’

जसवंत सिंह लार्ड माउंटबेटन के बहाने सरदार पटेल पर पृष्ठ 384 पर टिप्पणी करते हैं-’माउंटबेटन तब तक वायसरॉय का पदभार ग्रहण कर चुके थे। उन्होंने तुरंत पटेल को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। एक विजेता की तरह उनका यह आकलन था कि पटेल ने पंजाब के विभाजन को मंजूरी देकर भारत के विभाजन के सिद्धांत को भी मान्यता दे दी। जवाहर लाल नेहरू का भी विभाजन विरोध तब तक काफी हद तक हल्का पड़ चुका था। 20 मार्च, 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही अंदर इतने वर्षों तक विभाजन के मुखर विरोधी जवाहर लाल नेहरू मुल्क के बंटवारे के एक प्रतिबद्ध समर्थक बन गए।’
जसवंत सिंह का मानना है कि 1947 में नेहरू और पटेल दोनों देश की हकीकत से अनजान थे । पृष्ठ संख्या 464 पर वे लिखते हैं-
”दु:ख से कहना पड़ता है कि कांग्रेस के नेतृत्व ने हकीकत को, असलियत को कभी पूरा नहीं पहचाना, मंजूर नहीं किया। 15 अगस्त 1947 से दो हफ्ते पहले माउंटेबटन ने नेहरू और पटेल दोनों से पूछा था: ‘एक पखवाड़े के भीतर ही भारत की पूरी सत्ता और ज़िम्मेदारी आपके पास होगी। ‘क्या आप लोगों ने महसूस किया है कि तब आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा?” दोनों नेताओं ने तब जवाब दिया था कि हमें ‘मालूम है, और वह भी कि हमें क्या करना है।’ लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था? लगता है नहीं।’ (पृष्ठ-464)

इसी संदर्भ में अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए कांग्रेस द्वारा छेड़े जाने वाले तमाम आंदोलनों और नेताओं के जेलगमन पर जसंवत सिंह की टिप्पणी भी अत्यंत उपहासास्पद प्रतीत होती है। वे लिखते हैं कि – ”बार-बार के जेल-गमन ने कांग्रेसियों में, जिनमें अधिकांश हिन्दू थे, एक स्थाई षहादत की आत्मसंतुष्टि का बोध भर दिया था। इसलिए उन्होंने पहले ही मान लिया था कि जेल-गमन ही अपने आप में पर्याप्त तपस्या व त्याग है, जिसे एक सराहनीय कार्य के रूप में निश्चित तौर पर दैवीय मान्यता मिलेगी……। लेकिन जेल में बार-बार रहने से कांग्रेस नेता…।वस्तुत: एक प्रकार से जिम्मेदारी टाल रहे थे। 1942-45 के बीच कांग्रेस नेतृत्व के जेल जीवन की निष्क्रियता की तुलना में जिन्ना ने अपने नेतृत्व को और मजबूत किया।” (पृष्‍ठ-460)

इस प्रकार जिन्ना प्रेम की रौ में जसवंत सिंह सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन और आजादी के संघर्ष के तमाम बलिदानियों का मजाक उड़ाने से नहीं हिचकते हैं। माना कि जेल जीवन एक निष्क्रिय जीवन है किंतु देश की जनता ने जिस महान् उद्देश्‍य के लिए इस संघर्ष पथ का वरण किया, क्या वह उद्देश्‍य गलत था? क्या वे जेल जाने के शौकीन थे? आखिर जसवंत क्या सिध्द करना चाहते हैं?

हिंदी संस्करण के पृष्ठ क्रमांक 422 पर जसवंत सिंह सरदार पटेल को एक बार फिर से आलोचना का अनावश्यक पात्र बना देते हैं। वे लिखते हैं-’आखिर, मुहम्मद अली जिन्ना दिल्ली से कराची को 7 अगस्त, 1947 को रवाना हो गए। इसके बाद लौटकर वह कभी भारत नहीं आए। अगले ही दिन, पटेल ने दिल्ली में, संविधान सभा में तब कहा था, ‘ भारत के शरीर से जहर निकाल दिया गया है। अब हम एक हैं और अविभाज्य हैं, क्योंकि आप समुद्र को या नदी के जल को विभाजित नहीं कर सकते और जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उनकी जड़ें यहां हैं, उनके पवित्र स्थल यहां हैं। मैं नहीं जानता कि वे पाकिस्तान में क्या करेंगे। वह वक्त दूर नहीं जब वे वापस लौटें।’

अब सरदार पटेल के इस वक्तव्य पर जसवंत सिंह को कड़ी आपत्ति है। जसवंत सिंह के अनुसार – ‘इस प्रकार के वक्तव्यों ने पाकिस्तान के सामने चुनौती खड़ी कर दी कि वह पाकिस्तान को बरकरार रख कर दिखाए। पाकिस्तान के रूप में बने रहना ही पाकिस्तान का मकसद बन गया। प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इसी प्रकार एक टिप्पणी की कि हमें देखना है कि वे कब तक अलग रहते हैं। ऐसी टिप्पणियों पर पाकिस्तान के नागरिक काफी सतर्कता से ध्यान देते हैं।’ (पृष्ठ-422)

ठीक कहा जसवंत जी ने। विभाजन का समर्थन भी गलत और विरोध भी गलत! विभाजन के खिलाफ यदि पटेल और नेहरू ने वक्तव्य दिया तो उसे भी जसवंत सिंह ने चतुराई से इन्हीं नेताओं के खिलाफ खड़ा कर दिया। जसवंत सिंह के शब्दों में, विभाजन स्वीकार करके तो इन नेताओं ने गुनाह किया ही था।

पृष्ठ 413 पर जसवंत सिंह विभाजन के एक प्रमुख कारण का जिक्र करते हुए उसमें भी मुस्लिम लीग को निर्दोष साबित करने की कोशिश करते हैं- ‘यहां एक कारण और है जिस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है जिसकी वजह से शायद कांग्रेस ने विभाजन को मंजूरी दी थी। यह शिकायत थी कि अंतरिम सरकार ने न तो समरसता के साथ काम किया और न ही एक मंत्रिमंडल की तरह। यद्यपि नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री थे लेकिन वे खुद को वास्तविक सरकार के प्रधानमंत्री की तरह प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसा व्यवहार वित्त मंत्री लियाकत अली खां के नकारात्मक काम से और अधिक खराब हो गया क्योंकि उन्होंने जानबूझ कर योजनाओं को विफल कर दिया। अंतरिम मंत्रिमंडल इसलिए भी असफल रहा क्योंकि सबसे पहले नेहरू चाहते थे कि उन्हें एक अधिकृत मंत्रिमंडल का वास्तविक प्रधानमंत्री समझा जाए। यह एक ऐसा दावा था जिसका कि मुस्लिम लीग ने घोर विरोध किया।’
अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस नेताओं को क्या अनुभव आए, इस पर ही यदि कोई शोध करना चाहे तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। सुविज्ञ पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि अंतरिम सरकार में शामिल मुस्लिम लीग न सिर्फ पाकिस्तान प्राप्त करने वरन् हिन्दुस्तान को कई टुकड़ों में विभाजित करने की योजना पर गहराई से काम कर रही थी। इसके लिए लीग के मंत्री सरकारी मशीनरी की पूरी सहायता ले रहे थे। जसवंत सिंह जी ने अंतरिम सरकार के अनुभवों को जिस तरह से कुछ पन्नों में और वह भी नेहरू-पटेल के खिलाफ अपने तर्कों को मजबूती देने के लिए इस्तेमाल किया है, इसे किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अब जरा देखिए कि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की विफलता के लिए दोष किस प्रकार पंडित मदन मोहन मालवीय और अन्य नेताओं पर मढ़कर जसवंत सिंह मुस्लिम लीग को विभाजन संबंधी सारे आरोपों से बरी करते हैं।

पृष्ठ 184 पर आगा खां को उद्धृत करते हुए जसवंत लिखते हैं- ‘महात्मा गांधी ने हमारे होने के महत्व को अच्छी तरह से पहचान लिया था। शायद वे हमारे विचारों से सहमति की राह पर भी थे मगर पंडित मदन मोहन मालवीय और हिंदू महासभा ने हमारे खिलाफ काफी दबाव डाला-उन्होंने निरे अव्यावहारिक राजनीतिक सिध्दांतों और नीतियों के आधार पर ऐसे तर्क रखे जो भारत की वास्तविकताओं से एकदम असंगत थे और 1947 के भारत विभाजन ने इसे साबित भी कर दिया।’

पुन: इसी मुद्दे पर मुहम्मद शफी की बेटी शाहनवाज हुसैन के उद्धरण को रखते हुए जसवंत लिखते हैं-’एक समय ऐसा आया जब मुसलमान और उदारवादी आपस में सहमत भी हो गए थे और एक समझौता वास्तव में संभव लगने वाला था।…यहां तक कि खुशी में शफी ने मिठाई और शराब मंगवा ली थी और मुसलमान प्रतिनिधि इस मौके पर खुशी मनाने के लिए होटल रिट्ज में आगा खां के कमरे में इकट्ठा भी हो गए लेकिन यह पार्टी शुरू भी न हो पाई कि सिखों और हिंदू महासभा की सहमति लेने गए गांधी खाली हाथ ही लौटे। उन्होंने वापस आकर कहा-मैं माफी चाहता हूं कि मैं समझौते के अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सका। सिख समुदाय और हिंदू महासभा के लोग प्रस्ताव पर तैयार नहीं है।’

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस की असफलता और इसमें गांधीजी की भूमिका के बारे में टिप्पणी करते हुए जसवंत अपनी हिंदी पुस्तक के पृष्ठ 185 पर लिखते हैं-’गांधी सांप्रदायिक अपील की शक्ति को जानते थे और वे यह भी जानते थे कि अगर वे सार्वजनिक रूप से हिंदू मांगों के विरूद्ध स्वयं को प्रतिबद्ध करते हैं तो कांग्रेस को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है।’

इसी प्रकरण में मुस्लिम लीग और जिन्ना का बचाव करते हुए जसवंत सिंह पृष्ठ 194 पर लिखते हैं-’वास्तव में हिंदू-मुस्लिम एकता में लगातार असफलता मिलना ही जिन्ना की सबसे गहरी निराशा थी। बाद के एक भाषण में जिन्ना ने सन् 1938 में अलीगढ़ एंग्लो-मुस्लिम कॉलेज के छात्रों के सम्मुख यह ख्याल रखे भी थे-’गोलमेज सम्मेलनों की बैठकों से मुझे जीवन का सबसे बड़ा धक्का लगा। मैंने खतरे के सही चेहरे को देखा। हिंदुओं की भावनाओं, उनके दिमाग और उनके रवैये से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एकता की अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। इस पर मैंने अपने देश के प्रति काफी निराशा महसूस की। यह स्थिति सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण थी। मुसलमान तब एक ‘नो मेंस लैंड’ में रहने वाले लोगों के समान हो गए थे, वे या तो ब्रिटिश सरकार के गुलाम होते या कांग्रेस खेमे के अनुयायी। जब भी मुसलमानों को संगठित करने के प्रयास किए गए तो एक ओर चापलूसों और गुलामों ने व दूसरी ओर कांग्रेसी खेमे के गद्दारों ने इन प्रयासों को कुंठित किया। मैंने तब महसूस करना शुरू किया कि न तो मैं भारत की मदद कर सकता हूं और न ही हिंदुओं की मानसिकता को बदल सकता हूं।…बहुत निराशा और दु:ख के बाद मैंने लंदन में बसने का फैसला लिया।’

इस पूरे प्रकरण में जसवंत सिंह ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की असफलता के संदर्भ में किसी कांग्रेस नेता या किसी अन्य हिंदू पक्ष का कोई वक्तव्य उद्धृत करना उचित नहीं समझा। आखिर इस प्रकार से मुस्लिम लीग के पक्ष को और जिन्ना के वक्तव्य को विस्तार से उद्धृत करने का क्या मतलब निकाला जाए। अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि जो बात और जो तर्क पाकिस्तान इतिहासकार, मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस पक्ष को और हिन्दू नेताओं को दोषी ठहराने के लिए बार-बार दोहराते हैं, उन्हें ही जसवंत सिंह जी ने एक नये आवरण में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ऐसा कर क्या जसवंत सिंह स्वयं को मुस्लिम लीग का प्रवक्ता नहीं साबित कर रहे हैं?

जसवंत सिंह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की चिंताजनक स्थिति पर भी बेहद चिंतित स्वर में कहते हैं कि उन्हें आज भी उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। जसवंत सिंह का मानना है कि बंटवारे के समय उठे सवाल अधूरे हैं और उनका उत्तर अभी तलाशा जाना शेष है-
‘आज भारत में सिद्धांत रूप में हम सब समान नागरिक हैं, यह हमारे गणराज्य की नींव का पहला पत्थर है। परंतु क्या सिद्धांत को हम यथार्थ में बदल पाए हैं? इस संविधान को पारित करते ही हमने विशेष अधिकार देने शुरू कर दिए। लेकिन चुने हुए रूप में ही। इसलिए स्वाभाविक है कि भारत के मुसलमान नागरिक भी इसमें हिस्सा मांगें। इस मांग का प्रत्युत्तर हमेशा आहत करने वाले स्वर में ही मिलता है कि अभी भी विशेष अधिकार? पाकिस्तान के बाद भी? क्यों? और इसी वजह से बंटवारे की कभी खत्म न होने वाली कार्यसूची का यह प्रश्न बार-बार उठता है।…बंटवारे ने इन प्रश्नों को और अधिक जटिल बना दिया है…इनका समाधान कैसे होगा?’ (पृष्ठ 439)

पुस्तक में अनेक स्थानों पर जसवंत सिंह ने भारत की प्राचीन एकता और उसे बनाए रखने की प्रबल आवश्यकता को जिन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है वास्तव में वह प्रशंसा योग्य है। नि:संदेह जसवंत सिंह की भारत भक्ति पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इन सबके बीच आजादी के आंदोलन में भारत की एकता के सबसे बड़े शत्रु का बचाव कर उन्होंने खुद ही अपनी आलोचना को आमंत्रण दिया। भारत विभाजन पर उनकी एक टिप्पणी सचमुच अंदर तक हमें प्रभावित करने में सक्षम है और ऐसी टिप्पणियां पुस्तक में यत्र-तत्र पढ़ने को मिलती भी हैं -
‘यह हानि केवल व्यक्तिगत नहीं थी और न ही केवल पंजाब या बंगाल में थी। भौगोलिक और आर्थिक रूप से स्थापित हस्तियां, प्राचीन सांस्कृतिक एकता जिन्हें अनुपम रूप से एकात्म होने में हजारों-हजार साल लगे, वह छिन्न-भिन्न करके बिखेर दी गयीं। एक प्राचीन देश का, उसके लोगों का, उनकी संस्कृति का, उनकी सभ्यता का यह ऐतिहासिक सम्मिश्रण जान-बूझकर कई टुकड़ों में खंड-खंड कर दिया गया।’
बहुत सारे गूढ़ सवाल भी जसवंत सिंह ने उठाए हैं। मसलन, आजादी पहले मिलती और बंटवारा बाद में होता जैसा कि गांधी बार बार कह रहे थे तो स्थिति शायद दूसरी होती। अचानक विभाजन के कारण और वह भी किसी सर्जरी के समान, इससे जो मार-काट उस समय मची, हिंदू-मुस्लिम एकता हमेशा के लिए दांव पर लग गई, हिंदू-मुसलमान के नाम पर दो देश अस्तित्व में आ गए, और दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ा कि अनेक मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ को दखलअंदाजी करनी पड़ गई। क्या इससे बचने का दूसरा रास्ता न था?

जसवंत सिंह का यह कहना भी वाजिब ही लगता है कि ”इस बंटवारे से क्या समाधान हो गया जबकि अल्पसंख्यकवाद आज भी और भयानक रूप लेकर हमारे सामने खड़ा हो गया है। इससे हिंदू-मुस्लिम समस्या कहां सुलझी। समस्या तो आगे के लिए टरका दी गई।”

पुस्तक में अनेक स्थानों पर जसवंत जी की भावना सकारात्मक और अखण्ड भारत के समर्थन में खड़ी दिखाई देती है। चूंकि पुस्तक लेखन का केंद्र जिन्ना हैं इसलिए लेखक को सहज रूप में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और इतिहास की सच्चाई को दरकिनार कर जिन्ना के कर्मों को जायज ठहराना ही मानों उनका लेखकीय दायित्व बन गया है जिसे उन्होंने भरपूर निभाया भी। जैसा कि पुस्तक के अंतिम अध्याय में वे निष्कर्ष रूप में लिखते हैं- ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत से पाकिस्तान के कायदे आजम तक जिन्ना की जीवन यात्रा वीरगाथात्मक यात्रा है।…यह जिन्ना का वृत्तांत है-एक व्यक्ति और उसके नायकोचित प्रयासों का। और साथ ही दूसरों के प्रयासों का भी।’ तो इसे साबित करने के लिए वे किसी भी हद को पार करने से नहीं चूके हैं।(पृष्ठ 472-473)

देखिए जसवंत सिंह किस बारीकी से जिन्ना को विभाजन के दोष से मुक्त करते हैं। अंतिम अध्याय में वे लिखते हैं- ‘इस बात को सोचते हुए पीड़ा होती है कि हम इस सौदे (देश विभाजन और सत्ता हस्तांतरण) के लिए भी राजी हो गए और गलत तरीके से हमने इसे सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण की उपाधि भी दे दी। भारत, इस ‘हस्तांतरण’ की कीमत आज भी अदा कर रहा है। निश्चित रूप से यह तो मुहम्मद अली जिन्ना के चुनिंदा मकसदों में कहीं नहीं था, क्योंकि उनकी यात्रा पाकिस्तान का कायदे-आजम बनने की थी। यह तो हमारी खुद की करनी है।’ (पृष्ठ 471)

उपरोक्त दोनों उद्धरण ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि जसवंत सिंह की पुस्तक के पीछे की मूल भाव-भावना क्या है?
जारी …………..
-राकेश उपाध्याय


Wednesday, September 9, 2009

जसवंत सिंह! सरदार पटेल पर उंगली क्यों?

जसवंत सिंह की पुस्तक के अध्ययन से जो निष्‍कर्ष निकलता है उससे साफ है कि पुस्तक जिन्ना की अतिरेकी प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह भारतीय राजनीति के स्थापित नेताओं के खण्डन का बौद्धिक प्रयास है।



पुस्तक में लेखक खुद ही अन्तर्द्वन्द्वों के घेरे में एक नहीं अनेक स्थानों पर घिरे नजर आते हैं। वह जो सिद्ध करना चाहते हैं उसके माकूल उद्धरण नहीं मिलने पर वह जिन्ना के खिलाफ भी खड़े होते हैं। लेकिन इसके बावजूद पूर्वाग्रह इतना प्रबल है कि जसवंत सिंह के अनुसार जिन्ना विभाजन का दोषी नहीं था। यह कहने में उनकी हिचकिचाहट बार-बार नजर आती है।


सवाल उठता है कि विभाजन गलत था तो जिन्ना सही कैसे था? माना कि गांधी-नेहरू-पटेल ने विभाजन स्वीकार किया लेकिन ये मांग किसकी थी और यह मांग करने वाला जिन्ना विभाजन के आरोप से बरी कैसे किया जा सकता है?


इतिहास के झरोखे से विविध उद्धरणों को उठाकर जसवंत ने जिन्ना को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया लेकिन इतिहास क्या सचमुच जिन्ना को निर्दोष मानता है। यहां सवाल यह भी उठता है कि 1857 की क्रांति के बाद क्या जिन्ना पहले मुसलमान नेता थे जिनका शुरूआती जीवन कथित तौर पर राष्‍ट्रवादी था और कालांतर में वह घोर सांप्रदायिक व्यक्तित्व में परिवर्तित हो गया।

सर सैयद अहमद खां की जीवनी पढ़ें तो क्या वह सार्वजनिक जीवन की शुरूआत में राष्‍ट्रवाद की वकालत नहीं करते थे? क्या उन्होंने ये नहीं कहा था कि हिंदू और मुसलमान भारत मां की दो आंखें हैं। लेकिन बाद में ऐसा क्या हुआ कि सर सैयद हिंदुओं को सरेआम कोसने लगे जबकि उन्हीं हिंदुओं ने उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय की स्थापना में भरपूर सहयोग दिया?


हम चाहे सुहरावर्दी की बात करें या लियाकत अली खां की, रहमत अली की बात करें या अल्लामा इकबाल की, आजादी के आंदोलन में जिन मुस्लिम नेताओं पर भी राजनीति का सुरूर चढ़ा वे जीवन के अंत में कहां जा कर खड़े हुए? यदि इस मानसिकता का अध्ययन होगा तभी भारत विभाजन और तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व का सही अध्ययन हम कर पाएंगे।
इसके विपरीत मक्का में पैदा हुए, मिश्र में पले बढ़े मौलाना अबुल कलाम आजाद, अफगानिस्तान की आबोहवा में पल बढ़े खां अब्दुल गफ्फार खां जैसे नेताओं को देखें तो हम पाते हैं कि वे जीवन की अंतिम सांस तक अपनी मूल भूमि की एकता और अखण्डता के प्रति वफादार रहे।


तो सवाल उठता है कि भारत के मूल प्रवाह के साथ रह रहे मुसलमान नेताओं को क्या कहीं बरगलाया तो नहीं गया? जसवंत कहते हैं कि नहीं, उन्हें तो गांधी-नेहरू और पटेल ने किनारे लगाने का प्रयास किया। जसवंत ने पुस्तक में बार बार कांग्रेस को हिंदू कांग्रेस कहकर संबोधित किया है, आखिर क्‍यों? इतिहास के अध्येता जानते हैं कि चाहे गांधी हों या पटेल या फिर नेहरू, इन सभी नेताओं ने आजादी के आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को साथ लाने के लिए अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। अनेक सवालों पर ये नेता हिंदू समाज की मुख्य धारा के खिलाफ भी खड़े हो गए। हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग 1857 की क्रांति की असफलता के बाद भी इस बात पर अडिग था कि सशत्र संघर्ष के रास्ते अंग्रेजों को बाहर खदेड़ा जा सकता है। वासुदेव बलवंत फड़के आदि क्रांतिकारियों ने 18वीं सदी के अंत में ही इस मार्ग को प्रशस्त कर दिया था। लोकमान्य तिलक और योगी अरविंद इस मार्ग के द्वारा आजादी के मार्ग की संभावनाओं को टटोल रहे थे। कालांतर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह ने जिस मार्ग को अपना जीवनपथ ही बना लिया, जिस मार्ग की वकालत वीर सावरकर कर रहे थे, अपने शुरूवाती जीवन में डाक्टर हेडगेवार ने भी जिस मार्ग की वकालत की उस क्रांतिकारी मार्ग पर चलने से भारत के धर्मप्राण समाज को आखिर किसने रोका? क्रांति बलिदान मांगती है, जाहिर है हिंसा के बीज भी इसमें अन्तर्निहित रहते हैं और भारत के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालने से स्पष्‍ट भी होता है कि अधर्म के विरूद्ध हिंसक संघर्ष को भारत का लोकजीवन सदा से ही अपना समर्थन देता आया है। हिंदुओं से जुडे सभी पौराणिक ग्रंथ, वैदिक परंपरा, वेद, रामायण, महाभारत और गीता ने न्याय की रक्षा, असत्य के विनाश के लिए इस हिंसक संघर्ष के पथ को मान्य किया है।


लेकिन गांधी, नेहरू और पटेल ने इस परंपरा के विरूद्ध जाकर हिंदुओं को अहिंसा का मंत्र दिया। ये मंत्र सही था अथवा गलत, इसकी मीमांसा समय आज भी कर रहा है और आगे आने वाले समय में भी करेगा। वस्तुत: गांधी-नेहरू पर कोई आरोप लग सकता है तो यही लग सकता है कि इन नेताओं ने हिंदू समाज को सशस्त्र संघर्ष के मार्ग से परे ढकेल दिया इसके विपरीत जिन्ना और उसकी मंडली लड़कर लेंगे पाकिस्तान का नारा बुलंद कर रही थी। खलीकुज्जमां चौधरी, लियाकत अली खां जैसे लीगी नेता जब ये कह रहे थे कि यदि पाकिस्तान का निर्णय तलवार के बल पर होना है तो मुसलमानों के इतिहास को देखते हुए ये ज्यादा महंगा सौदा नहीं है, तो उस समय गांधी और नेहरू आखिर क्या जवाब दे सकते थे जबकि उनके हाथों में तलवार तो क्या एक चाकू भी नहीं था।


इसके विपरीत जिन्ना खुद ही सीधी कार्रवाई का ऐलान कर रहे थे कि हमने अब सभी संवैधानिक उपायों को तिलांजलि दे दी है और हम बता देना चाहते हैं कि हमारी जेब में भी पिस्तौल है। नि:संदेह देश में गृहयुद्ध के हालात पैदा किए जा रहे थे और ये सारा काम मुस्लिम लीग अंग्रेजों की शह पर कर रही थी।


हमने पहले ही ये सिद्ध किया कि जिन्ना ने कभी आजादी के किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया। गांधी के सन् 1915 में भारत आने के पहले भी नहीं और बाद में भी नहीं। कांग्रेस पक्ष में भी वह मुसलमानों का वकील बनकर खड़ा दिखाई देता था यद्यपि व्यक्तिगत जीवन में उसका ईश्‍वर, अल्लाह या ऐसी किसी पराशक्ति के उपर शायद ही कोई विश्‍वास था। उसका जीवन ऐशो आराम और भोग की चरम पराकाष्‍ठा पर था। इसके बावजूद जब जसवंत सिंह गांधी को प्रांतीय और धार्मिक नेता कहते हैं और जिन्ना को राष्‍ट्रवादी तो हंसी आती है। जरा देखिए कि गांधी 1915 के बाद देश में क्या कर रहे हैं और जिन्ना किस काम में लगे हैं। गांधी एक ओर चम्पारण में नीलहे किसानों के साथ खड़े हैं, गुजरात में बारडोली के किसानों के पक्ष में सरदार पटेल का साथ दे रहे हैं तो दूसरी ओर जिन्ना लखनऊ में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डलों के आरक्षण के सवाल पर बहस कर रहे हैं। और इससे जो समय बचता है तो अपने एक पारसी मित्र दिनशा पेटिट की 15 साल की लड़की को फुसलाकर भगाने के काम में सक्रिय रहते हैं। जिन्ना अंतत: पेटिट की बेटी डिना को घर से भगा ले जाते हैं। इस पर दिनशा पेटिट जिन्ना के खिलाफ अपनी बेटी के अपहरण का मुकदमा दर्ज करवाते हैं और इतिहास गवाह है कि जिन्ना सन् 1917 से 1918 के बीच फरारी का जीवन व्यतीत करते हैं।


सहज ये सवाल उठता है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने की कोई योग्यता जिन्ना में नहीं थी फिर भी उसने मुसलमानों का दिल जीत लिया तो उसके पीछे कारण गांधी, नेहरू या पटेल नहीं थे उसके पीछे का कारण वह विष बेल थी जिसे अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में पैदा किया। जिसका ताना बाना लंदन में चर्चिल के नेतृत्व में बुना गया कि हिंदुस्तान वाले यदि आजादी चाहते हैं तो उन्हें ऐसा हिंदुस्तान सौंपो जिसके कम से कम तीस टुकड़े हो जाएं।


जसवंत सिंह क्या बात करेंगे? समय रहते ही अंतरिम सरकार में सरदार पटेल ने मुस्लिम लीग की अंग्रेजों से मिलीभगत को पहचान लिया था। सरदार ने अनेक स्थानों पर इस बात का जिक्र भी किया कि जिन्ना रूपी जहर को निकाला जाना जरूरी हो गया है अन्यथा देश को अंग्रेज एक नहीं दर्जनों टुकड़ों में विभक्त कर देंगे।
और तब जो बरबादी होती क्या उसकी कल्पना किसी ने की थी। सरदार तो पाकिस्तान देने के भी इच्छुक नहीं थे, लेकिन दिल पर पत्थर रखकर उन्होंने इसे स्वीकृति दी। और क्या अंग्रेजों ने सिर्फ पाकिस्तान का ही निर्माण किया? इतिहास गवाह है कि देश की सभी रियासतों को अंग्रेजों ने कह दिया था कि यदि वे चाहें तो भारत के साथ रहें। यदि वे भारत से अलग रहना चाहते हैं तो वे अलग जा सकते हैं।
जसवंत सिंह तो केंद्र में मंत्री रहे हैं। एक कंधार विमान अपहरण से उनके हाथ पैर फूल गए और वे आतंकवादियों को अपने साथ विमान में बिठाकर कंधार रवाना हो गए। सरदार पटेल के सामने क्या परिस्थिति रही होगी जबकि सारे देश की एकता और अखण्डता ही अंग्रेजों ने दांव पर लगा दी थी। देश एक रह पाएगा भी अथवा नहीं, पाकिस्तान का सवाल तो जुदा है क्योंकि उसे तो अंग्रेज मान्यता दे गए थे लेकिन अपरोक्ष रूप से चर्चिल के चेलों ने हिदुस्तान को सैंकड़ों छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने का जो पांसा फेंका था उससे कैसे निबटा गया यदि उसके कुछ पन्ने भी जसवंत सिंह ने पलटे होते तो उन्हें पता लग जाता कि सरदार देश विभाजन के दोषी थे अथवा देश की एकता को बनाए रखने वाले असरदार नेता थे।


इसी में हैदराबाद के निजाम, जूनागढ़ के नवाब और जोधपुर के महाराज सहित जाने कितने बिगड़ैल घोड़ों पर हिंदुस्तान की एकता की सवारी गांठने का महान कार्य सरदार ने सम्पन्न कर दिखाया, क्या संसार के इतिहास में कहीं अन्यत्र ऐसा उदारहण मिलता है?
देश का दुर्भाग्य कि सरदार आजादी के दो वर्ष बाद ही स्वर्ग सिधार गए अन्यथा जसवंत सिंह जी आपको यह पुस्तक लिखने की नौबत ही नहीं आती। तब शायद जो पुस्तक लिखी जाती उसका शीर्षक होता- ‘पाकिस्तान: निर्माण से भारत में विलय तक’।
जिन्ना प्रेम में सरदार के लौहहृदय का इतना छलपूर्वक और सतही विवेचन आपने क्यों किया जसवंत सिंह, इतिहास आपसे इस सवाल को जरूर पूछेगा। क्या यह सही नहीं है कि सरदार ने शीघ्र ही पाकिस्तान के विनष्‍ट होने की भविष्‍यवाणी की थी? क्या यह सही नहीं है कि सरदार ने जिन्ना और उनके चेलों को चुनौती दी थी कि देखें, कितने दिन तुम पाकिस्तान को अपने साथ रख पाते हो? आप कहते हैं कि कांग्रेस के नेता बूढ़े हो चले थे, ये बात कांग्रेस के नेताओं ने ही स्वीकार की है। लेकिन सरदार भी बूढ़े हो गए थे क्या? क्या उन्होंने अपनी आरामतलबी के लिए देश का विभाजन स्वीकार किया? नेहरू क्या कहते हैं उस पर मत जाइए, सरदार क्या कह रहे थे और क्या कर रहे थे, थोड़ा उस पर ध्यान दीजिए। सरदार एक ओर ह्दय की गंभीर तकलीफ से जूझ रहे थे तो दूसरी ओर देश की तमाम रियासतों के भारत में विलय के लिए संपूर्ण देश में दौड़ भाग कर रहे थे। अपने जीवित रहते ही आजादी के बाद की दो साल की अल्पावधि में उन्होंने उस महान कार्य को पूर्ण कर लिया जिसे करने के लिए भारतीय इतिहास चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक और अकबर को याद करता है। एक चक्रवर्ती भारत, एक बलशाली अखण्ड भारत, भारतीयों द्वारा स्वशासित भारत, देश के करोड़ों आम नागरिकों का अपना भारत, भारत के लिए भारत, समस्त मानवता को दुख-कलह से दूर कर शांति के नए युग का संदेश देता भारत, उस भारत के लिए सरदार जी रहे थे, संघर्ष कर रहे थे।
इतिहास के अध्येता जिन्होंने भी सरदार के जीवन का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है वह ये मानने से शायद ही इंकार करें कि सरदार 10 वर्ष और जीवित रह गए होते तो पाकिस्तान का अस्तित्व समाप्त हो जाता। सरदार पंचशील और अहिंसा की मीठी-मीठी बातों में आने वाले नहीं थे। वे संसार की तत्कालीन वास्तविकता को जानते और समझते थे। वो शांति और अहिंसा की स्थापना के पीछे छिपे ताकत के बल को समझते थे इसलिए वे शक्ति की उपासना के कायल थे। इसीलिए उन्होंने संसद में अपने भाषण में कट्टरवादियों को ललकारा था कि अब फिर से अलगाववादी विशेषाधिकारों का राग अलापना बंद कर दो। पंडित नेहरू को जीवित रहते ही सरदार ने चीन के नापाक इरादों से सावधान कर सैन्य शक्ति के सुसंगठन पर ध्यान देने को कहा था।


देश की दुर्दशा को हर मोर्चे पर दूर करने का उनका सपना था। जसवंत सिंह, आप और आपकी तत्कालीन सरकार तो राम का नाम लेकर सत्ता में जा पहुंची, लेकिन अयोध्या में एक इंच जमीन भी आप राममंदिर के नाम पर हिंदुओं को दिला न सके। और तो और जो जमीन रामजन्मभूमि न्यास की थी, जो अविवादित भूमि थी जिस पर कोई विवाद नहीं था, जिस पर निर्माण प्रारंभ करने देने में मुसलमानों को भी कभी कोई आपत्ति नहीं रही, आपके और आपके सहयोगी मंत्रियों की कारस्तानी ने उस भूमि को भी विवादित बना दिया और न्यायालय ने उस पर भी निर्माण से रोक लगा दी।


लेकिन इसके विपरीत सरदार के जीवन पर एक निगाह डालिए और अपने पूर्व मित्र श्री आडवाणी से भी कहिए कि सरदार पटेल के जीवन के पन्नों को फिर से पलट लें कि कैसे बिना कोई विवाद खड़ा किए, हिंदुस्तान की प्राचीन धरोहर का पुनर्निर्माण किया जाता है। सिंधु सागर के तट पर खड़े होकर सरदार पटेल ने कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के साथ शपथ ली थी कि हे soomnaath! bharat ke kan kan me, saans saans me samaye he anaadi shankar! अब भारत आजाद हो चुका है, भारत कभी मिट्टी में नहीं मिलेगा उसी तरह जैसे तुम अपने ही खण्डहरों से पुन: उठ खड़े होने जा रहे हो, वैसे ही ये देश दासता की भयानक काली रात के सन्नाटे से निकल कर उगते सूर्य की उषा किरण में तुम्हें जलांजलि dene के लिए उठ खड़ा हो रहा है। ये देश अमर है, इसकी संस्कृति अमर है, इसका विश्‍व मानवता के लिए संदेश अमर है-सर्वे भवन्तु: सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।


ये सरदार थे jinhone विदेशी आक्रमणों की आंधी में उध्वस्त हो गए द्वादश ज्यातिर्लिंगों में एक सोमनाथ मंदिर की फिर से प्राण प्रतिष्‍ठा की। मानों 11 वीं सदी में हिंदुस्तान को गुलाम बनाने के लिए एक के बाद एक भयानक हमलों का जो सिलसिला सोमनाथ को ध्वस्त कर प्रारंभ किया गया था सरदार ने उसी मंदिर के शिलान्यास से दुनिया में भारत विजय के अभियान का श्रीगणेश किया था।
जसवंत सिंह! सरदार के जीवन के ये पन्ने आप क्यों नहीं पढ़ सके? शेष अगले अंक में……
-राकेश उपाध्‍याय

Saturday, September 5, 2009

अभी भगीरथ जिन्दा हैं, नचिकेता शेष हैं

उम्र से बड़प्पन नहीं आता
दिमाग से भी नहीं,
ये दिल का सवाल है भाई
दिल बड़ा है तो
आदमी भी बड़ा हो जाता
है।

जगत में आए हो तो
कुछ ऐसा कर जाओ कि
आने वाली नस्लें तुम्हें
सम्मान से याद करें, जब
तुम मिलो अपने चाहने वालों से
तो तुम्हारी आँखें ना झुकें


यदि कहीं तुम उंचे उठ जाओ
भाई ना किसी को सताओ,
अनुशासन के कोड़े की अपनी मर्यादा
कुछ काम प्रेम से भी


इस बात को ठीक समझ लो
कि विचार पर आघात या
फिर संवाद में करना विवाद
या किसी की कलम तोड़ देना
अभिव्‍यक्ति पर जुल्‍म ढाना है,
इससे तो महानता
नहीं ही मिलेगी
इससे बड़ी हरकत
नहीं हो सकती है कायराना।


दम है तो लेखन में आओ
संवाद की दम रखो
और आजमाओ, पता चल जाएगा
कि पानी कितना है
पद का अभिमान मत पालो
कल तो है ही इसको जाना॥


बड़े बड़े रावण और कंस
जानते हो क्यों मारे गए?
क्‍योंकि उन्हें उनके अहं
ने गुमान से इतना भर दिया
कि उन्हें दिखना बंद हो गया
कि सच क्या है? व्यक्ति का विचार
क्या है, किस धरातल पर खड़ा है।


प्रतिभा है तो पराजय कहां
परिश्रम है तो थकना भी क्या,
सरिता है तो रूकेगी नहीं
सागर है तो नदी का क्‍या।


सबको समाहित कर ले जो
चलाए सही राह पर
उसे ही महान मानो,
दूसरों की त्रुटियां गिना कर
अपनी जगह बनाए जो
उसे तो हैवान जानो।
डाह, ईर्ष्‍या से कभी कोई
क्या महान बन सका है?
पीड़ित मानवता को क्या
ऐसा आदमी सुख दे सका है?
ये तो निरी नीचता है,
समाज के संघर्ष पर जो
सुख भोगने की सोचते हैं
अपना कुछ किया धरा नहीं
काम निकला नहीं कि
जगत से मुंह मोड़ते हैं।
बताओ भला! कैसे गिरे इंसान हैं
शर्म को बेचकर पी गए
भाइयों के जीवित रहते ही
उनकी कमाई को लीलते हैं।


अरे कुछ तो धर्म सीखें,
इतने कृतघ्न ना बनें,
दम है तो अखाड़े में लड़ें
अकेले ही धुरंधर ना बनें।


पर हे प्रभु!
हम ये गलती कभी ना करें
हम अभिमान छोड़ दें,
ये झूठी शान छोड़ दें
क्योंकि कलियुग है फिर भी
दया का, धर्म का, सत्य का
अभी राज्य मरा नहीं है
अभी भगीरथ जिंदा हैं,
अभी नचिकेता शेष हैं।


अग्नि की लपट उठे
सारा करकट जल मिटे
इसके पहले ही अपना कर्कट
भी अग्नि को अर्पित कर दो
और तब संभलकर होलिका के
चारों ओर
घूम-घूमकर परिक्रमा करो,
नहीं तो झुलसने का खतरा है
इसी में आशीष है, यही परंपरा है।

Wednesday, September 2, 2009

छंटे तिमिर, खिले तो उपवन

उठे जलजला जले जरा फूटे यौवन
छंटे तिमिर तरे जन खिले तो उपवन।
मन कानन में बाजे बंशी़, भोरे रे
गाय रंभाती,हमें बुलाती, दुह ले रे
यह सूर्य किरण, चमके घर~आंगन
भाग्य जगा है सुन~सुन तो ले रे।
उठे जलजला जले जरा फूटे यौवन
छंटे तिमिर तरे जन खिले तो उपवन।

इक आग जल रही है

इक आग जल रही है
ह्रदय में, ह्रदय मैं
निगलने को आतुर
मिलने को आतुर
उससे जो आग जल
रही है सबमें, रब में
इक आग जल रही है।

मुझको मालूम है
क्या तुमको मालूम है
कण कण में जो छिपी है
पैदायशी जो सबको मिली है
वो तुममे भी है
वो मुझमे भी है ,
वो आग तुममें भी
जल रही है ।
आओ जाने थोड़ा विचारें
अन्याय के सारे ठिकाने
इस आग में जला दें
मिला दें राख में
जो बन गए हैं शोषण के पुतले ॥

इक आग जल रही है।