Thursday, August 27, 2009

जसवंत सिंह! ये देश के साथ बौद्धिक गद्दारी है

जसवंत सिंह राजनीति में किस करवट बैठेंगे ये तो भविष्य ही बताएगा लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें निष्कासित कर खुद को एक बड़ी आपदा से बचा लिया। वास्तव में जिन्ना आधारित पुस्तक में जसवंत ने जिन्ना के पक्ष में जो प्रेमालाप किया है आगे चलकर उसके दुष्परिणाम देश और राष्ट्रवादी राजनीति को झेलने ही होंगे। पहले से ही संभ्रमों में उलझा हुआ भारतीय समाज अब और गहरे संभ्रमों का शिकार हो जाएगा।

जसवंत सिंह ने जिन्ना की प्रशंसा करने और देश के अन्य प्रमुख नेताओं की खाल उधेड़ने में पूरी चतुराई और मासूमियत का परिचय दिया है। भारत के विभाजन की बात करते करते कब वे देश विरोधी बातें करने लगते हैं यदि बारीकी से न पढ़ा जाय तो इसका पता भी नहीं चलता है। जाहिर है नई पीढ़ी के मन में उन्होंने अपने ही राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ घृणा का भाव भरने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

ऐसा नहीं है कि पूरी पुस्तक में जसवंत ने सब गलत ही गलत लिखा है। अधिकांशत: तो वे ऐसा बताते प्रतीत होते हैं कि वे अखण्ड भारत ke samarthak hain और विभाजन विरोधी लाइन पर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन अपने देशभक्तिपूर्ण लंबे-लंबे आख्यानों, उध्दरणों के बीच बीच वे जिस प्रकार से जिन्ना की प्रशंसा और हिंदू नेताओं की खामियों को गूंथते गए हैं, उसी से पता चलता है कि उनके मन की ग्रंथि कितनी भयावह है। जिन्ना प्रेम के अतिरेक की रौ में गांधी, नेहरू और सरदार पटेल समेत पूरी हिंदू नेतृत्व परंपरा को ही जसवंत ने विभाजन का दोषी ठहरा दिया है।

पुस्तक के द्वितीय अध्याय में जसवंत ने ये सिध्द करने का प्रयास किया है कि भारत की राजनीति में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता आया है। जिन्ना भी उसी दोयम दर्जे के व्यवहार के शिकार हुए और मुख्यधारा की राजनीति से अलग फेंक दिए गए। जसवंत के अनुसार,’ या तो नियति को कुछ और मंजूर था? या जिन्ना ही चतुराई नहीं दिखा सके? या और भी दु:खद रूप से कहा जाए तो क्या मुसलमान होना ही जिन्ना के लिए शुरू से नुकसानदेह साबित हुआ? राजनीतिक प्रभुता प्राप्त करने की निष्ठुर दौड़ में जिन्ना ताजिंदगी इस भारी विकलांगता को ढोते रहे।’

क्या जसवंत सिंह कहना चाह रहे हैं कि मुसलमान होना ही भारतीय राजनीति में जिन्ना का गुनाह हो गया? ये आरोप लगाकर जसवंत क्या सिध्द करना चाह रहे हैं? जरा सोचिए कि जिन्ना को राजनीति की डगर पर आगे लाने वाले कौन थे? लोकमान्य तिलक, दादा भाई नरौजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृश्ण गोखले, आखिर इसमें से कौन मुसलमान था? आगे चलकर भारतीय राजनीति में जो राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व आया जिसमें अबुल कलाम आजाद, जफर अली, हसरत मोहानी, शिबली नोमानी, हकीम अजमल खां, खां अब्दुल गफ्फार खां, डा. एम.ए. अन्सारी, रफी अहमद किदवई आदि के जीवन में क्या मुसलमान होना विकलांगता थी? जसवंत ने तो हिंदुओं किंवा भारतीयों की समग्र सहिष्णु परंपरा को यहां एक लाइन में दांव पर लगा दिया। वह परंपरा जिसने अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम स्वातंत्र्य समर में निर्विरोध बहादुर शाह जफर को अपना सम्राट घोषित कर दिया था।

धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर अपने विचार प्रकट करते हुए जसवंत सिंह अध्याय 5 में कहते हैं- ‘धर्म तो रिलिजन का सही अनुवाद बिल्कुल भी नहीं है। कुछ ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि जो धर्मनिरपेक्षतावाद पश्चिम से अब आया है वह तो एक जीवंत दार्शनिक परंपरा के रूप में भारत में बहुत पहले से ही मौजूद है। इस कई हजार साल पीछे लौटने में क्या यह भाव भी अन्तर्निहित नहीं है कि सांप्रदायिकता के लिए मुस्लिम समुदाय ही जिम्मेदार ठहराया जाता था और आज भी ठहराया जा रहा है?’

बहुत बारीकी से इसे देखें तो ध्यान में आएगा कि जसवंत वास्तव में क्या कह रहे हैं। उनके कहने का अभिप्राय यही है कि हिंदुओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता को अपनी जीवन पंरपरा से जोड़कर बताने का परिणाम ये है कि मुसलमान सांप्रदायिकता के लिए दोषी ठहरा दिए गए।

आगे बढ़ने के पूर्व पिछली कड़ी में उल्लिखित कुछ बातों का पुर्नस्मरण आवश्यक है। अपनी पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के अध्याय दो के पृष्ठ क्रमांक 102 पर जसवंत सिंह उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में गांधीजी को ‘रिलीजियसली प्राविन्सियल’ बताते हैं तो वहीं पर जिन्ना को ‘सैध्दांतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष एवं राष्‍ट्रवादी उत्साह से लबरेज राजनीतिज्ञ’ की संज्ञा देते हैं।

मैंने ‘रिलीजियसली प्रॉविन्सियल’ का अनुवाद ‘पांथिक या धार्मिक भाव-भावना से युक्त प्रांतीय’ स्तर के नेता के रूप में लिया है। वैसे शब्दकोश में ‘प्रॉविन्सियल’ के मायने ‘संकीर्ण’ और ‘गंवार’ भी है। जसवंत आखिर गांधी को क्या कहना चाहते हैं ये तो ठीक से वे खुद ही बता सकते हैं। मेरे इस कथन के पीछे का कारण भी वाजिब है। मेरे द्वारा लिखी जा रही जिन्ना सीरीज़ को पढ़कर एक सज्जन ने मुझसे कहा-आप तो जसवंत को गलत उध्दृत कर रहे हैं। मैंने कहा कि कहां गलत उध्दृत किया है, मुझे बताइए? तो उन्होंनें तुरंत बता दिया कि उनकी पुस्तक के हिंदी संस्करण में कहीं भी ये मुद्दा नहीं आया है कि गांधी 1920 के शुरूआती दौर में एक ‘प्रादेशिक भाव भावना’ वाले नेता थे। मैं चकरा गया और मैंने फिर अंग्रेजी संस्करण का वाक्य उन्हें पढ़कर सुनाया तो वे भी चकरा गए कि ‘रिलीजियसली प्रॉविन्सियल’ का अनुवाद हिंदी में गलत क्यों कर दिया गया है? हिंदी संस्करण में लिखा है-’ द्वितीय विश्वयुध्द के आते आते गांधी का दृष्टिकोण और नीति पूरी तरह बदल चुकी थी। इन दिनों गांधी के नेतृत्व में लगभग पूरी तरह एक ‘धार्मिक और सही रोल व स्थान को तलाशते चरित्र’ के दर्शन होते हैं वहीं दूसरी ओर जिन्ना निस्संदेह एक सैध्दांतिक पंथनिरपेक्ष व राष्ट्रवादी उत्साह से भरपूर राजनीतिज्ञ की तरह उतरते हैं।’ अब इस अनूदित हिंदी पैरे की अंग्रेजी जो निष्चित रूप से जसवंत सिंह ने लिखी है, उसे पढ़ा जाए- “In any event, Gandhi’s leadership at this time had almost an entirely religiously provincial character, Jinnah, on the other hand was then doubtless imbued by a non sectarian, nationalistic zeal.” (p.102)

अब पाठकगण ही तय करें कि उपरोक्त अंग्रेजी वाक्य का सही अनुवाद क्या होगा? मुझे जो सही लगा और जो सही है उसे मैंने अंग्रेजी संस्करण से अपनी भाषा में अनूदित कर लिया लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अधिकृत हिंदी संस्करण में क्या लिखा है उस पर मैं क्या टिप्पणी कर सकता हूं। जब ये गलती ध्यान में आई तो मैं अंग्रेजी संस्करण लगभग पूरा पढ़ चुका था और दूसरी किश्त वेब पर पोस्ट हो चुकी थी। लेकिन बाद में मैंने पुस्तक के हिंदी संस्करण को जब ध्यान से पढ़ना शुरू किया तो ध्यान में आया कि इसमें तो गजब गड़बड़-झाला किया गया है, अनेक स्थानों पर वाक्य भ्रम भी पैदा करते हैं। अतएव हिंदी संस्करण के पाठकों को बहुत ही सावधानी से पुस्तक पढ़नी चाहिए। जसवंत सिंह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सम्बंधी जो लघु टिप्पणी अंग्रेजी पुस्तक में लिखी है वह तो पूरी की पूरी ही हिंदी संस्करण से गायब कर दी गई है। आखिर ये क्यों किया गया, उस पर बाद में प्रकाश डालेंगे।

पुन: जसवंत सिंह लिखते हैं कि ‘मुंबई में आयोजित स्वागत समारोह में जिन्ना ने जहां गांधी की पुरजोर प्रशंसा की वहीं गांधी की प्रतिक्रिया अपमानजनक और हतोत्साहित करने वाली थी।’

जसवंत सिंह जिन्ना की प्रशंसा और गांधीजी की आलोचना का कोई मौका चूकते हुए दिखाई नहीं देते। एक कुशल क्रिकेट कमेंटेटर की भांति लेखकीय निष्पक्षता दरकिनार करते हुए जिन्ना के पक्ष में और राष्‍ट्रीय नेताओं के खिलाफ कमेंट्री की है।
जसवंत सिंह को 1920 के दशक में जिन्ना की मुस्लिम लीग में सक्रियता दिखाई नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि जिन्ना अनौपचारिक रूप से सन् 1911 में और औपचारिक रूप में 1913 में मुस्लिम लीग के विधिवत सदस्य हो गए थे। पाठकगण ध्यान रखें कि इस अवधि में भारतीय राजनीति में गांधी, नेहरू और पटेल कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति की कमान गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता जैसे उदारपंथियों के हाथ में है जबकि पूर्ण स्वराज्य के प्रखर समर्थक लोकमान्य तिलक 1908 से 1914 तक माण्डले जेल के कैदी के रूप में जीवनयापन कर रहे हैं।

ये उदारपंथी नेता जिनकी करनी के बारे में तिलक सीरीज में हमने काफी कुछ लिखा था, आखिर उस कालखण्ड में कर क्या रहे थे? कहना गलत न होगा कि वे दिन में संवैधानिक सुधार पर संगोश्ठी करते थे तो रात में अंग्रेज अफसरों की दावतें काटते थे। औपनिवेशिक आजादी के सवाल पर मंथन चलता था और उसी में कुछ प्रगतिशील जिन्ना पंथी नेता कम वकील भी शामिल रहते थे। घुमा-फिराकर अंग्रेज इसी सवाल को उठाते थे कि हम भारत को औपनिवेशिक आजादी दे देंगे, डोमिनियन स्टेटस दे देंगे लेकिन भारत के नेताओं को इसमें अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी के संदर्भ में पहले स्पष्ट निर्णय कर लेना चाहिए।

पूर्ण स्वराज्य का सवाल तो बहुत बाद में आता है। लोकमान्य तिलक का हश्र देखकर भी भारतीय नेता ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे।

दरअसल हकीकत तो ये थी कि उस समय अंग्रेजों से प्रेमपींगे बढ़ाने के प्रयास अक्सर हिंदुस्तान के संभ्रांत वर्ग में चला करते थे। अंग्रेजों से सम्बंध और अंग्रेजी में महारत ये दो ऐसे गुण थे जिससे किसी बैरिस्टर की बैरिस्टरी हिंदुस्तान क्या दूर सागर पार लंदन में भी चल निकलती थी। अंग्रेजों से सम्बंध के लिए जरूरी था कि कांग्रेस या फिर किसी ऐसे संगठन का कमान अपने हाथ में ले ली जाए ताकि अपना प्रभाव बना रहे और वकालत भी हाथ की हाथ चमकती रहे।

लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस में इसी का विरोध प्रारंभ किया था, परिणामत: उनकी नरमपंथियों से ठन गई। बंग-भंग में लाल-बाल-पाल ने जो जनज्वार देश में खड़ा किया उसके परिणाम स्वरूप नरमपंथी भी संशकित हुए और अंग्रेज सरकार भी। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने तभी ढाका में मुर्स्लिम लीग की नींव रखवा दी थी क्योंकि वो जानते थे कि भारतीय मानस धर्म-जाति की दीवारें तोड़कर उनके खिलाफ एकजुट हो रहा है। इस एकजुटता को तोड़ने के लिए देश में ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ का झूठा हौव्वा खड़ा किया गया। अंग्रेजों ने अल्पसंख्यकवाद और उससे जुड़ी विभाजनकारी प्रवृत्तियों को मुस्लिम लीग के माध्यम से देश में गहरे स्थापित कर देने का अभियान शुरू किया। राष्ट्रवादियों के प्रबल प्रताप से ‘बंग-भंग’ तो मिट गया लेकिन ‘भारत-भंग’ की योजना पर चोट खाए ‘लंदन’ ने काम शुरू कर दिया। और इसी योजना को पूर्ण करने के काम में ‘विभीषण’ बने थे मोहम्मद अली जिन्ना।

मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राजनीति के प्रारंभ से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अपने साथियों के साथ माथापच्ची में लगे थे कि इस कथित औपनिवेशिक आजादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी क्या होगी? इस एक सवाल के अतिरिक्त कौन सा मुद्दा है जिसे जिन्ना ने अपने उस समय के राजनीतिक जीवन में स्पर्श किया? आप कलम चाहे कितनी ही क्यों ने घिस लें आप एक प्रमाण नहीं दे सकते कि जिन्ना ने बंग-भंग के ‘वातानुकूलित विरोध’ के अतिरिक्त 1901 से लेकर 1920 तक एक भी ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया हो या फिर किसी आंदोलन का श्रीगणेश किया हो? जिस लखनऊ समझौते के लिए जिन्ना की प्रशंसा की गई है, प्रकारांतर से देखें तो वह भी देश में मुस्लिमों के तुश्टीकरण का एक अप्रत्यक्ष प्रयास था जिसमें मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस से सौदेबाजी कर ये तय कराया कि विधायिका और कार्यपालिका में दो तिहाई सदस्य हिंदू और एक तिहाई सदस्य मुसलमान रहेंगे। इसी के साथ इस बात पर भी सैध्दांतिक सहमति बना ली गई कि मुसमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल गठित किये जाएंगे।

जसवंत सिंह ने पुस्तक में ‘डोमिनियन स्टेटस’ और ‘पूर्ण स्वराज्य’ की भी गजब परिभाषा दी है। अध्याय 4 में वे लिखते हैं कि ‘गांधी और नेहरू में ‘डोमिनियन स्टेटस’ और ‘पूर्ण स्वराज्य’ के सवाल पर तीखे मतभेद खड़े हो गए। गांधी जहां ‘डोमिनियन स्टेटस’ की वकालत कर रहे थे वहीं नेहरू ‘पूर्ण स्वराज्य’ की। ये विवाद 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में सामने आया और….इसको लेकर दो साल तक दोनों में मतभिन्नता बनी रही। सन् 1929 में जब नेहरू लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष बने तब जाकर ये विवाद सुलझा और कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य को अपना राजनीतिक लक्ष्य तय कर लिया।’

पुन: आगे बिना किसी उध्दरण के जसवंत सिंह अपनी बेबाक राय रखते हैं-भले ही दोनों नेताओं का लक्ष्य आजादी ही पाना था लेकिन दोनों अलग-अलग तरह की उम्मीद जगाते थे और उनकी प्रतिबध्दताएं भिन्न थीं। डोमिनियन दर्जे का मतलब था कि ब्रिटिश ताज के साथ जुड़े रहना, राजशाही से जुड़ी तमाम संस्थाओं में शामिल रहना…डोमिनियन दर्जे का एक मतलब यह भी था कि भारत में सत्ता हस्तांतरण किस तरह और किन शर्तों पर होगा इसको लेकर भी मोलभाव होगा। ब्रिटिश सरकार इस बात पर जोर देती थी कि अल्पसंख्यकों के अधिकार सुनिष्चित किए जाएं और उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो…। दूसरी ओर पूर्ण स्वराज का मतलब था कि ब्रिटिश राजशाही का विरोध, एकल राष्ट्रवाद…राजनीतिक तौर पर उठा-पटक…जो आगे चलकर गठित होने वाली सरकार की बागडोर राष्ट्रवादी लोगों के हाथ में सौंप देती। पूर्ण स्वराज का मतलब यह भी था कि नयी बनने वाली सरकार में अल्पसंख्यकों की सत्ता में भागीदारी की उम्मीद नहीं होगी।’

तालियां! तालियां! वाह क्या थ्यौरी प्रतिपादित की है जसवंत सिंह ने। चूंकि यहां उन्होंने किसी को उध्दृत नहीं किया है इसलिए कहा जा सकता है कि ये उनके अपने विचार हैं। अक्सर आजकल क्या होता है कि लोग विवाद से बचने के लिए अपने मनमाफिक बात कहने के लिए किसी दूसरे का उध्दरण उठा लेते हैं, अपनी बात भी कह देते हैं और किसी विवाद से बचने की पूरी संभावना बनाए रखते हैं कि ये तो फलां ने कहा था, मैंने तो सिर्फ उन्हें उध्दृत किया है। लेकिन यहां जसवंत ने किसी को उध्दृत नहीं किया है। डॉमिनियन स्टेटस और पूर्ण स्वराज्य के सम्बंध में ये संभ्रम भी उन्हीं अंग्रेजों और तिलक विरोधी खेमे की देन थी जिन्होंने डॉमिनियन स्टेटस का विरोध करने और पूर्ण स्वराज का पक्ष लेने के लिए तिलक को राजद्रोह के मुकदमें में जेल भेजवाया था।

जसवंत सिंह ने पूर्ण स्वराज को परिभाषित कर जाहिर कर दिया कि उन्हें भारत की महान विरासत के प्रति कितना गहन ज्ञान है? उन्होंने अपनी परिभाषा में अंग्रेजों के इस मत की पुष्टि भी कर दी कि अगर पूर्ण स्वराज्य दे दिया जाता जैसा कि तिलक मांग रहे थे तो देश में हिंदू राज आ जाता और अल्पसंख्यकों अर्थात मुसलमानों की नींद हराम हो जाती।
आखिर किस आधार पर जसवंत कह रहे हैं कि पूर्ण स्वराज का मतलब ये है कि अल्पसंख्यक सत्ता से बेदखल कर दिए जाएंगे। अरे! ये तो अंग्रेजों की गढ़ा हुआ तर्क था जिसे देश की आजादी को दो संप्रदायों की लड़ाई में उलझाने के लिए परवान चढ़ाया गया। जिसके आधार पर गांधी, नेहरू, पटेल सहित समूची कांग्रेस को जिन्ना और उनके अनुयायियों ने हिंदू पार्टी और सांप्रदायिक घोषित कर दिया। आखिर जसवंत सिंह जैसे एक राजनीतिज्ञ को ये समझने में भूल कैसे हो सकती है कि अल्पसंख्यक शब्द का वजूद भी हिंदुस्तान की राजनीति में 1857 तक नहीं था। सन् 57 की क्रांति की असफलता के बाद अचानक भारत में अल्पसंख्यक अवधारणा कहां से आ गई? इसे लाने वाले कौन थे? किसने इसे भारत में सींचने का काम किया? और इसके पीछे की उनकी सोच क्या थी?

आखिर देश के मुसलमानों को ये समझने और समझाने में क्या दिक्कत हो सकती थी कि जिस देश पर गोरी, गजनवी, खिलजी, गुलाम, तुर्क, अफगान और मुगलिया सल्तनत समेत अनेक वंशों ने शताब्दियों तक राज किया उसे कुछ समय तक हिंदू राज के केंद्र के अन्तर्गत क्यों नहीं लाया जा सकता? आखिर हिंदू इस देश में राजा क्यों नहीं बन सकता? ये देखने की चीज होती और निष्चित रूप से दुनिया देखती कि जो हिंदुस्तान सदियों तक इस्लामी हुकूमत में रहा, जहां कुछ सैकड़ा साल अंग्रेजी शासन रहा वहां हिंदू किस प्रकार से सभी को साथ लेकर शासन चला पाते हैं? शायद अगर इस तर्क को जिन्ना जैसे लोग बहस का मुद्दा बनाते तो भारत राष्ट्र का भवितव्य कुछ और होता।

नियति ने वास्तव में जो सपना इस महान भूमि के लिए निर्धारित किया है और जिसे पाना ही इस धरती का महान भविश्य भी है उसी के साक्षात्कार के लिए गांधी ने रामराज्य का प्रेरक मंत्र देश को दिया था। दुर्भाग्य कि जिन्ना जैसों की मानसिकता को समझने में गांधी-नेहरू ने देर कर दी। कांग्रेस अहिंसा की माला जन- जन के गले में उतार रही थी उधर जिन्ना लाखों लोगों का खूं पीकर सत्ता पाने के लिए मतवाला हो चला था। वह तो सर्वधर्म समभाव को लेकर चल रहे हिंदू नेतृत्व के बारे में प्रतिहिंसा की भयानक आग दिल में बिठाए मानो दशकों से धधक रहा था।

प्रख्यात मुस्लिम विचारक, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रफीक जकारिया अपनी सुप्रसिध्द पुस्तक ‘इंडियन मुस्लिम्स: व्हीअर दे हैव गोन राँग’ में ‘जिन्ना की जिद’ नामक अध्याय में लिखते हैं-’मुझे हमेशा ये संदेह रहा कि जिन्ना कांग्रेस के साथ किसी समझौते पर कभी राजी नहीं होगा। उसकी प्रवृत्ति प्रतिहिंसा प्रधान है। भारतीय राजनीति में लंबे समय तक दरकिनार रखे जाने के खिलाफ वह गांधीजी को पाठ पढ़ाना चाहता है।…देश के दो टुकड़े करो और मुझे मेरा पाकिस्तान दे दो, यही उसका प्रिय गीत है। मेरी तो कांग्रेस से यही विनती है कि गृहयुध्द हो जाने दो मगर इस आदमी के हाथों में देश गिरवी मत रखो। एक मुसलमान के नाते मैं मानता हूं कि उसने मुसलमानों का भविष्य तबाह किया। उसके नेतृत्व में फासीवाद झलकता है जिससे हर कीमत पर लड़ा जाना चाहिए।

जसवंत सिंह को ये दिखाई नहीं देता कि जिन्ना के समकालीनों ने उसके बारे में क्या विचार प्रकट किए हैं। खुद जिन्ना ने किस संदर्भ में क्या बात कही है। बैसिरपैर की बातें, ‘कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा-भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ को चरितार्थ करते हुए जसवंत सिंह ने उध्दरणों का अनर्थकारी इस्तेमाल किया है। उदाहरण के लिए-पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त, 1947 को जो कथित सेकुलर भाषण जिन्ना ने दिया उसकी असलियत सुविज्ञ को पाठकों को पिछली कड़ी में पता लग चुकी है। एक अन्य उध्दरण जो गांधीजी की ओर से जसवंत सिंह ने पुस्तक के अध्याय 11 में उध्दृत किया है जरा उसकी सच्चाई भी देखते हैं-’जिन्ना ने घोषणा की कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों से, यदि संभव हुआ तो, मुसलमानों से भी बेहतर तरीके से पेश आया जाएगा। कोई भी कम हक वाला या अधिक हक वाला प्रतियोगी नहीं होगा।’ जसवंत सिंह ने धीरे से ये बात गांधीजी के हवाले से पुस्तक में प्रविष्ट करा दी। वे चाहते तो इसे जिन्ना के हवाले से भी उध्दृत कर सकते थे लेकिन ऐसा करने में उन्हें जरूर उस खतरे का भान रहा होगा जो उनकी सारी जिन्ना थीसिस को ही सिर के बल खड़ा कर देने में अकेले सक्षम है।

पाठक मित्रों! जिन्ना का ये वक्तव्य जो भी पढ़ेगा क्या उसके मन में जिन्ना के प्रति प्यार नहीं उमड़ेगा। लेकिन आप अब इसकी असलियत भी देख लीजिए। ये वक्तव्य जिन्ना ने कब दिया? ये वक्तव्य तब आया जब जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग, उसके अन्तर्गत गठित नेशनल गार्डस के हथियारबंद दस्ते ‘सीधी कार्रवाई’ के नाम पर 16 अगस्त, 1946 से रक्तपात का दौर शुरू कर चुके थे। कोलकाता, नोआखली चारों ओर लीगी गुण्डों ने ऐसा जलजला पैदा किया कि मानवता तक शर्मा गई। क्यों किया ऐसा जिन्ना ने? क्योंकि उसे हर कीमत पर पाकिस्तान चाहिए था? लेकिन जैसा कि हर क्रिया के विरूध्द प्रतिक्रिया होती ही है, लीगी गुण्डों के इस बर्ताव ने समूचे हिंदू जनमानस में तीव्र क्षोभ पैदा कर दिया। प्रतिक्रिया में उत्तर प्रदेश और बिहार में हिंदुओं ने लीगी मुसलमानों से मोर्चा ले लिया। और तब जो आग भड़की उससे जिन्ना और उनकी पूरी लीगी मंडली के होश फाख्ता हो गए।

लीग की सीधी कार्रवाई की प्रतिक्रिया में जो दंगे भड़के उस पर ब्रिटिश लेखक सर फ्रांसिस टकर अपनी पुस्तक व्हाइल मेमोरी सर्वस् में लिखते हैं-’1946 के दंगों में बिहार का दंगा सबसे ज्यादा भयावह सिध्द हुआ। लगभग 8 हजार मुसलमान मौत के घाट उतार दिए गए। मुस्लिम लीग ने जो रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को सौंपी उसमें मृतकों की संख्या 20,000 से 30,000 तक बताई गई। यद्यपि ये संख्या बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की गई लेकिन इसके बावजूद जो नरसंहार हुआ उसकी मिसाल मिलना कठिन है।’ और ये मारकाट केवल बिहार तक ही सीमित नहीं थी, इसकी उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत समूचे देश में फैल रही थीं।

लीग को अपने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का परिणाम भीषण हिंदू प्रतिक्रिया के रूप में मिलना शुरू हो चुका था। दंगे रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। शुरू में लीगी मुसलमान मार-काट में आगे थे लेकिन आगे चलकर उनकी हालत खराब हो गई। इस विकट परिस्थिति में मोहम्मद अली जिन्ना को दिन में तारे दिखने लगे। तब उन्होंने 11 नवंबर, 1946 को देश के नाम अपील जारी की और हिंदुओं से प्रार्थना की कि वे ये भयानक मार-काट बंद कर दें।

जिन्ना ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘ये गलत बयानी की जा रही है कि जो मार-काट मची है उसके लिए लीग जिम्मेदार है। मुस्लिम लीग पर लगाए जा रहे बर्बर और गलत आरोपों का कोई आधार नहीं है। लेकिन ये समय इस पर बहस का नहीं है कि कौन गलत है और कौन सही। मैं जानता हूं कि मुसलमान भारी कष्ट और विपदा में हैं। लेकिन बिहार की हिंसा तो मुसलमानों पर ग्रहण बनकर टूटी है। मैं हिंसा की घोर निंदा करता हूं चाहे वह किसी रूप में क्यों न की जाए। बिहार की हिंसा के समान मुसलमानों के संहार का दूसरा उदाहरण नहीं है जो बहुसंख्यक हिंदुओं ने अल्पसंख्यक मुसलमानों पर ढाया है।

…अगर हम पाकिस्तान चाहते हैं तो मुसलमानों को बिहार जैसी किसी भी हिंसक प्रतिहिंसा से दूर रहना चाहिए। यद्यपि हमारे ह्दय लहूलुहान हैं तो भी जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहां उन्हें निर्दोषों के कायरतापूर्ण नरसंहार से अपने को अलग रखना होगा।

अगर हम अपना संतुलन और धैर्य खो देंगे… तो न सिर्फ पाकिस्तान हमारे हाथ से निकल जाएगा वरन् रक्तपात और क्रूरता का ऐसा दुश्चक्र प्रारंभ हो जाएगा जो मुसलमानों की आजादी को न सिर्फ अवरूध्द करेगा वरन् हमारी दासता और बंधनों को और लंबे काल तक के लिए आगे धकेल देगा।

हमें राजनीतिक रूप से ये सिध्द करना है कि हम बहादुर हैं, उदार हैं, विश्वसनीय हैं… कि हमारे पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को उनके जान-माल और इज्जत की सुरक्षा की पूरी गारंटी होगी जैसे कि मुसलमानों के लिए- नहीं, नहीं मुसलमानों से भी ज्यादा सुरक्षा बख्शी जाएगी।…इसलिए मेरी मुसलमानों से अपील है कि वे जहां जहां बहुमत में हैं वहां वहां अल्पसंख्यक गैर मुस्लिमों की हिफाजत का पूरा प्रबंध करें।…

अंत में जिन्ना कहते हैं- मुसलमानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। ये बलिदान पाकिस्तान के हमारे दावे को और मजबूती देगा।

तो ये है सच्चाई जसवंत सिंह जी। जब जिन्ना की जान पर बन आई तो उसे प्रेम संदेश गुनगुनाने में दो मिनट नहीं लगे। समूची पुस्तक में जसवंत सिंह ने संदर्भों के साथ इसी तरह मनमाने ढंग से खिलवाड़ किया है। ऐसा लगता है कि उन्होंने जिन्ना के पापों को धो डालने का बीड़ा उठा रखा है। लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि ना तो वे जिन्ना के पाप पक्ष का प्रक्षालन कर सकते हैं और ना ही उसके कुकर्मों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोड़ सकते हैं। इतिहास उन्हें इसकी इजाजत कदापि नहीं देगा। वास्तव में तो इतिहास को तथ्यपरक दृष्टि से परखकर उसके परिणामों पर गौर किया जाना चाहिए और तब तय करना चाहिए कि कौन गलत है और कौन सही है।
इसके पहले जब जिन्ना ने सीधी कार्रवाई का ऐलान किया तो तमाम हिंदू नेता उसके पैरों पर गिड़गिड़ा रहे थे कि वह हिंसा और रक्तपात को रोकने के लिए आगे आए। लेकिन जिन्ना ने एक न सुनी। मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई सम्बंधी जो प्रस्ताव 29 जुलाई, 1946 को जारी किया उस पर भी एक नजर डालना लाजिमी होगा-

‘जैसा कि मुस्लिम भारत अपनी मांगों के संदर्भ में सभी सुलह-वार्ताओं, संवैधानिक व शांतिपूर्ण तरीकों की असफलता से थक चला है…

जैसा कि कांग्रेस भारत में हिंदूराज स्थापित करने में जुटी है और इस कार्य में उसे ब्रिटिश सरकार का समर्थन हासिल है, और…

जैसा कि भारत के मुसलमान एक पूर्ण संप्रभुता सम्पन्न पाकिस्तान की प्राप्ति और तत्काल स्थापना से कमतर किसी चीज़ पर संतोश नहीं करेंगे।

अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की यह परिशद मानती है कि मुस्लिम राष्ट्र के समक्ष अब पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसी रास्ते से हमें ब्रिटिश गुलामी और हिंदुओं के वर्चस्व से मुक्ति मिल सकती है। इसी से हमारा सम्मान और हमारे अधिकार हमें प्राप्त होंगे।

परिषद मुस्लिम राश्ट्र का आह्वान करती है कि वे सभी अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के झण्डे के नीचे खड़े हों और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहें।

परिषद कार्यकारी समिति को निर्देशित करती है कि वह ‘सीधी कार्रवाई’ का सारा कार्यक्रम तैयार करे और भविष्य के संघर्ष के लिए जहां जैसी जरूरत हो वहां मुसलमानों को संगठित करे। परिषद मुसलमानों का आह्वान करती है कि वह इस सरकार के सभी तमगे और सम्मान उन्हें वापस कर दे।’

डायरेक्ट एक्शन को परिभाषित करते हुए मुस्लिम लीग के सचिव लियाकत अली खां ने सार्वजनिक वक्तव्य दिया कि ‘यदि हमें आजादी तलवार के बल पर ही लेनी है तो हिंदुओं को ध्यान रखना चाहिए कि ये हमारे अतीत को देखते हुए कहीं ज्यादा सस्ता सौदा है।’

जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन को गोल-मोल परिभाषित करते हुए तब अखबारों में जो वक्तव्य दिया था, उस पर भी गौर करना जरूरी है। जिन्ना कहते हैं-’हमने सर्वाधिक एतिहासिक महत्व का निर्णय लिया है। मुस्लिम लीग अब तक केवल संवैधानिक उपायों की बात करती रही है।…लेकिन आज हमने सभी संवैधानिक उपायों को तिलांजलि दे दी है। ब्रिटिश सरकार और हिंदुओं के साथ हमने मोल-तोल बहुत किया लेकिन हमारी वार्ता का कोई परिणाम सामने नहीं आया। वे हमारे सामने पिस्तौल ताने रहे। एक के हाथ में राज्यशक्ति और मशीनगनें थीं तो दूसरे के हाथ में असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन का डण्डा। इसका तो कुछ उत्तर हमें देना ही होगा। हम बताना चाहते हैं कि हमारी जेबों में भी पिस्तौल है।’

संवाददाताओं ने जब जिन्ना से संवैधानिक उपायों को तिलांजलि देने के संदर्भ में पूछा कि क्या वे हिंसा का रास्ता आख्तियार करने जा रहे हैं, जिन्ना ने पलट जवाब दिया- हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में वे किसी नैतिक सूक्ष्म भेदों में उलझना नहीं चाहते।

मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त को सीधी कार्रवाई शुरू करने का दिन घोशित किया। लीग के अधीन सिंध और बंगाल सरकार ने 16 अगस्त को सार्वजनिक छुट्टी का दिन घोशित कर दिया। बंगाल के मुख्यमंत्री एच.एस. सुहरावर्दी ने धमकी भरे स्वर में कहा कि यदि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता सौंपी गई तो हम बंगाल को स्वतंत्र देश घोशित कर देंगे।

डायरेक्ट एक्शन डे की इस घोषणा ने समूची कांग्रेस का सकते में डाल दिया। लीग ने किसी भी बातचीत से इंकार कर दिया और फिर जो हुआ उसने मानवता के मुंह पर भयानक कालिख पोत दी।

कोलकाता में 16 अगस्त की सवेरे मुस्लिम लीग के नेतृत्व में जो भयानक विशाल जुलूस निकला, उसमें नारे लगने लगे-’लड़कर लेंगे हिंदुस्तान।’ सार्वजनिक सभा में खुले आम हिंदुओं के विनाश की शपथ ली जाने लगी। और जैसे ही सभा समाप्त हुई, मानो पूरे कलकत्ते मे जलजला आ गया। हत्या, आगजनी और महिलाओं से बलात्कार, लूटपाट को सुहरावर्दी सरकार के संरक्षण में अंजाम दिया गया। मुख्यमंत्री सुहरावर्दी पुलिस नियंत्रण कक्ष से स्वयं दंगों के संचालन में जुटे थे। अंग्रेज गवर्नर एफ बरोज को मानो तो सांप सूंघ गया था। निरपराध हिंदुओं के करूण क्रंदन का किसी पर कोई असर नहीं था। कोलकाता की सड़कों पर पुरूष-महिलाओं और बच्चों की लाशें ही लाशें बिछ गईं। हिंदू दो दिनों तक दानवता के साये में लुटने-पिटने को मजबूर थे। लेकिन इसके बाद जो हुआ उसने मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार को भी दिखा दिया कि शंकर की तीसरी आंख खुलने का नतीजा क्या होता है?

वस्तुत: इतिहास के पन्ने पलटो तो उसमें से अनेक घाव स्वत: ही रिसने लगते हैं। समझदारी इसी बात में है कि इन घावों पर मरहम लगाने का काम किया जाए न कि इन घावों को फिर से उधेड़ उधेड़ कर देखा जाए कि ये ठीक हो रहा है या नहीं? जसवंत सिंह ने जो कार्य किया है वह घावों को कुरेदने के सिवाय कुछ नहीं है।

-राकेश उपाध्याय

जारी….

Sunday, August 23, 2009

जसवंत की पुस्तक इतिहास लेखन के साथ खिलवाड़

जसवंत सिंह की पुस्तक जिन्ना - इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस जिस दिन रिलीज़ हुई, नेहरू ऑडिटोरियम, दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में मैं उपस्थित था, उसके एक दिन पूर्व ही जिन्ना सीरीज़ लिखनी शुरू की थी, अब चूँकि पुस्तक पुरी पढ़ चुका हूँ और जसवंत सिंह के द्वारा उल्लिखित कुछ तथ्यों की छानबीन भी पूरी शिद्दत से कर रहा हूँ इसलिए ये कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है की जसवंत का जिन्ना प्रेम पूरे तौर पर इतिहास का साथी आकलन है, तथ्यों के साथ एकतरफा खिलवाड़ है। प्रस्तुत है प्रिय पाठकों के अवलोकनार्थ दूसरी किश्त जो जसवंत की पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण को पढने के बाद लिखी गई है.

जिन्ना सीरीज़- दूसरा भाग

जसवंत सिंह अब भारतीय जनता पार्टी में नहीं हैं। उनके जिन्ना प्रेम ने अंतत: उन्हें अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दौर में लाकर खड़ा कर दिया।

जिन्ना के प्रति उनकी भक्ति कैसे जगी इसे वो खुद ही कई मर्तबा बयान कर चुके थे। 2005 में ‘लालजी’ के साथ जिन्ना प्रकरण को लेकर पार्टी ने जो व्यवहार किया था उससे जसवंत सिंह को बहुत ही धक्का पहुंचा था। तभी उन्होंने तय कर लिया कि वो जिन्ना के बारे में विस्तार से सच्चाई को सामने लाने का काम करेंगे।

अब जबकि जिन्ना के जिन्न ने उनकी बलि ले ली है और उनके प्रिय नेता ‘लालजी’ ने भी उन्हें गलत ठहरा दिया है तो उनके सब्र का बांध टूट चला है। उन्होंने भी पलटवार करते हुए यह कहने में संकोच नहीं किया कि लालजी के संकट के समय तो मैं उनके साथ खड़ा था लेकिन जब मुझ पर संकट आया तो वह किनारे खड़े हो लिए।

‘लालजी’ यानी लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने जून, 2005 में पाकिस्तान में जिन्ना के बारे में यह कहकर भारतीय राष्ट्रवादी जगत में हलचल मचा दी थी कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे, वे इतिहास निर्माता थे। अपनी बात को सच सिध्द करने के लिए आडवाणी जी ने तब पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त, 2005 को जिन्ना द्वारा दिए गए भाषण का हवाला दिया था।

जैसा कि जिन्ना सीरीज की पहली कड़ी में हमने स्पष्ट किया था कि जिन्ना द्वारा संविधान सभा में दिए गए इस भाषण को बाद में जिन्ना ने खुद ही वापस ले लिया था। इस संदर्भ में प्रख्यात पत्रकार बीजी वर्गीज के वक्तव्य को उध्दृत किया गया था जो वर्गीज ने जिन्ना पर जसवंत सिंह की पुस्तक के लोकार्पण समारोह से बाहर आते ही हिंदुस्थान समाचार के संवाददाता को अनौपचारिक बातचीत में बता दिया था। चूंकि ये वर्गीज ही थे जिन्होंने जिन्ना पर पुस्तक लोकार्पण के दौरान ही अनेक सवाल खड़े कर दिए थे। वे समारोह में उपस्थित आधा दर्जन से अधिक वक्ताओं में अकेले ऐसे वक्ता थे जिन्होंने सीधी कार्रवाई सहित अनेक सवालों को लेकर जिन्ना के सेकुलरिज्म पर सीधी चोट की थी ।

इस्लामिक गणराज्य के समर्थक थे जिन्ना

वस्तुत: जिन्ना ने संविधान सभा में दिए गए अपने कथित सेकुलर भाषण के थोड़े दिनों पूर्व 9 जून, 1947 को आयोजित मुस्लिम लीग की बैठक में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बनेगा। मुस्लिम लीग के समूचे पाकिस्तान आंदोलन की बुनियाद ही इस्लामिक राज्य पर आधारित थी।

चूंकि संविधान सभा में जिन्ना द्वारा दिया गया भाषण अप्रत्याशित था इसलिए बैठक में हलचल मच गई। जिन्ना का भाषण समाप्त होते ही प्रधानमंत्री लियाकत अली खां ने राष्ट्रीय ध्वज का सवाल खड़ा कर मामले को किनारे लगाने का सफल प्रयास किया। अगले दिन पाकिस्तान के सभी प्रमुख अखबारों में ये खबर नदारद थी कि कायदे आजम ने अपने भाषण में पाकिस्तान को सेकुलर स्टेट बनाने की बात कही है। जाहिर है जो भाषण बाद में प्रेस को जारी किया गया उसमें से आधिकारिक रूप से वो सारी लाइनें हटा दी गईं जिनका जिक्र कर भारत में जिन्ना को सेकुलर बताने का काम शुरू किया गया है।

जिन्ना ने संविधान सभा में दिए गए अपने कथित सेकुलर भाषण के थोड़े दिनों पूर्व 9 जून, 1947 को आयोजित मुस्लिम लीग की बैठक में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बनेगा।

भारत विभाजन पर लिखी गई ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ नामक सुप्रसिध्द पुस्तक में इस बात को विद्वान लेखक कॉलिन्स और डोमिनिक लैपियर ने भी स्वीकार किया है संविधान सभा में जिन्ना का भाषण अप्रत्याशित और चौंकाने वाला था। ये उनके अब तक के स्टैण्ड से विपरीत बात थी। जिन्ना की जीवनी पर काम करने वाले अनेक लेखकों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बाद में जिन्ना की सहमति से आधिकारिक रूप से भाषण को संशोधित कर दिया गया।

सवाल उठता है कि जिन्ना ने संविधान सभा के सम्मुख इस प्रकार की नितांत भिन्न भाषा में बात क्यों की जिसे उस समय के हालात में कोई भी समझदार पाकिस्तानी मुसलमान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। तत्कालीन पाकिस्तान सरकार तो कतई इस मूड में नहीं थी। वस्तुत: इसके उत्तर में उस सत्ता संघर्ष के बीज छुपे हुए थे जिससे पाकिस्तान आज भी जूझ रहा है।

खैर, संविधान सभा की बैठक में हुए इस भाषण को लेखन की चूक ठहराकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया। 18 अगस्त, 1947 को अपनी चूक को दुरूस्त करते हुए जिन्ना ने अपने ईद संदेश में कहा कि ‘केवल पाकिस्तान ही नहीं इस उपमहाद्वीप के समस्त मुसलमानों की चिंता का दायित्व भी हमारा ऊपर आन पड़ा है।’
पुन: दिसंबर, 1947 में कराची में मुस्लिम लीग की परिषद् की बैठक में जिन्ना ने कहा-’भारत में जो मुसलमान रह गए हैं उनके हितों की चिंता मुझे सताने लगी है। इस उद्देश्य के लिए फौरी तौर पर हमें मुस्लिम लीग की इकाई को भारत में बनाए रखना चाहिए।…ऐसा देखने में आ रहा है कि भारत में मुसलमानों की पहचान खत्म करने में कुछ लोग जुट गए हैं, हमें ये हरगिज नहीं होने देना है और यदि आवश्यकता पड़ी और लीग की ओर से मुझे अनुमति दे दी जाए तो मैं भारत के मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए भारत में जाकर फिर से रहने को तैयार हूं।’

jaswant सिंह से मैं गुजारिश करूँगा की वह चाहें तो अपने पाकिस्तान के मित्रों के मध्यम से उपरोक्त तथ्यों के बारे में असलियत का पता लगा लें।

जिन्ना के मन में हिंदुओं के प्रति कितनी भयानक घृणा ने घर कर लिया था इसे समझने केलिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि उसने अपने हिंदू अतीत को स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया। जसवंत सिंह तो अपनी पुस्तक में लिखा है कि गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र ने इतिहास की दो महान हस्तियों का उदय एक साथ देखा-एक थे गांधी तो दूसरे थे मोहम्मद अली जिन्ना। लेकिन इस सच के विपरीत पाकिस्तान में जिन्ना को ईरानी मूल का कहने वालों की जमात भी पैदा हो गई है जो जिन्ना के हिंदू मूल को अब सिरे से नकारती है तो ऐसा क्यों हुआ। इसके पीछे खुद जिन्ना द्वारा अपने हिंदू अतीत से किया गया इंकार ही जिम्मेदार है।

'कायदे आजम' के प्रति इतनी दीवानगी क्यों?

पिछले कुछ दशकों से समूचे पाकिस्तान के इतिहासकारों और लीगी लेखकों में इस बात की होड़ मची हुई है कि किस प्रकार कायदे आजम की छवि को दुनिया भर में निखारा जाए। ये इतिहासकार और लेखक इस बात पर सदा नाराजगी प्रकट करते आए हैं कि जो स्थान विश्वपटल पर गांधी को मिला, जो स्थान नेहरू को मिला वो स्थान हमारे कायदे आजम को क्यों ना मिल सका। पाकिस्तान के इतिहासकार अजीज बेग कहते हैं- ‘कायदे आजम जिन्ना को वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे वास्तव में हकदार थे।’
पाकिस्तान के संदर्भ में एक अत्यंत प्रामाणिक अनुसंधान आधारित पुस्तक ‘पाकिस्तान: जिन्ना से जिहाद तक’ में लेखक एस.के.गुप्ता और राजीव शर्मा ने इस बात को प्रथम अध्याय में ही रेखांकित किया है कि ‘पाकिस्तानी इतिहासकार जिन्ना को उपेक्षित स्थान से निकालकर एक सजीव-जीवंत व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के लिए उतावले हैं’।

उपरोक्त लेखकों का ये निष्कर्ष सन् 2003 में ही सामने आ गया था जब उनकी पुस्तक पहली बार प्रकाशित हुई थी। अजब संयोग है कि उसके बाद हम भारत में जिन्ना के महिमामण्डन की बढ़ती कोशिशों को लगातार देख सकते हैं।

श्री आडवाणी ने अपनी पुस्तक 'माई कंट्री माई लाइफ' में एक स्थान पर जिक्र किया है कि पाकिस्तान में नियुक्त एक विदेशी राजदूत ने उनसे यह कहा था कि भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बंध तभी मधुर और प्रगाढ़ हो सकते हैं जबकि पाकिस्तान में सत्ता एक सशक्त सैनिक कमान के हाथ में रहे और इधर भारत में धुर दक्षिणपंथ यानी हिंदुत्व की वकालत करने वाले दिल्ली में आसीन हों।
उस राजदूत के शब्दों को यदि जिन्ना के व्यक्तित्व के मण्डन के संदर्भ में लागू किया जाए तो ये निष्कर्ष निकालने में कितनी देरी लगेगी कि जब तक धुर दक्षिणपंथ जिन्ना की वकालत शुरू नहीं करता तब तक जिन्ना को लोकप्रिय बनाना या उसकी स्वीकार्यता विश्व पटल पर बढ़ा सकना आसान नहीं होगा।
इस संदर्भ में यह देखना भी रोचक है कि जसवंत सिंह की पुस्तक की लोकप्रियता पाकिस्तान में भी आसमां छू रही है। और तो और पुस्तक लोकार्पण समारोह में पाकिस्तान से आए अतिथियों की संख्या भी अच्छी खासी रही थी।

जसवंत ने किताब में झूठी बातें लिखीं

परंतु कोई भी लेखक या इतिहासकार ये कैसे भूल सकता है जिन्ना द्वारा 'सीधी कार्रवाई' के एलान के पूर्व तक समूची कांग्रेस एक ओर विभाजन के खिलाफ खड़ी थी और जिन्ना विभाजन की जिद पर अड़ा हुआ था। आखिर जिन्ना ने भारत का विभाजन करवा कर ही दम लिया। वह विभाजन जिसमें डेढ़ करोड़ लोग बेघरबार हुए, बीसों लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, माताओं, स्त्रियों और बच्चों की जो दुर्दशा हुई उसकी कल्पना करना भी आज कठिन हो चुका है।

खैर इस सवाल पर आज बहस हो रही है कि जिन्ना की आखिर कौन सी मजबूरी थी कि उसने इतना भयानक कदम उठा लिया। जसवंत सिंह इसके लिए गाँधी, पंडित नेहरू और सरदार पटेल को जिम्मेदार ठहराते हैं। अपनी थीसिस को सही ठहराने की शुरूआत करते हुए जसवंत सिंह अपनी पुस्तक में लिखते हैं-'गांधी जनवरी, 1915 में पानी के जहाज से भारत पहुंचे।…तब तक जिन्ना अखिल भारतीय नेता के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे। जिन्ना न सिर्फ हिंदुओं और मुसलमानों, नरमपंथी और गरमपंथी कांग्रेसियों के बीच एकता का सूत्र बनकर उभरे थे वरन् भारत के विविध वर्गों में उनकी पर्याप्त पहुंच स्थापित हो चुकी थी।…जिन्ना ने मुंबई में गांधी के स्वागत के लिए 13 जनवरी, 1915 को गुर्जर समुदाय द्वारा आयोजित एक सभा की अध्यक्षता की। इस सभा में जिन्ना ने जहां गांधी की जमकर प्रशंसा की वहीं गांधीजी ने जिन्ना को हतोत्साहित और अपमानित करने वाला वक्तव्य दिया।’

यहां सवाल उठता है कि गांधी ने जिन्ना का क्या अपमान कर दिया। जसवंत सिंह के अनुसार, जिन्ना ने इस सभा में गांधी को आजादी के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ सुझाव दिए जिस पर गांधी ने मात्र इतना कहकर चुप्पी साध ली कि अभी तो मैं विदेश से आया हूं, परिस्थिति का अध्ययन कर निर्णय करूंगा। वैसे भी गांधी को गोपाल कृष्ण गोखले ने निर्देशित किया था कि वो सर्वप्रथम भारत को समझें। अब इस छोटी सी बात को जिन्ना ने दिल पर ले लिया तो इसे क्या समझा जाए। गोखले का निर्देश तो जिन्ना भी उनके जिंदा रहते अक्षरश: मानते रहे। जिन्ना ने 1920 के बाद से ही आजीवन सारे हिंदू नेताओं की जमकर बखिया उधेड़ी लेकिन जिन नेताओं के बारे में जिन्ना ने कभी एक भी अपशब्द या निंदाजनक बात नहीं निकाली उनमें से गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य तिलक का नाम अग्रणी है।

जसवंत सिंह आगे लिखते हैं-…गांधी ने सन् 1920 तक सभी के साथ सहयोगात्मक रवैया रखा लेकिन 1920 के बाद वे खुद ही सर्वेसर्वा हो गए। इसके पीछे गोखले का वह समर्थन था जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार और वॉयसराय लार्ड हार्डिंग को गांधी के पीछे खड़े रहने के लिए अपनी सारे प्रभाव और शक्ति का इस्तेमाल किया। ये वह समय था जब जिन्ना से ब्रिटिश सरकार सशंकित थी क्योंकि वह हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पैरोकार थे और सरकार के लिए ये कठिन हो गया था कि वह मुस्लिम लीग को कांग्रेस से अलग रख सके।…इस पूरे कालखण्ड में गांधी की नीति और रवैया पूरे तौर पर धर्म से प्रभावित एक प्रादेशिक भाव भावना से युक्त नेता के समान था जबकि इसके विपरीत जिन्ना नि:संदेह संप्रदाय निरपेक्ष और राष्ट्रवादी भावना से लबरेज थे।…पृष्ठ-102
अब इसे पक्षपात पूर्ण दृश्टिकोण नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। यहां दो बातें जसवंत सिंह कह रहे हैं। जिसमें से एक गोखले से संबंधित है कि गोखले ने गांधी के पीछे समूची ब्रिटिश सरकार को खड़ा किया। अब इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है। इतिहास के अध्येता जानते हैं और जसवंत सिंह भी लिख रहे हैं कि गांधी जनवरी, 1915 में विदेश से भारत आए। दूसरी ओर 19 फरवरी, 1915 में गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। आखिर ब्रिटिश सरकार से गांधी के ताल्लुकात बनवाने में गोखले को समय कब मिला? ये बात सही है कि गांधी उनसे कई बार मिलने गए, उन्होंने भी गांधी को आषीर्वाद दिया और देश को घूमने, जानने और समझने का निर्देश भी। लेकिन गोखले गांधी और ब्रिटिश हुक्मरानों के बीय ताल्लुकात बनवाने में सक्रिय थे, ये निराधार और झूठी बात भला कौन स्वीकार करेगा। दूसरी बात कि लोकमान्य तिलक उदारवादियों की लाइन पर आ गए तो इसे भी स्वीकार कर पान कठिन है। तिलक ने 1914 में माण्डले कारावास से लौटने के बाद कांग्रेस और उसके उदारवादी खेमे को बुरी तरह से फटकारा और कहा कि इस उदारवादी टोले ने कांग्रेस का प्रभाव ही देश से खत्म कर दिया है। तिलक ने पूर्ण स्वराज्य के सवाल को लेकर कभी समझौतावादी रूख नहीं अपनाया। इसी से पता चलता है कि जसवंत सिंह की पुस्तक कितने पूर्वाग्रहों से भरी है।

आज दिनांक २३.८.२००९ को वरिष्ट पत्रकार कारन थापर के साथ बातचीत में भी जसवंत सिंह ने dohraya- की लखनऊ paikt के दौरान गोखले ने जिन्ना को हिंदू-मुस्लिम एकता kaa दूत कहा। paathak gan jante होंगे ki pharwari, 1915 me hi gokhle ki mrutyu ho gai thi jabki lucknow pact 1916 me hua jisme lokmanya tilak ki mukhya bhumika thi.

शौकीन मिजाज जिन्ना और देशभक्त गांधी

हिंदुस्थान की राजनीति को गौर से देखने वाला कौन अध्येता जसवंत सिंह की इस ‘थ्योरी’ को स्वीकार करेगा कि 'गांधी एक प्रादेशिक भाव भावना वाले पांथिक नेता थे और जिन्ना परम धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त था।' वस्तुत: जिन्ना कुछ हद तक अपने स्वार्थों के लिए ही राष्ट्रवादी थे और उनकी लोकप्रियता ऐसी भी नहीं थी कि देश उन्हें हाथों हाथ ले रहा था।
सभी जानते हैं कि भारत की परंपरा में सार्वजनिक जीवन में सादगी को पहले कितना भारी स्थान लोकमानस देता आया था। और जैसा कि जिन्ना का व्यक्तिगत जीवन सार्वजनिक रूप से लोग देखते थे उस हिसाब से हिंदुस्तान की कसौटी पर जिन्ना कभी खरे उतर ही नहीं सकते थे। वो महंगे से महंगे ब्राण्ड की शराब के शौकीन थे। अपने बेटी की उम्र की एक अति धनाढय पारसी लड़की को भगाकर उन्होंने विवाह कर लिया था। मुंबई के सुप्रसिद्ध पारसी उद्योगपति दिन्शा पेटिट की बेटी रत्ती से उन्होंने 16 अप्रैल, सन् 1918 को जब विवाह किया तो जिन्ना 52 साल के थे और रत्ती मात्र 16 साल की लड़की थी। जिन्ना ने विवाह करने के लिए उसे इस्लाम धर्म में मतांतरित किया और ये सब बातें उस समय बहुत ही मशहूर हो गईं थीं क्योंकि दिनशा पेटिट जिन्ना के मित्र थे।

हिंदुस्थान की राजनीति को गौर से देखने वाला कौन अध्येता जसवंत सिंह की इस ‘थ्योरी’ को स्वीकार करेगा कि 'गांधी एक प्रादेशिक भाव भावना वाले पांथिक नेता थे और जिन्ना परम धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त था।'

जिन्ना उस समय एक विधुर का जीवन व्यतीत कर रहे थे। दिनषॉ पेटिट को तो ये अपेक्षा भी नहीं थी कि 52 साल के विधुर जिन्ना उनकी बेटी पर डोरे डाल रहे हैं। उन्हें ये झटका बर्दाश्त नहीं हुआ और इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को मुक्त करवाने के लिए जिन्ना के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की और भी जो संभव तरीके थे, सभी आजमाए। ये बात और है कि ये वैवाहिक बंधन ज्यादा समय तक नहीं चला। रत्ती ने विवाह के 9 साल बाद ही उनसे तलाक ले लिया। इसी रत्ती से जिन्ना को जीवन में इकलौती संतान बेटी दीना के रूप में प्राप्त हुई जो आगे चलकर जिन्ना से अलग हो गई। दीना ने मुंबई के एक पारसी vaadiya परिवार में विवाह किया और कालांतर में अमेरिका में रहने लगीं।

इस प्रकरण पर जसवंत सिंह कुछ नए प्रकार से रोशनी डालते हैं- ‘अपनी दूसरी पत्नी से जिन्ना के संबंध बिगड़ गए थे। दोनों एक दूसरे से अलग रहने लगे। भारत के स्वतंत्रता समर का उनके वैवाहिक जीवन पर असर पड़ा। वैवाहिक संबंधों को समय और परवाह की जरूरत होती है लेकिन जिन्ना तो आजादी के संग्राम में ही व्यस्त थे। परिणामत: दोनों अलग अलग हो गए। 1929 में पत्नी का देहांत हो गया। बेटी डिना की जिम्मेदारी जिन्ना पर आ गई और उन्हें अपने राजनीतिक भागमभाग वाली जिंदगी में बदल करना पड़ा। बेटी के कारण वे लंदन रहने लगे।’
यानी इससे ज्यादा बेतुकी बात क्या लिखी जा सकती है कि ‘जिन्ना आजादी के आंदोलन में इतने ज्यादा सक्रिय थे कि पत्नी से रिश्ते बिगड़ गए।' क्या वो अकेले इस लड़ाई में शामिल थे? देश में और नेताओं के पत्नियां नहीं थीं? जसवंत सिंह ने समूची पुस्तक में कहीं ये नहीं बताया कि जिन्ना आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण कितनी बार जेल गए? लेकिन इसके विपरीत जसवंत ने हर बार लिखा है कि जिन्ना भारत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। इससे झूठी बात भला और क्या हो सकती है? जिन्ना तो विभाजन की लड़ाई लड़ रहे थे और वह भी ब्रिटिश हुक्मरानों के इशारे पर लड़ रहे थे।

सुअर के मांस सहित जितने प्रकार के मांस हो सकते हैं सभी का स्वाद लेने में जिन्ना रसिक थे, एक बार जो टाई पहन ली तो उसे दुबारा नहीं पहन सकते थे, उनके वार्डरौब में 200 से अधिक सूट एक समय रहा करते थे और ऐसे ही विलायती अन्य कपड़ों का अंबार लगा हुआ रहता था। सिगरेट के वे इतने शौकीन थे कि 50 से अधिक सिगरेट रोज फूंक जाते थे और वह भी यूरोप के सबसे मंहगे ब्रांड की सिगरेट जो ‘क्रेवन ए’ के नाम से प्रसिध्द थी।

बादशाही चाहत ने जिन्ना को भटकाया

अजब बात ये है कि जसवंत सिंह ने अपनी किताब में जिन्ना को दरकिनार करने का आरोप कांग्रेस नेताओं पर मढ़ दिया है लेकिन जिन्ना के इस चरित्र पर उन्होंने जरा भी कलम नहीं चलाई है। जसवंत सिंह राष्ट्रवाद से जिन्ना की दूरी बनने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- ‘नागपुर कांग्रेस अधिवेशन तक आते आते जिन्ना कांग्रेस पार्टी में किनारे लगा दिए गए। गांधी ने 1915 के बाद के छ: सालों में न केवल मुसलमानों को बड़ी संख्या में अपने पक्ष में खड़ा कर लिया वरन् बड़ा भारी आर्थिक समर्थन भी हासिल कर लिया। गांधी ने खुद को आजादी के आंदोलन के नायक के रूप में स्थापित कर लिया जिसे जिन्ना कभी प्राप्त नहीं कर पाए। अमृतसर से कोलकाता और फिर1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के आते आते गांधी देश में छा गए।’

पिछली कड़ी में जैसा कि हमने उल्लेख किया था कि जिन्ना सन् 1911 से ही मुस्लिम लीग के कार्यक्रमों में आने जाने लगे थे, सन् 1913 में ही बाकायदा उन्होंने लीग की सदस्यता ग्रहण कर ली। कांग्रेस के अधिवेशनों में जिन्ना अपने आचरण के कारण कुछ ज्यादा ही चर्चित रहते थे। उनका नवाबी ठाट, aisho -आराम का प्रदर्शन , सिगरेट और बदमिजाज टिप्पणियां ही उन्हें चर्चित रखने के लिए पर्याप्त होती थीं। यदि कोई उनसे लगातार मुंह में सिगरेट पीते रहने पर कुछ कहता था तो उनका तपाक से जवाब हाजिर हो जाता था-तेरे बाप का पीता हूं क्या? ऐसे में जब गांधी जी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को खादी, सादगी और सत्याग्रह अपनाने का मंत्र दिया तो जिन्ना उबल पड़े। उस वक्त कांग्रेस के अधिवेशनों में एक ओर जहां विलायती कपड़े के खिलाफ लोग holika jalate तो जिन्ना dusare किनारे पर खड़े होकर अपने विलायती वस्त्रों में सिगरेट की कश खींचने में मशगूल रहते।
जसवंत सिंह का मानना है कि गांधी और नेहरू ने जिन्ना को कांग्रेस में किनारे लगा दिया। किंतु जिन्ना के आचरण को देखकर क्या किसी समझदार आदमी को ये समझने में देर लगेगी कि जिन्ना ने खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली थी।

जसवंत लखनऊ पैक्ट को लेकर जिन्ना की प्रशंसा करते नहीं थकते। इस पैक्ट में जिन्ना ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन का विरोध किया था। लेकिन क्या ये वास्तविकता नहीं है कि लखनऊ पैक्ट में ही पहली बार मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन को सैध्दांतिक सहमति प्रदान की गई थी? वास्तविकता तो यही है कि जिन्ना जिस मिजाज के व्यक्ति थे वो कभी भी सर्वसाधारण हिंदुओं के बीच raashtriiy नेता के रूप में स्वीकार नहीं हो सकते थे।
जिन्ना के पाकिस्तानपरस्त बनने पर जसवंत सिंह का एक और vishleshan गौर फरमाने लायक है-
‘1927 के कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन से जिन्ना ने तय कर लिया कि उसके रास्ते अब कांग्रेस से अलग हो चुके हैं।…जिन्ना के मन में अन्तर्द्वंद्व तेज हो गया कि वह कांग्रेस कैंप में रहे या मुस्लिम कैम्प में। वह अब दोनों में नहीं रह सकता था। इसी द्वन्द्व के कारण जिन्ना की कायदे आजम की यात्रा शुरू हो गई। मुसलमान ब्रिटिश सरकार की ओर झुक चले थे। जिन्ना पर मुस्लिम नेताओं ने इस बात का जवाब देने का दबाव बढ़ा दिया कि जिन्ना मुसलमानों के साथ हैं अथवा नहीं? इधर भारत की राजनीति विभक्त हो चली थी, सरकार और मुसलमान एक पक्ष में तो कांग्रेस तथा हिंदू दूसरी तरफ खड़े थे।’
जैसा कि पूर्व में मुद्दा आ चुका है कि जिन्ना कांग्रेस पर अपना वर्चस्व चाहते थे लेकिन उनके आचरण ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। अपने स्वभाव के कारण वो कांग्रेस के अनुशासन और देश के लोकजीवन की मान्यताओं के विरूध्द होते चले गए। क्यों हुआ ऐसा तो इसका उत्तर जिन्ना के भाई के हवाले से मिलता है। मोहम्मद अली जिन्ना के भाई अहमद अली जिन्ना ने सन् 1946 में अपने भाई के पाकिस्तान प्रेम को रेखांकित करते हुए कहा था-’उन्हें तो इस्लाम या पाकिस्तान में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह तो खुद को बादशाह के तौर पर देखने के लिए लालायित थे।’

जसवंत सिंह को ये चीजें क्यों नहीं दिखाई detin.
अगली कड़ी में सरदार पटेल, चर्चिल की भूमिका, विभाजन और मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई से sambandhit जसवंत की पुस्तक के अन्य विवादित अंशों पर हम प्रकाश डालेंगे।
जारी…

Saturday, August 22, 2009

जसवंत सिंह! इतिहास से मत खेलो

गजब बानगी देखने को मिल रही है। सन 2005 में जो कवायद श्री लालकृष्ण आडवाणी ने शुरू की उसे अब जसवंत सिंह ने किताबी शक्ल के बौद्धिक ढांचे में लाकर यूं प्रस्तुत कर दिया है कि मानो जिन्ना जैसा अवतारी पुरूष बीती सदी में भारत में दूसरा नहीं जन्मा।
क्या आज देश में कोई और मुद्दे नहीं हैं जिस पर हम बहस करें और समाधान तलाशें। गरीबी, बेरोजगारी, विकास के वर्तमान ढांचे की विसंगतियां, विकट होता पर्यावरण, यूरोपीय अमेरिकी बौद्धिक दादागिरी और उनसे निपटने के उपाय, भारतीय विकल्प, पंडित दीनदयाल उपाध्याय प्रणीत एकात्म मानव दर्शन की व्यावहारिक व्याख्या, हिंदुत्व का राजनीति दर्शन , महात्मा गांधी, जेपी और लोहिया की भावभूमि और उनके विचार दर्शन के अनुरूप वैकल्पिक विकास पथ और भी दर्जनों मुद्दे हो सकते हैं जिन पर चिंतन चर्चा कर कुछ ऐसा समाधानपरक विकल्प निकल सकता है जिनसे वर्तमान और भविय का मार्ग सुधारने और प्रशस्त करने में युवा पी़ढी को मदद मिल सकती है। लेकिन जसवंत सिंह के पास इन मुद्दों के लिए लेखन, चिंतन और प्रबोधन की फुरसत नहीं है।

देश विभाजन के लिए गांधी, नेहरू और पटेल जिम्मेदार थे। इस एक पुरानी और भोथरी हो चुकी ‘थीसिस’ को जसवंत ने फिर से हवा दी है। देश विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था, जिन्ना महान था या नहीं था, जिन्ना सेकुलर था या नहीं था, इन प्रश्नों के जवाब के पूर्व जसवंत सिंह को खुद के अंतःकरण में झांककर देखना चाहिए था कि कंधार विमान प्रकरण के लिए कौन जिम्मेदार था? इस पर तो जसवंत सामूहिक निर्णय की बात कर गोलमोल हो जाते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जब इस मामले ने तूल पकड़ा तो पीएम इन वेटिंग श्री लालकृष्ण आडवाणी की चादर बेदाग बताते हुए आखिर वे बोल ही पड़े और वह भी इतना भर कि आडवाणीजी कंधार ले जाकर आतंकवादियों को छोड़ने के सवाल पर सहमत नहीं थे। आज जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई अपनी अस्वस्थता के कारण लगभग पूरे तौर पर सार्वजनिक जीवन से हट चुके हैं तो जसवंत सिंह को ये कहने में संकोच नहीं होता कि कंधार प्रकरण तो प्रकारांतर से अटलजी के नेतृत्व की असफलता थी।

खैर यहां सवाल जिन्ना का है। जिन्ना महान था तो इस बारे में जसवंत सिंह के तर्कों के बारे में तो पुस्तक पढने पर ही पता चलेगा लेकिन ऊपरी तौर पर उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को जो वक्तव्य दिया उसे देखने पढने से जिन्ना की महानता के पीछे की उनकी दीवानगी समझ आ जाती है। जाहिर तौर पर इस पर टिप्पणी करना अभी मुनासिब नहीं है लेकिन यह विश्लेषण करने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि जसवंत सिंह किस पृष्ठभूमि से सोच रहे हैं। हाल ही में बजट पर चर्चा के दौरान जसवंत सिंह ने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को आयकर छूट सीमा में मामूली वृद्धि पर जो सलाह दी वह इस लिहाज से गौर फरमाने लायक है। वित्तमंत्री से जसवंत सिंह ने कहा था कि आयकर की वर्तमान सीमा में 10000रूपये की छूट का क्या मतलब है इतने में तो कायदे से एक व्हिस्की की बोतल भी बाजार में नहीं मिल पाती है।

देश के बाजार में आम आदमी की दाल रोटी भी इस समय जब जेब की औकात से बाहर हो गई है तब यदि कोई राजनेता व्हिस्की के जरिए महंगाई जैसे गंभीर मुद्दे को स्पर्श करता है तो उसके राजशाही ठाट का अंदाज लगाया जा सकता है। खैर यही कुछ शौक जसवंत के महान पुरूष जिन्ना के भी थे। वह जिन्ना जो कभी इतिहास में हिंदू-मुस्लिम एकता का अग्रदूत कहा जाता था और जो बाद में मानवता का खुंखार कातिल बनकर उभरा। जसवंत सिंह ने जिन्ना के इतिहास के बारे में लगता है कि कुछ ज्यादा ही शोध किया होगा लेकिन वह कुछ भी करें, इतिहास की संकरी गलियों में से भी सच बाहर आकर ही रहता है।

पहली बात तो ये किताब उस प्रतिक्रिया की उपज है जिसने श्री जसवंत के प्रिय नेता श्रीआडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से हटने को विवश कर दिया था। श्री आडवाणी ने उसके बाद अपनी जो जीवनी लिखी उसमें जिन्ना प्रकरण पर एक पूरा अध्याय ही समाहित किया है । आई हैव नो रीग्रेट्स। ठीक उसी तर्ज पर चलकर जसवंत सिंह ने इस नो रीग्रेट्स को किताब की शक्ल में व्याख्यायित करते हुए 'ग्रेट डिबेटेबल आइटम’ में तब्दील कर दिया है।

जिन्ना के बारे में जसवंत हिंदुस्तान के लोगों को क्या नया बताना चाहते हैं जो देश के बौद्धिक वर्ग को पहले से मालूम नहीं है। जिन्ना राष्ट्रवादी था, लोकमान्य तिलक पर सन 1908 में जब देशद्रोह का मुकदमा अंग्रेज सरकार ने ठोंका तो जिन्ना उस मुकदमे की पैरवी में तिलक के साथ खड़ा होता था। दादाभाई नरौजी जब कोलकाता कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो जिन्ना उनके निजी सहायक के रूप में काम कर रहा था। ये लोकमान्य तिलक और दादाभाई नरौजी की ही देन थी जो उसे कांग्रेस की राजनीति में कुछ स्थान मिला। तिलक की प्रेरणा से वह हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी काम करता था। कांग्रेस की राजनीति में गरमपंथ और नरमपंथ दोनों ही धड़ों में उसने अच्छे मधुर संबंध बना कर रखे थे और फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के साथ भी जिन्ना का अच्छा तारतम्य बैठने लगा था। लेकिन इन सबके बीच उसके अंदर राजनीति का वह कीड़ा भी बैठा हुआ था जो किसी व्यक्ति को तुच्छ स्वार्थों की खातिर इंसान से हैवान और नायक से खलनायक बना देने में एक पल की देरी नहीं लगाता है। भारत के अनेक राष्ट्रवादी नेता जिसके शिकार आज भी होते दिखाई दे रहे है।

लोकमान्य को सन 1908 में 6साल की सजा हुई। केसरी में प्रकाशित एक संपादकीय को आधार बनाकर तिलक पर देशद्रोह का मुकदमा थोपा गया। संपादकीय का जो अनुवाद न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया गया वह अनुवाद ही मूलतः गलत था। जिन्ना तेज तर्रार वकील था लेकिन इस त्रुटि को पकड़ नहीं सका या यूं कहें कि अंग्रेज सरकार तिलक को जेल भेजने पर आमादा ही थी। तिलक को न तो कांग्रेस का नरमपंथी धड़ा ही पचा पा रहा था और न अंग्रेज कारिंदे। सो सजा तो होनी ही थी, इसलिए कह सकते हैं कि तिलक के मुकदमे में जिन्ना को सफलता न मिल सकी। इधर तिलक जेल गए उधर जिन्ना का राष्ट्रवाद काफूर हो गया। 1913 आते आते जिन्ना उस मुस्लिम लीग की गोद में जा बैठा जिस मुस्लिम लीग का उसने बंग भंग के सवाल पर 1906 में जमकर विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग की गठन 1906 में ढाका में हुआ था।

1915 में महात्मा गांधी का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में होता है। इधर जिन्ना मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों नावों की सवारी कर रहा था और उसके मन में एक कल्पना यह भी थी कि एक दिन कांग्रेस उसकी मुट्ठी में होगी। गांधी का आगमन इस लिहाज से उसके लिए अच्छा नहीं रहा क्योंकि गांधी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के बाद से ही देश की आम जनता में लोकनेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।

कुछ लोग कहते हैं कि जिन्ना ने तो खिलाफत आंदोलन का विरोध किया, वह कट्टरवाद के खिलाफ था और खिलाफत के सवाल पर कांग्रेस के आंदोलन का भी उसने विरोध किया। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। जिन्ना सिर्फ अपना नेतृत्व चाहता था और वह भी बिना किसी लोकतांत्रिक पद्धति के पालन के वह खुद को सबसे ऊपर रखने की चाहत रखता था। उसकी ऐंठ नवाबी थी। भारत के लोगों की दुःख दशा देखकर जब गांधी ने अपना ब्रिटिश चोला उतार फेंका और पूरे तौर पर देसी खादी की शरण में आ गए तो उनके साथ समूची कांग्रेस ने ही खादी का अनुसरण करना प्रारंभ कर दिया। गांधी राजनीति को धर्माधिस्थित करना चाहते थे, आचरण की पवित्रता के भी वे आग्रही थे। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में जिन्ना को ये पच नहीं रहा था। इसलिए जिन्ना ने गांधी को ढोंगी आदि कहना शुरू कर दिया। और तो और वह कांग्रेस की बैठकों में भी अपनी सिगरेट व सिंगार की सुलग बनाए रखता था। पीने और पहनने की जिन्ना की जो शौकीनी थी उसमें से गांधी को समझ आ गया कि इस आदमी में न तो भारत के लोकजीवन के प्रति आदर है और ना ही मुसलमानों का सच्चा हितैषी हो सकता है। इधर जिन्ना गांधी की लोकप्रियता से इतना जलभुन गया कि उसने हर मोर्चे पर गांधी का विरोध शुरू किया।

दिसंबर, 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन ने गांधी और जिन्ना दोनों को झकझोर कर रख दिया। अधिवेशन में सभी के लिए जमीन पर ही बैठने की व्यवस्था की गई। सभी के लिए एक प्रकार से खादी का वस्त्र अनिवार्य हो गया। और तो और इस अधिवेशन में गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को चरखा चलाकर सूत कातने का काम भी सिखाना शुरू किया। गांधी की प्रेरणा से समूची कांग्रेस ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई । जिन्ना से यह सब ना देखा गया। समूचे अधिवेशन में वही एकमात्र व्यक्ति था जिसने ना तो विदेशी कपड़े उतारे ना तो सार्वजनिक रूप से सिगरेट फूंकना बंद किया। आखिर जिन्ना भारत की राजनीति में नेतृत्व का कौन सा आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे?
जिन्ना की मृत्यु के समय पाकिस्तान में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त श्री प्रकाश की ये टिप्पणी जिन्ना पर बिल्कुल ही सटीक बैठती है॔- 'नंगे सिर और नंगे पैर मैं उस कमरे में गया जहां जमीन पर जिन्ना साहब का शरीर पड़ा हुआ था। मैं उसके चारों ओर घूमा। मेरे ह्दय में दुःख हुआ कि ऐसे पुरूष को भी मृत्यु नहीं छोड़ती जिसकी चाल ढाल से हमेशा ऐसा प्रतीत होता था कि वे पृथ्वी को ही अपने टहलने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं समझते। इन्हें भी कफन से ढके हुए पृथ्वी पर एक दिन चित्त पड़ना ही होता है।’

जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान सभा में अपना पहला भाषण क्या दिया था इस पर श्री आडवाणी जी ने भी अपनी टिप्पणी दी थी और इस संदर्भ में स्वामी रंगनाथानंद का हवाला दिया था। इस भाषण को तो हमारे जसवंत सिंह ने भी हाथों हाथ लिया है। लेकिन इस भाषण की सच्चाई क्या थी आज इतिहास के अध्येताओं से छुपी नहीं है। भारत के प्रख्यात पत्रकार और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक बीजी वर्गीज इस भाषण की सच्चाई के एक पहलू से पर्दा उठाते हैं। वर्गीज के अनुसार, इस भाषण को जिन्ना ने अपने जीवित रहते ही रद्द कर दिया था या यूं कहें कि वापस ले लिया था।’
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जिन्ना का पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया क्या था इसका एक उदाहरण और देखने को मिलता है। देश विभाजन के पूर्व गवर्नर जनरल लार्ड वेवेल ने एक्जीक्यूटिव काउंसिल के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया था। पहले तो इसमें मुस्लिम लीग ने आना स्वीकार नहीं किया लेकिन बाद में उनका पांच सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल काउंसिल के लिए नामित किया गया। इसमें चार मुसलमान और एक हिंदू प्रतिनिधि शमिल किया गया था। हिंदू प्रतिनिधि के रूप में जोगेंद्र नाथ मण्डल नियुक्त किए गए थे। जोगेंद्र नाथ मण्डल जाति से हरिजन थे। उन्हें शामिल कर जिन्ना ने संकेत किया था कि उनके भावी राज्य का स्वरूप सेकुलर रहने वाला है। जोगेंद्र नाथ मण्डल पाकिस्तान के पहले मंत्रिमण्डल में भी शमिल किए गए लेकिन यही जोगेंद्र मण्डल विभाजन के बाद पाकिस्तान से भागकर रहने के लिए कलकत्ते आ गए थे। ये सारा कुछ जिन्ना की जानकारी में था। मण्डल ने भारत के पाकिस्तान में उच्चायुक्त श्रीप्रकाश को अपनी जान पर मंडराते खतरे की जानकारी दी थी। श्रीप्रकाश के अनुसार, उन्हें जान से मारने के लिए मुस्लिम लीग के लोगों ने ही षडयंत्र रच दिया था। पता नहीं कि मण्डल का प्रकरण जसवंत सिंह को ध्यान में आया कि नहीं।

जिन्ना एक झूठा इंसान था, वह कई मायनों में फरेबी था। उसने हिंदुओं के साथ, अपनी मातृभूमि के साथ धोखा किया ही, मुसलमानों के साथ भी उसने कम गद्दारी नहीं की। यही कारण है कि अपने अंत समय में एक कुटिल व्यक्ति की जो दुर्दशा होती है वही दशा जिन्ना की भी हुई। वह अंतिम समय तक लोगों पर अविश्वास करता रहा, एक बेचैन आत्मा, एक अशांतविक्षिप्त मनोदशा में उसने अपना शरीर छोड़ा। श्रीप्रकाश अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान के प्रारंभिक दिन’ में लिखते हैं- 'संसार के इतिहास में जिन्ना उन कतिपय व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने एक नए देश की स्थापना की और पृथ्वी के मानचित्र पर उसे अंकित किया। लेकिन उनके अंतिम दिन सुखी नहीं थे। वे नितांत एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे किसी को अपनी बराबरी का नहीं मानते थे इस कारण उनका कोई मित्र नहीं था। कानून शास्त्र के विशेष ज्ञाता होने के कारण विभाजन के बाद के दृश्यों से वे दुखी थे लेकिन बड़े अभिमानी होने के कारण वे इसे स्वीकार भी नहीं करते थे।’

किस बात का अभिमान था जिन्ना को? इसकी परत दर परत यदि खोली जाए तो वह विषबेल अपनी जीभ लपलपाए हमारे सामने आ जाती है जिसने आज समूचे संसार को आतंकवाद के खून खराबे से त्रस्त कर रखा है। वही आतंकवाद जिन्ना ने हिंदुस्तान में आजादी के पूर्व ही पैदा कर दिया था। गांधी, नेहरू और पटेल जिसे येन केन प्रकारेण समझा बुझा कर, कहीं कहीं कुछ कांग्रेसी तुष्टीकरण के द्वारा भी रास्ते पर लाने का प्रयास कर रहे थे, उस समुदाय के अंदर जिन्ना ने जलजला पैदा कर दिया। किस बात का जलजला पैदा किया था। यही न कि मुस्लिम कौम शासन करने वाली कौम है, वो भला किसी के अंतर्गत कैसे रह सकती है। जिन्ना की गांधी और नेहरू से चिढ का मूल कारण यही था कि गांधी और नेहरू धीरे धीरे हिंदुस्तान में लोकप्रियता के उस शिखर पर पहुंच गए जहां पहुचने का स्वप्न जिन्ना रह रह कर देखा करते थे।

ये किस हद तक खतरनाक दर्जे तक पहुंच चुकी थी उसका एक उदाहरण श्रीप्रकाश के हवाले से मिलता है। महात्मा गांधी के निधन के उपरांत पाकिस्तान की विधानसभा में गांधी के प्रति श्रद्घांजलि प्रस्ताव आया। उस समय श्री प्रकाश खुद उस सभा में उपस्थित थे। सभा की कार्रवाई के बारे में श्रीप्रकाश बताते है - पाकिस्तान की विधानसभा में गांधीजी की मृत्यु के सम्बंध में शोक प्रदर्शन किया गया। मैं इस अधिवेशन में दर्शक के रूप में गया था। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली खां, सिंध के मुख्यमंत्री जनाब खुरो साहब और अन्य वक्ताओं ने गांधीजी की बड़ी प्रशंसा की और उनके बारे में ‘महात्मा’ शब्द से बार बार निर्देश करते रहे। इस सभा की अध्यक्षता जिन्ना साहब कर रहे थे। जैसा की प्रथा थी अंत में वे भी बोले। उन्होंने एक बार भी गांधीजी का नाम नहीं लिया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे ‘महात्मा’ शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते थे। गांधीजी के नाम के साथ महात्मा शब्द जोड़ना उन्हें पसंद नहीं था। गांधीजी का नाम संकेत उन्होंने ‘उन’ और ‘वह’ से ही किया और कहा कि ‘उन्होंने अपनी जाति वालों और अपने धर्मावलंबियों की सेवा यथाबुद्धि और यथाशक्ति की। उन्होंने बार बार जोर देकर कहा कि ‘उन्होंने अपने संप्रदाय और धर्म वालों की सेवा की।’ नियमानुसार जिन्ना साहब के हस्ताक्षर से शोक प्रस्ताव भारत सरकार को जाना था लेकिन उस प्रस्ताव को जिन्ना साहब ने अपने हस्ताक्षर से नहीं भेजा।... आश्चर्य की बात कि गांधीजी की मृत्यु का समाचार सुनने के बाद से ही जिन्ना का स्वास्थ्य भी गिरता गया। वे अधिकांश समय कराची की बजाए क्वेटा और जियारत में ही बिताने लगे। जब वे कराची कभी कभी आते तो बड़े धूमधाम से उनकी सवारी निकलती। उन्हें देखने पर ऐसा प्रतीत होता था कि महात्माजी के उठ जाने के बाद उन्हें ऐसा लगता था कि संसार में मेरे बराबर का अब कोई रह ही नहीं गया जिससे प्रतिद्वंद्विता की जाए। संसार में तो मेरा काम ही समाप्त हो गया। गांधी जी की मृत्यु के बाद जिन्ना सिर्फ सा़ सात महीने ही जीवित रहे।’

जिन्ना गांधीजी के प्रति प्रारंभ से ही पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। इसका विवरण अनेक अंग्रेज अफसरों ने बार बार अपने वक्तव्यों में दिया था। ऐसा ही एक अंग्रेज था लुईस जो असम में इंडियन ऑयल कंपनी का मुख्य अधिकारी थी। लुईस के अनुभवों को जानकर श्रीप्रकाश ने लिखा कि एक बार देश की राजनीतिक स्थिति पर उससे बात होने लगी। मैंने बातों ही बातों में कहा कि जाने क्यों जिन्ना साहब के मन में गांधीजी के प्रति विकार घर गया? तो उसने तपाक से जो उत्तर दिया उससे मैं स्तब्ध रह गया। उसने कहाक्यों न हो? आखिर गांधी ने ये क्यों कहा कि जिन्ना समाप्त हो गया। और जब गांधी ने ये कहा तो जिन्ना के लिए ये जरूरी था कि वो दिखावे कि वो समाप्त नहीं हुआ है।….. जिन्ना तो लंदन में बसने का निश्चय कर लिया था। वहां वकालत करने के लिए कार्यालय और मकान का प्रबंध भी उसने कर लिया था। जब उन्हें ये समाचार मिला कि गांधी कहते हैं कि मैं समाप्त हो गया और इसी कारण लंदन आया हूं तो स्वाभाविक था कि वे भारत वापस आए और गांधी को दिखाया कि वे समाप्त नहीं हुए हैं।’
इस प्रसंग पर श्रीप्रकाश आगे लिखते हैं, 'बहुत से अंग्रेजों से मेरी बातचीत हुई और सभी ने कांग्रेस के विरूद्ध जिन्ना और पाकिस्तान का पक्ष लिया। वे तो भारत का पक्ष ही सुनने को तैयार नहीं थे। एक अंग्रेज ने तो दांत पीसकर मुझसे कहा कि मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम विशालकाय राक्षस की तरह हो जो छोटे से बेचारे पाकिस्तान को पीस कर रख देना चाहते हो।… आखिर मेरे पास इनकी सुनने के अतिरिक्त क्या उपाय था। जहां तक गांधी जी को मैं जानता था उन्होंने जिन्ना के बारे में कभी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जैसा कि अंग्रेज अफसर बताया करते थे।’