Thursday, July 30, 2009

भारतीय राजनीति को 'तिलक' चाहिए

आज भारत के कुछ नेता जब ये कहते हैं कि स्वराज आ गया है उसे सुराज में बदलना है तो उन्हे सत्य के दिग्दर्शन कराने के लिए तिलक के समान प्रखर मुद्रा में कोई सामने नहीं आता। क्या यही हिंदुस्तान का वास्तविक स्वराज है। और अगर यही स्वराज है तो अंग्रेजीराज क्या था? वही संसद, वही विधानसभाएं, वही पुलिस, वही पटवारी और वही कलेक्टर और वही सरकारी, प्रशासनिक षडयंत्र, आखिर क्या बदल गया हिंदुस्तान में? यही न कि गोरे की जगह कालों ने सारी जगहें भर दीं। लेकिन वो घाव हिंदुस्तान की धरती से मिट तो नहीं सके जिन्हें भरने की खातिर तिलक जैसे नेता ने देश में आजादी का जोश जगाया था।
आज के कथित राष्ट्रीय राजनीतिक नेताओं से कोई पूछे कि क्या वो तिलक के स्वराज की परिभाषा बता सकते हैं नई पीढ़ी को? क्या वो ब्रिटिश भारत सरकार और वर्तमान भारत सरकार के राज का अंतर समझा सकते हैं नई पीढ़ी को? और यदि नहीं तो उन्हें गिरंबां में झांककर वह करने और बनने का प्रयास करना चाहिए जिसे करके तिलक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम हस्ताक्षर बन गए।
1947 के पहले की भारत सरकार और 1947 के बाद की भारत सरकार में यदि कोई मूलभूत अंतर हो सकता है तो सिर्फ यही कि 47 के पहले अंग्रेजों के हाथों में भारत सरकार की कमान थी और आज भारतीयों के हाथ में। सिर्फ गोरे और काले का फर्क आया है बाकी तो ये वही सरकार है जिसने हिंदुस्तान की दशा रंक कर डाली। और आज भी हिंदुस्तान की दशा में कोई विशेष फर्क नहीं आया है।
इस सरकार की रिपोर्टों की ही मानें तो स्थिति की गंभीरता का पता लग जाता है। अर्जुन सेनदास गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट सन् 2008 में संसद पटल पर रखी गई थी। उस रिपोर्ट ने बताया कि देश की तकरीबन 77 फीसद आबादी रोजाना 10 से 20 रूपये में गुजारा करने को मजबूर है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट हमारी सरकारी मशीनरी पर छाए भ्रष्टाचार के संकट को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है तो दूसरी ओर किसानों की आत्महत्याओं के सिलसिले का न रूक पाना और देश में तेजी से पैर पसारते नक्सली आतंक से स्पष्ट है कि देश में सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। पिछले एक दशक में लगभग एक लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं? क्या कोई द्रवित हो रहा है? देश के 150 जिले नक्सली आतंक की जद में आ चुके हैं, क्या सिर्फ बंदूक की गोली ही इस समस्या के समाधान का रास्ता है? ये जो नक्सली हैं कहीं विदेश से नहीं आए हैं, इसी माटी में वे भी जन्मे हैं, लेकिन आज ऐसे हालात कैसे पैदा हो गए कि उन्होंने हाथों में बंदूकें ले ली हैं? संभव हो कि उन्हें समर्थन और शक्ति देने के पीछे किसी विदेशी ताकत का हाथ हो लेकिन उनकी भावनाएं तंत्र के खिलाफ विद्रोही क्यों हो गईं इसके कारणों पर किसी ने कभी सोचा है? छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक पिछले दिनों दिल्ली में कुछ प्रमुख पत्रकारों के बीच बैठे थे और वहां उन्होंने डॉ. विनायक सेन के संबंध आतंकवादियों से होने की बात कही। उन्होंने कहा कि ये डॉक्टर नक्सली आतंकियों को रणनीतिक सहायता उपलब्ध कराता है, उनके लिए खुफियागिरी करता है? इसलिए इसे गिरफ्तार किया था, सर्वोच्च न्यायालय के सामने हम पूरे प्रमाण नहीं रख सके, ये बात अलग है और इसे जमानत मिल गई लेकिन ये आदमी देश की सुरक्षा को खतरा है।
अब इस स्थिति पर क्या टिप्पणी की जा सकती है? हालात की गंभीरता का अंदाजा न तो इस पुलिस महानिदेशक को है और ना ही हमारे हुक्मरानों को। जब जनता भूखी और नंगी हो, उसके सामने ही देश के शहरों में अय्याशी करने वाला एक वर्ग अपनी सुख सुविधाओं पर पैसा पानी की तरह बहा रहा हो और जनता दो जून की रोटी को मोहताज होने लगे तब प्रकृति के सत्य के अनुसार क्या होना चाहिए, इसे जानने में किसी बुध्दिमान को भला कितनी देरी लग सकती है?
न्यायपालिका, कार्यपालिका जिस देश में उसकी अपनी भाषाओं में काम नहीं करते वह सरकारें और उसका तंत्र भला अपनतत्व कैसे पैदा कर सकता है? जहां 24 से 30 साल के छोरे एक परीक्षा पास कर शासन का ऐसा एकाधिकार हासिल कर लेते हैं कि उनकी उपस्थिति में बुजुर्ग और उम्रदराज जनता भेड़-बकरियों की तरह ढकेली और जमीन पर बिठा दी जाती हो, जहां लेखपाल से लेकर न्यायालय और चपरासी, संतरी से लेकर मंत्री तक सिर्फ धन और ताकत की भाषा ही समझते हैं वहां प्रकृति के सिध्दांतों के अनुरूप क्या न्याय होना चाहिए, इसे समझना कितना कठिन हो सकता है? ऐसी व्यवस्था और सरकारों को उलटने के लिए ही प्रकृति तिलक, गांधी, जेपी, दीनदयाल और लोहिया जैसे रत्नों को पैदा करती है।
सवाल है कि इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर कोई विश्वास कैसे करे जबकि हम जानते हैं कि यदि हम ही प्रधानमंत्री बन जाएं तो कुछ भी न कर सकेंगे सिवाय संसद में विधायी कार्यों को निपटाने के। और प्रधानमंत्री भी हमारे देश में कौन बनेगा यदि यह भी कहीं दूर सागरपार बैठी कोई ताकत तय करेगी तो परिस्थिति क्या बन सकती है? किसी की ईमानदारी और देशभक्ति पर शक करना बेमानी बात है, निर्णय प्रक्रिया पारदर्शी हो या गोपनीय लेकिन उसके पीछे की मानसिकता क्या है, ये उस निर्णय के परिणाम बता देते हैं। हिंदुस्तान की जो आज हालत है, देश अपनी बुध्दि और मन से सोच पाने में कुंठित हो चला है तो हालत समझ पाना किसी भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। प्रश्न है कि ये हालत पैदा करने के लिए जिम्मेदार कौन है? बचपन से ही एक विशेष मानसिकता में जिंदा रहने, पलने और बढ़ने के लिए जहां आम अवाम को मजबूर कर दिया गया है। आज हकीकत समझ-देख पाने में हम असमर्थ हैं क्योंकि हमने देखने और समझने के अपने पैमाने बना लिए हैं।
हमारे राजनीतिक दलों की हालत क्या है? इन दलों में आंतरिक अनुशासन के नाम पर ऐसा सन्नाटा पसरा पड़ा है कि किसी में हिम्मत ही नहीं हो रही है कि वो बिगड़ते हालात और हमारे नेताओं और व्यवस्था की लाचारी पर सवालिया निशान खड़ा कर सकें। हिम्मत आए भी तो कैसे क्योंकि बहुतांश राजनीतिज्ञ देश के भले की सोचने की बजाए अपने व्यावसायिक और बेटे-बेटियों-रिश्तेदारों के साम्राज्य को बनाए रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों पर येन-केन प्रकारेण अपना एकाधिकार बनाए घूम रहे हैं। वे भ्रष्टाचार में स्वयं इतने आकंठ डूबे हैं कि कोई इनसे किसी परिवर्तन की क्या उम्मीद करे?
आखिर कौन नहीं जानता कि हमारे चुनाव किस प्रकार लड़े और लड़ाए जा रहे हैं? अगर इसी कसौटी पर हम अपने लोकतंत्र को कस लें तो देश की संसद में बैठे अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि जेल की सलाखों के भीतर होने चाहिए। क्योंकि इनमें से कोई ये दावा नहीं कर सकता कि उसने चुनाव जीतने के लिए चुनाव आयोग द्वारा बांधी गई खर्च सीमा के दायरे में रहकर चुनाव लड़ा है, अनैतिक हथकंडों का इस्तेमाल नहीं किया है? और इन्हें रूपया कहां से मिलता है? इसका क्या कोई ऑडिट होता है? चुनावी गणित फिट करने के लिए पंचायती चुनावों से लेकर संसदीय चुनावों तक सुरा और सुंदरियों को जो मायाजाल खड़ा किया जा रहा है, आज कौन नेता है जो खम ठोंक कर इस सड़ रही व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए आगे आए। किसी पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय से करोड़ों रूपए उठा लिए जाते हैं लेकिन प्राथमिक सूचना रिपोर्ट तक दर्ज करने का साहस कोई नहीं करता है। आखिर क्यों? क्योंकि हमारे राजनीतिक दल और नेता खुद ही अवैध धंधों में लिप्त हैं। उनमें सच का सामना करने का साहस ही नहीं है।
वैसा ही देश का प्रशासन तंत्र बन गया है। हाल ही में देश में तकनीकी शिक्षा को संचालित करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था एआईसीटीई के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की असलियत देश को पता चली। पंजाब में आयकर विभाग के शीर्ष अफसरों के बारे में रिपोर्टें प्रकाशित हुईं, जम्मू-कश्मीर में राजनीतिज्ञ-अफसर गठजोड़ किस प्रकार रातें रंगीन कर रहा था इसका खुलासा हुआ, उ.प्र. के एक पूर्व मुख्य सचिव की असलियत देश के सामने आई इन उदाहरणों से पता चलता है कि हम कितने पानी में हैं। ये उबलते चावल की हांडी के वो दाने है जिन्हें छूकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा तंत्र किस हालत में पहुंच गया है? यहां ये दावा भी किया जा सकता है कि आखिर ये पकड़े भी तो जा रहे हैं लेकिन ये स्वीकार करने में भी संकोच किसी को नहीं होना चाहिए कि देश का वर्तमान प्रशासन भ्रष्टाचार के खतरनाक दलदल में धंस चुका है। इसके पहले कि वो सारे देश को अपने हाथों में लेकर ध्वस्त हो हमें फौरी तौर पर उपाय खोज लेने चाहिए।
समस्याओं का अंतहीन सिलसिला है, फेहरिस्त दर फेहरिस्त है किंतु समाधान क्या है। यह समाधान पाने के लिए ही हमें तिलक महाराज की ओर लौटना होगा। 1905 में उन्होंने हमें जो चतुस्सूत्री मंत्र दिया था उसे फिर से खंगालना होगा। उस चतुस्सूत्री का पहला मंत्र था -स्वराज्य की स्थापना। हमें हिंदुस्तान में वास्तविक स्वराज्य की स्थापना में जुटना होगा। आज जो कथित स्वराज है ये तो उसी सभ्यता का हिस्सा है जिसे गांधी ने हिंद स्वराज में चंडाल सभ्यता कहकर लताड़ा था। इस कथित स्वराज के रूप में चल रहे ब्रिटिश राज्य को हमें पूरे तौर पर अलविदा कहना होगा। दूसरा मंत्र दिया था तिलक महाराज ने-स्वदेशी। स्वदेशी सिर्फ विदेशी या देशी कंपनियों की वस्तुओं तक का मामला नहीं है इससे भी अधिक ये जीवनमूल्यों से जुड़ा मामला है। तो अपने स्वदेशी जीवनमूल्यों और व्यवहार के तरीकों को अपने आचरण में उताने की दिशा में हमें आगे बढ़ना होगा। फिर से उसी प्राकृतिक जीवन की शरण लेनी होगी जिस पर चलकर हजारों साल तक हम स्वावलंबी रहे और आगे भी रह सकते हैं। विकास और जीवन की धुरी गांव को बनाना होगा। ऐसे गांव जहां लौकिक और पारलौकिक शिक्षा के साथ स्वस्थ जीवन से जुड़ी हर चीज मौजूद रहे। विश्व का वर्तमान परिदृश्य भी यही कह रहा है कि हम प्रकृति के पास चलें। वैश्विक तापमान वृध्दि का संकट सारी दुनिया को अपनी जीवनशैली बदलने के लिए मजबूर कर रहा हैं। हमारे पास तो वो थाती है कि हम अपनी जीवनशैली को और विकसित कर सारी दुनिया को इस संदर्भ में दिशा दिखा सकते हैं।
तीसरा मंत्र था-बहिष्कार। तो जो-जो बातें हमारे समाज की मनोरचना के विपरीत हैं, भारतीय जीवन दर्शन को अवहेलित करती हैं, उन सभी चीजों का बहिष्कार और परिष्कार हमें करना होगा। ठीक है हमारे पास कमाने और संचय करने की बुध्दि भगवान ने कुछ ज्यादा दे दी है लेकिन हमें सोचना होगा कि सारी वसुधा हमारे उपभोग के लिए तो नहीं बनी। इस लिहाज से ऐसी व्यवस्था निर्मित करनी होगी कि कोई कमाए कितना ही क्यों ना, उसके उपभोग की एक निश्चित सीमा रहनी चाहिए। संतुलित उपभोग के बाद शेष बचत से उसे सिर्फ नए उद्यम खड़े करने का हक होगा जहां समाज का धन समाज के कल्याण के लिए फिर से नियोजित कर दिया जाएगा। इसलिए अमर्यादित और असंयमी उपभोग का बहिष्कार कर हम पश्चिम की सभ्यता को सिरे से खारिज कर सकते हैं।
चौथा मंत्र है-राष्ट्रीय शिक्षा का। हमारा देश विविध भाषा और पांथिक बहुलता से समृध्द देश है। यहां की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी होनी चाहिए कि जो व्यक्ति को आजीवन तमाम कुंठाओं से दूर रख कर मुनष्यजीवन की बेहतरी के लिए कुछ करना को हौसला दे सके। इसलिए शिक्षा रोजगार परक होने के साथ साथ संस्कारप्रद भी बननी चाहिए । इसमें इस राष्ट्र के जीवनोद्देश्य का सार समाहित रहना चाहिए।
कलियुग का सत्य है यथा राजा तथा प्रजा। इसलिए शुरूआत नेतृत्व के स्तर से होनी चाहिए। हमारा नेतृत्व पवित्र भाव से युक्त और जुझारू होना चाहिए। तिलक महाराज ने आजीवन इस पवित्रता को भंग ना होने दिया। उनके समय आजादी की बात करना कल्पनालोक में उड़ने जैसा था लेकिन अपने पराक्रम से उन्होंने अपने जीवित रहते ही आजादी को देश का केंद्रीय मुद्दा बना दिया। माण्डले कारावास से 6 साल बाद जब सन् 1914 में छूटकर वो आए तो उनके माथे पर तनिक भी शिकन नहीं थी। उनका स्वास्थ्य जरूर खराब हो चला था लेकिन उन्होंने कांग्रेस को फिर से स्वराज्य की मांग के लिए ललकारने में मिनट नहीं गंवाया। 5 जनवरी, 1915 को उन्होंने केसरी में संपादकीय लिखा- पिछले कुछ सालों में कांग्रेस पर एक बार फिर उदारवादियों का वर्चस्व बढ़ गया है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि इन उदारवादियों ने कांग्रेस को फिर से एक क्लब बना कर रख दिया है। एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस की भूमिका समाप्त हो गई है। कांग्रेस देश में अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव खो चुकी है। इसके लिए मैं सीधे तौर पर गोखले, वाचा और मेहता को जिम्मेदार ठहराता हूं। ये लोग किसी भी कीमत पर राष्ट्रवादियों को कांग्रेस में घुसने नहीं देना चाहते। ये राष्ट्रवादियों से भयभीत रहते हैं।
तिलक ने गोखले और मेहता पर कांग्रेस को कमजोर करने के लिए प्रहार दर प्रहार जारी रखे। इस बीच 19 फरवरी, 1915 को गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। कुछ ही महीनों बाद 5 नवंबर, 1915 को फिरोजशाह मेहता भी चल बसे। तिलक विरोधियों ने इन मौतों के लिए भी तिलक के कठोर लेखन को जिम्मेदार ठहराया। लेकिन तिलक ने केसरी में प्रकाशित अपने संपादकीय और श्रध्दांजलि सभाओं में दिए गए वक्तव्यों से इसे झूठला दिया। उन्होंने कहा-मेहता और गोखले के साथ ब्रिटिशराज के सवाल पर मेरे मतभेद थे लेकिन इससे राष्ट्रजीवन के विकास के संदर्भ में उनका योगदान तो छोटा नहीं हो जाता। ये दोनों नेता भारत के भाल के मुकुट थे।
इन दोनों नेताओं के दिवंगत होते ही कांग्रेस में राष्ट्रवाद का परचम बुलंद हो गया। कांग्रेस की रगों में नया खून दौड़ने लगा था। तिलक महाराज ने इस नए खून के तेवरों को भांप लिया। उनके चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई कि जिस उद्देश्य की खातिर उन्होंने धरा धाम पर जन्म लिया वह जीवनोद्देश्य पूरा हुआ। सारे देश में स्वराज्य प्राप्ति का स्वर धीरे धीरे बुलंद हो चुका था। उधर प्राची में तिलक का जीवन सूर्य अस्त हो चला था तो दूसरी ओर पूरब में गांधी के रूप में हिंदुस्तान की राजनीति में एक नए युग का सूर्योदय हो रहा था। समाप्त
नोट-तिलक महाराज को समर्पित इस श्रध्दांजलि का मेरा मकसद किसी प्रकार से किसी भी व्यक्ति या संस्था की गरिमा को क्षीण करना नहीं है। हमारा नेतृत्व वर्ग अपने जीवनोद्देश्य की पहचान कर भारत राष्ट्र के शाश्वत जीवनोद्देश्य से उसका मिलान करे, महात्मा तिलक के समान अपनी भूमिका पहचान कर भारतीय राजनीति में व्याप्त जड़ता को दूर करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में कुछ युवा सक्रिय हों, ऐसे युवा जो नैतिक और चारित्रिक रूप से अपने जीवन को सदा कसौटी पर कसने को तैयार हों, सिर्फ इसी भाव-भावना का प्रचार मेरा मकसद है। यदि इस मकसद में मैं रंच मात्र भी कामयाब हुआ तो समझूंगा कि मेरी लेखनी सफल है।

वी नीड मिलिटेंसी, नॉट मेंडिकेंसी

ये 27 जुलाई, 1897 की तारीख थी जब बाम्बे प्रेसीडेंसी के चीफ मेजिस्ट्रेट मिस्टर जॉन सैंडर्स स्लेटर ने लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी का वारंट जारी किया। ब्रिटिश सरकार ने तिलक के अखबार केसरी के कुछ लेखों और उनके भाषणों को राजद्रोह माना था। तब उन्हें पहली बार 18 महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। सरकार ने सजा से बचने के लिए उनसे माफी मांगने और आगे से ऐसा ना करने की चेतावनी भी दी लेकिन तिलक ने ऐसा करना गंवारा ना किया। 1897 में तिलक के विरूद्ध अंग्रेजों ने जो मुकदमा चलाया वह मुकदमा अंग्रेजी राज को चुनौती देने के पहले लोकतांत्रिक प्रयास को पूरी ताकत से कुचलने का प्रयत्न था। जो घटना घटी थी वह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही ऐतिहासिक महत्व की नहीं थी, संपूर्ण एशिया को लोकमान्य तिलक ने संदेश दे दिया था कि ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक गुलामी से बाहर निकल आने का समय आ गया है। तिलक ने उस समय समूचे मध्य भारत में पड़े अकाल और उसके बाद पुणे सहित अनेक इलाकों में फैले प्लेग के बारे में अपने अखबार में रिपोर्ट दर रिपोर्ट प्रकाशित की। इसी क्रम में परिस्थिति से निपट पाने में अंग्रेज अफसरों और प्रशासन की नाकामी पर भी वे जमकर बरसे। तिलक अपने मित्रों के साथ उस भयानक दौर में राहत कार्य के लिए स्वयं ही दौड़ धूप कर रहे थे, सैंकड़ों ग्रामों में भूखे लोगों के लिए भोजन, पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करने में तिलक और उनके साथी जुटे थे। लेकिन परिस्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी, अंग्रेज सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लाखों लोग पेट की खातिर अपने गांव छोड़ कर पुणे, पनवेल, नाशिक, शोलापुर, अहमदनगर, जुन्नार सहित अन्य दर्जनों कस्बों और शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। और इसी में उन्हें दिखाई पड़ा कि ब्रिटिश सरकार के अफसर हिंदुस्तान की जनता पर कैसा कहर बरपा रहे हैं। तिलक ने इस भयावह स्थिति पर अपने अखबार में कठोर टिप्पणी की। 17 नवंबर, 1896 दिनांकित केसरी में उन्होंने लिखा- एक ओर तो लोग घासफूस की कीमत पर अपने पशुओं को बेच रहे हैं क्योंकि खुद की जिंदगी को बचाने के लाले पड़ रहे हैं तो दूसरी ओर गांवों में घास और अनाज सोने के भाव बिकने के हालात पैदा हो गए हैं। हजारों लोग सपरिवार शहर की ओर रूख कर गए हैं और जो थोड़े लोग गांवों में बचे है वो भी शीघ्र शहर की ओर रूख करने की तैयारी कर रहे हैं।………अकाल के समय सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता के प्राण रक्षण और उनके खान-पान का इंतजाम करे। सरकार ने इसके लिए अकाल बीमा फंड भी बनाया हुआ है जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई जमा कर रखी गई है। जनता के करोड़ों रूपए सरकार के पास जमा हैं और जनता भूखों मरे, ये स्थिति क्यों बनी, किसने बनाई।…. तिलक महीनों तक लगातार अकाल की स्थिति पर सरकार और उसके तंत्र को आगाह करते रहे। एक ओर तिलक और उनके सहयोगियों ने स्थान-स्थान पर अकाल पीड़ितों के लिए राहत शिविर लगा कर वहां पर उनके लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था की वहीं दूसरी ओर गांव गांव से तथ्य आधारित रिर्पोटें मंगाकर सरकार की निष्क्रियता के खिलाफ उन्होंने अपने अखबार केसरी में सरकारी अकर्मण्यता के विरूद्ध जंग छेड़ दी।
अकाल का ताण्डव अभी समाप्त भी नहीं हुआ कि मध्य भारत को प्लेग की महामारी ने घेर लिया। पुणे में एक ओर तो तिलक और उनके साथी साफ-सफाई और रोगियों की पहचान कर उन्हें अस्पताल भेजने में जुटे तो वहीं प्लेग कमिश्नर रैण्ड ने समस्या से निपटने का एक अत्यंत खतरनाक तरीका निकाला। रैण्ड ने सेना के जवानों को लेकर एक सर्वे टीम बनाई और वे सब उन घरों का पता लगाते जहां प्लेग का कोई मरीज पाया जाता। मरीज और उनके परिजनों को घर से बाहर निकाल कर वे घर के एक-एक सामान को आग के हवाले कर देते। गांवों में तो रैण्ड ने सीधे सीधे घर ही आग के हवाले करने का निर्देश दे दिया। सीधी-साधी गउ समान जनता अंग्रेजों का ये अत्याचार देखकर जार जार रो उठी। एक ओर तो लोग अपने प्लेग पीड़ित परिजन के विछोह से पीड़ित रहते दूसरे अंग्रेज सरकार के कर्मचारी उनके घर को आग के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते।
तिलक से ये परिस्थिति देखी ना गई। तिलक ने केसरी में सिंहगर्जना की। ये कहर बरपाना बंद करो मिस्टर रैण्ड। प्लेग से निपटने का ये कोई तरीका नहीं है कि तुम और तुम्हारी सेना गांव के गांव आग के हवाले कर दे। तुम्हें लोगों की सेवा और साफ-सफाई के कार्य में सरकार ने नियुक्त किया है ना कि लोगों को यमलोग पहुंचाने के कार्य में। तिलक ने रैण्ड से बार बार विनती भी कि वह और उसके सैनिक लोगों से सभ्य तरीके से पेश आएं, जनता का सहयोग लेकर प्लेग की विभीशिका का सामना करें। लेकिन रैण्ड के कानों में जूं तक न रेंगी। इस पर तिलक ने केसरी में जो लिखा वह आगे चलकर इतिहास का दस्तावेज बन गया। तिलक ने लिखा कि इस धरती पर जनता कितनी भी दब्बू क्यों न हो जाए, इस पागलपन भरे आतंकी कार्य का बदला लेकर रहेगी।
और वही हुआ जिसकी आशंका तिलक ने प्रकट की थी। चाफेकर बंधुओं ने 22 जून, 1897 को मिस्टर रैण्ड और कर्नल अर्स्ट को गोलियों से भून दिया। हत्या होते ही सरकार ने तिलक के खिलाफ घेरेबंदी तेज कर दी। पुणे में छापेमारी का क्रम तेज हो गया। सरकार और प्रशासन तंत्र की ताबड़तोड़ छापेमारी से रंचमात्र भी न घबराए तिलक ने केसरी में सरकार को फिर से घेरा। ‘क्या सरकार का दिमाग खराब हो गया है’ और ‘शासन का मतलब प्रतिशोध नहीं’ नामक शीर्षक से लिखे आलेखों ने अंग्रेज सरकार को तुरंत तिलक के खिलाफ कार्रवाई का अवसर दे दिया। सरकार ने जनता की भावनाएं भड़काने और राजद्रोही लेखन के आरोप में तिलक को गिर्फ्तार कर लिया। उनके ऊपर मुंबई उच्च न्यायालय में मुकदमा चलाया गया और 18 महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। सजा पूरी कर जब तिलक जेल से लौटे तो उन्होंने फिर पूरे जोशो खरोश से केसरी में संपादकीय लिखा- हम अपने लक्ष्य स्वराज को पाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, कोई भी भय, अपमान और अत्याचार हमें हमारे लक्ष्य से डिगा नहीं सकेगा। जब तक हमारे भाव और ह्दय पवित्र हैं और हम मानव मात्र के प्रति हर प्रकार की घृणा से दूर है, हमें किसी से डरने की जरूरत भी नहीं है।
जेल से लौटने के बाद तिलक कांग्रेस के मंच पर सक्रिय हो उठे। इसके पूर्व महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और शिवाजी जन्मोत्सव का आयोजन प्रारंभ कर वे जनता को भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का संकेत दे चुके थे। उनकी लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी। वे अपनी आत्मा और कृति में एक समान व्यवहार कर रहे थे यही कारण है कि जनता का अपने नेता में विश्वास बढ़ रहा था। सन् 1905 का वर्ष भारतीय राजनीति में अत्यंत महत्व का साल माना गया। इसी साल लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजित करने का निर्णय लिया। तिलक ने सरकार के इस निर्णय के विरूद्ध जनता में आए उबाल को समय रहते पहचान लिया और बंगाल के विभाजन के प्रश्न को समूचे देश का प्रश्न बना दिया। 15 अगस्त, 1905 को केसरी में उन्होंने लिखा-संकट आ पहुंचा है, देशवासियों सावधान। तिलक ने समझ लिया कि ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन अंग्रेज हिंदुस्तान के टुकड़े कर देंगे। उन्होंने तत्काल अंग्रेजी वस्तुओं के बहिश्कार का आह्वान किया। इसी आंदोलन के दौरान तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और राष्ट्रीय स्कूलों की अधिकाधिक स्थापना पर जोर देना शुरू किया। उनके इस अभियान में लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष पूरी तरह साथ आ गए और आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी रूप धारण कर लिया।
राष्ट्रीय राजनीति में तिलक का ये उभार उन कांग्रेसियों को पसंद नहीं आया जो कांग्रेस को अपनी निजी जागीर बनाए बैठे थे। तिलक ने सीधे तौर पर अंग्रेज सरकार को भारत की दारूण और दु:खदायी स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया। तिलक ने कहा कि अंग्रेज सरकार अपने तुच्छ स्वार्थों की खातिर सदियो से साथ साथ रहते चले आ रहे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन का विशबीज बो रही है। बंगाल विभाजन सरकार की इसी सोच का नतीजा है। उन्होंने कहा कि हमें ऐसी सरकार नहीं चाहिए जो भाइयों में बंटवारा करा दे। इस अंग्रेज सरकार को जितनी जल्दी हो देश छोड़कर चले जाना चाहिए। इधर तिलक अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र रूप धारण कर चुके थे उधर भारत में अंग्रेज सरकार समर्थक कांग्रेसी खेमे में बेचैनी का वातावरण घर करने लगा।
वाराणसी अर्थात बनारस में दिसंबर, 1905 में आयोजित कांग्रेस के 21वें अधिवेशन ने कांग्रेस में समान रूप से पनप चुकी इन दो विचारधाराओं को अंतर रेखांकित कर दिया। अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए बनारस रेलवे स्टेशन पर जब तिलक उतरे तो 20000 से भी अधिक लोग उन्हें देखने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़े। हजारों ने उनके समर्थन में आवाज बुलंद की- जुझारू नेता चाहिए, दब्बुओं कुर्सी छोड़ दो। इसके उत्तर में तिलक ने भी विजयशाली मुद्रा में कांग्रेस के नरमपंथी धड़े का संदेश भेजा-ब्रिटिश राज के खात्मे के लिए अब उग्रनीति चाहिए, विनय के दिन गए। उनका कहे हुए शब्दों ने अंग्रेज सरकार को कांग्रेस के बदलते तेवरों से परिचित करा दिया-मिलिटेंसी, नॉट मेंडीकेंसी।
बनारस अधिवेशन में स्वराज्य के प्रश्न पर गोपाल कृष्ण गोखले और उनके सहयोगियों के साथ लोकमान्य के तीखे मतभेद खुलकर सामने आ गए। अधिवेशन में एक ओर गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा कि हम औपनिवेशिक स्वराज चाहते हैं। इसी के साथ कांग्रेस ने विषय समिति की बैठक में जार्ज पंचम और उनकी रानी के भारत आगमन के लिए स्वागत प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया गया। तिलक ने इसका तीखा प्रतिवाद किया और कहा कि जार्ज पंचम के स्वागत की जरूरत हमें क्यों पड़ गई? कांग्रेस में जार्ज पंचम के आगमन पर इतना उत्साह क्यों? उन्होंने कहा कि अंग्रेज सरकार और उनसे जुड़े अंग्रेजी वफादार इस कार्य को मजे से कर लेंगे, कृपया इस मुद्दे पर कांग्रेस अधिवेशन का किमती समय जाया न करें। तिलक के इस प्रतिवाद ने कांग्रेस आलाकमान को स्पश्ट कर दिया कि अब कांग्रेस में किसी की मनमानी नहीं चलेगी। अब जो होगा वह ‘स्वराज्य’ की कसौटी पर कसा जाएगा। कांग्रेस में उपस्थित अंग्रेजपरस्त तत्वों के कारण तिलक विरोध भी प्रबल होने लगा। नरमदल ने अपनी आंतरिक बैठकों और वार्ताओं में साफ कर दिया कि तिलक अपनी शर्तों पर मनमाने तरीके से कांग्रेस की संपूर्ण कार्रवाई प्रभावित कर रहे हैं, कांग्रेस के कार्य में बाधा पहुंचा रहे हैं।
तिलक ने कांग्रेस के बनारस अधिवेशन और इसके बाद दिसंबर, 1906 में कोलकाता अधिवेशन में स्वराज्य, स्वदेशी, अंग्रेजी माल के बहिष्कार और ब्रिटिश राज के खिलाफ सत्याग्रह प्रारंभ करने के सवाल को बहुत ही मुखर ढंग से उठाया। बनारस अधिवेशन में कांग्रेस की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले कर रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले यद्यपि तिलक की मांगों के प्रति व्यक्तिगत दृष्टिकोण से सहमत थे लेकिन वे उन मुद्दों के संदर्भ में कांग्रेस के प्लेटफार्म से कोई बात कहने से हिचक रहे थे। जाहिर था कि उनके उपर तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में सर्वसत्ता सम्पन्न ब्रिटिश हुकूमत की ताकत का भय भी कुछ हद तक काम कर रहा था। यही कारण था कि वे तिलक के खिलाफ खुलकर खड़े हो गए। गोखले और फिरोजशाह मेहता ने हर मुद्दे पर कांग्रेस में तिलक का विरोध प्रारंभ कर दिया। परिणामत: कांग्रेस अंदर ही अंदर बनारस अधिवेशन में नरमपंथी और गरमपंथी दो दलों में विभाजित हो गई।
इस परिस्थिति में विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष और लाला लाजपत राय ने कोलकाता कांग्रेस की कमान लोकमान्य तिलक के हाथों में देने का निश्चय किया। इसकी पहल अरविंद घोष की ओर से आई। वही अरविंद घोष जो आगे चलकर योगी अरविंद के रूप में विश्वविख्यात हुए।
ये समाचार जैसे ही नरमपंथी धड़े को मिला, वहां घबड़ाहट फैल गई। कांग्रेस अध्यक्ष पद पर तिलक का नामांकन रोकने के लिए उन्होंने दादा भाई नरौजी को आगे कर दिया। दादाभाई की छवि उस समय एक देश समर्पित नेता की थी, उम्र में भी वे अपने समकालीनों में बहुत वरिष्ठ थे। वे पहले भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश हाउस ऑफ कामन्स का सदस्य चुना गया था। लोकमान्य के खिलाफ जो दांव नरमपंथियों ने चला वह काम कर गया, लोकमान्य ने 81 वर्षीय दादाभाई के सम्मान में अपना नाम आगे बढ़ाने से इंकार कर दिया। कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन से ठीक 10 दिन पहले अपने अखबार केसरी में तिलक ने लिखा-दादाभाई के सामने यदि कोई मुद्दा है तो वह है स्वराज्य। मैं उनके पूर्व के जीवन को देखकर कह सकता हूं कि वह स्वराज्य के प्रश्न को कांग्रेस के माध्यम से देश का प्रश्न बना देंगे। मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि दादा भाई उन राजनीतिज्ञों में नहीं हैं जिनके लिए राजनीति खाली समय बिताने का एक आरामदायक तरीका है। उनका समूचा जीवन देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण है।
और जैसा कि कोलकाता कांग्रेस के बारे में तिलक ने कहा वैसा ही हुआ। पहली बार दादाभाई नरौजी के रूप में किसी कांग्रेस अध्यक्ष ने स्वराज की मांग उठाई। लेकिन नरमपंथी धड़े को ये पसंद नहीं आया लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। तिलक और उनके साथियों ने परिस्थिति का लाभ उठाकर स्वराज, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा के मसौदे को भी विशय समिति की बैठक में गर्मागर्म बहस के बाद पारित करवा लिया। नरमपंथी धड़े के अगुवा फिरोजशाह मेहता गरमपंथियों के बढ़ते जनाधार को देखकर अत्यंत उग्र हो उठे। उन्हें दादाभाई नरौजी से यह उम्मीद नहीं थी कि वे इस प्रकार से गरमपंथियों की बातों में आ जाएंगे। अधिवेशन की समाप्ति पर कोलकाता से लौटते वक्त वे तिलक से मिले और उन्हें चेतावनी दी-तिलक! तुमने ये स्वराज्य और स्वदेशी का प्रस्ताव यहां कलकत्ते में तो पारित करा लिया लेकिन ध्यान रखना अब आइंदा तुम ऐसे प्रस्ताव पारित करा पाना तो दूर इसे कांग्रेस के किसी अधिवेशन में रख भी नहीं पाओगे। तिलक ने उनका इशारा भांप लिया और मेहता को तुरंत जवाब भी दे दिया-आपकी चुनौती मुझे स्वीकार है, मैं शेर का उसकी मांद में ही ललकारना पसंद करूंगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि फिरोज शाह मेहता बंबई की राजनीति में शेर के रूप में विख्यात थे। कांग्रेस का अगला अधिवेशन बंबई प्रेसीडेंसी में ही आयोजित होना था। फिरोजशाह मेहता की टिप्प्णी और तिलक के जवाब ने तय कर दिया था कि कांग्रेस की भावी दिशा क्या होगी। कुछ ही दिनों में तय हो गया कि अगला अधिवेशन सूरत में होगा। चूंकि सूरत उन दिनों फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के प्रभावक्षेत्र का एक प्रमुख अड्डा था, दूसरे वहां की स्थानीय कांग्रेस ईकाई पूरी तरह से नरमपंथियों के हाथ में थी, इसलिए भी नरमपंथी धड़े ने कांग्रेस के 23वें अधिवेशन के लिए सूरत का चुनाव किया। दोनों पक्ष अपनी अपनी तैयारियों में जुट गए। तिलक ने तय कर लिया कि कांग्रेस को पूर्णरूपेण भारतीय हितों की संरक्षक, स्वराज्य, स्वदेशी समर्थक राजनीतिक दल बनाकर ही दम लेंगे तो नरमपंथी धड़े ने तिलक को ही निपटाने का षडयंत्र रचना प्रारंभ कर दिया।
सूरत में कांग्रेस स्वागत समिति बनाई गई और उसमें अधिकांशत: लोग वही रखे गए जो नरमपंथी धड़े के इशारे पर चलने वाले थे। फिरोजशाह मेहता के एक विश्वासपात्र सहयोगी अम्बालाल शकरलाल को जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह अधिवेशन में तिलक की उग्रता को शांत करने का प्रबंध पहले से करके रखे। तिलक परिस्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे इसलिए वे अधिवेशन की तारीख 26 दिसंबर, 2007 से एक सप्ताह पूर्व ही सूरत पहुंच गए। कांग्रेस स्वागत समिति ने तिलक के स्वागत समारोह के संदर्भ में पहले से चुप्पी साध रखी थी और उनके आगमन पर कोई विशेष प्रबंध भी नहीं किया गया लेकिन जैसे ही सूरत वासियों को तिलक के आने का समाचार मिला, सूरत रेलवे स्टेशन हजारों लोगों और फूल-मालाओं के अंबार से सज उठा। सूरत की जनता ने अपनी ओर से ही तिलक महाराज का ऐसा भव्य स्वागत किया कि नरमपंथी खेमे के हाथपांव फूल गए। रेलगाड़ी से उतरते ही तिलक को जनता ने रोडशो के साथ पूरे शहर में घुमाया। सूरत में आम जनता के बीच तिलक महाराज का ऐतिहासिक भाषण हआ। अपनी गरजती आवाज में लोकमान्य ने कहा- मैं यहां कांग्रेस को तोड़ने या उसमें फूट डालने के इरादे से नहीं आया हूं और ना मुझे नरमपंथियों से कोई लड़ाई झगड़ा करना है। कुछ लोग इस प्रकार की अफवाहें फैला रहे हैं कि तिलक कांग्रेस को तोड़ना चाहते हैं तो ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूं कि ऐसा करके मुझे और मेरे लक्ष्य स्वराज्य को कौन सा फायदा होने वाला है। मैं कांग्रेस को तोड़कर एक नया संगठन बना भी लूं तो इससे देश का कौन सा हित सधेगा? मेरा केवल इतना ही कहना है कि कोलकाता कांग्रेस में जो मत कांग्रेस ने व्यक्त किए वह उस पर अडिग रहे। अब हम कांग्रेस को किसी कीमत पर स्वराज्य प्राप्ति के घोषित लक्ष्य से पीछे हटने की अनुमति नहीं देंगे। मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ब्रिटिश राज के सफाए के बिना मैं चैन की सांस नहीं लूंगा, मेरा लक्ष्य कांग्रेस का खात्मा नहीं वरन् ब्रिटिश राज का खात्मा है। मैं सदा ही कांग्रेस की सेवा करता रहा हूं और आगे भी करता रहूंगा।
इधर तिलक सूरत की जनता से स्वराज्य प्राप्ति में सहयोग मांग रहे थे उधर गोपाल कृष्ण गोखले के हस्ताक्षर से एक पत्र सूरत अधिवेशन के आयोजन के एक दिन पूर्व सभी कांग्रेस सदस्यों में वितरित कर दिया गया। इस पत्र में गोखले ने कहा कि सर्वसम्मत निर्णय लिया गया है कि कांग्रेस औपनिवेशिक स्वराज्य चाहती है। इस निर्णय के विरूद्ध कोई भी प्रस्ताव कांग्रेस अधिवेशन में नहीं लाया जा सकता। जाहिर था कि नरमपंथियों ने कोलकाता कांग्रेस में उठे सारे मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालने का निश्चय कर लिया था। नरमपंथियों ने रासबिहारी घोष को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाना तय किया उधर गरमपंथियों ने लोकमान्य तिलक के नाम का प्रस्ताव करने की घोषणा कर दी।
26 दिसंबर को प्रात:काल जैसे ही कांग्रेस अधिवेशन प्रारंभ हुआ नरमपंथियों की ओर से दीवान बहादूर अंबालाल शकरलाल देसाई ने डॉ. रासबिहारी घोष का नाम अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रस्तावित किया। इसका समर्थन करने के लिए तुरंत सुरेंद्र नाथ बनर्जी खड़े हो गए। लेकिन वे कुछ बोल पाते इसके पहले ही पण्डाल में हल्ला मच गया। स्वागत समिति के अध्यक्ष त्रिभुवन दास मालवीय ने लोगों को शांत करने की अपील दर अपील की लेकिन हल्ला गुल्ला बढ़ता देख उन्होंने अधिवेशन को दिन भर के लिए स्थगित करने की घोशणा कर दी।
इसके बाद नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच बैठकों का सिलसिला चल पड़ा। तिलक ने इन बैठकों में गोखले के हस्ताक्षर से वितरित पत्र के बारे में पूछताछ की और कहा कि यदि ये पत्र वापस नहीं लिया जाता है तो बातचीत का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस कोलकाता अधिवेशन में देश के साथ किए गए वायदे से अब मुकर नहीं सकती। तिलक ने दूसरा मुद्दा उठाया कि डॉ. रासबिहारी घोष को अध्यक्ष पद के लिए किसकी सहमति से नामित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि वे हमें किसी कीमत पर स्वीकार नहीं होंगे। अच्छा होगा कि अध्यक्ष का चुनाव कुछ समय के लिए टाल दिया जाए और उसकी जगह एक संचालन समिति का गठन कर कांग्रेस के कार्यों को उचित रीति से संचालित किया जाए।
तिलक का प्रस्ताव फिरोजशाह मेहता के पास पहुंचा तो भड़क उठे। उन्होंने तिलक की किसी भी बात को सुनने तक से इंकार कर दिया। फिर क्या था, कांग्रेस का 23वां अधिवेशन संपूर्ण यूरोप में चर्चा का विषय बन गया। 27 दिसंबर की दोपहर में अधिवेशन का सत्र शुरू हुआ और सुरेंद्र नाथ बनर्जी अपना भाषण फिर से शुरू करने लगे। कुछ देर तक उनके बोलने के समय गंभीर शांति पूरे पण्डाल में पसरी पड़ी थी जिसमें उस वक्त पूरे देश से करीब 7000 प्रतिनिधि मौजूद थे। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने जैसे ही अपना भाषण समाप्त किया, मंच के नीचे की प्रथम पंक्ति में कुर्सी पर बैठे तिलक ने एक पर्ची अधिवेशन का संचालन कर रहे त्रिभुवन दास मालवीय के पास भिजवाई। लेकिन पर्ची पढ़ने के बावजूद मालवीय चुप्पी साधे बैठे रहे। उल्लेखनीय यह है कि इस समय तक अध्यक्ष के निर्वाचन की विधिवत् घोषणा होना बाकी था। तिलक ने देखा कि उनकी पर्ची पर बिना कोई ध्यान दिए मालवी ने नए अध्यक्ष के रूप में डॉ. रास बिहारी घोष के निर्वाचन की घोषणा कर दी और उन्हें अध्यक्ष के रूप में कार्रवाई संचालित करने का अधिकार सौंप दिया। तिलक से रूका न गया। वे बिना किसी बुलावे के ही मंच की ओर बढ़ने लगे। तिलक का मुखमण्डल अपनी इस अवमानना से अत्यंत गंभीर हो उठा। डॉ. रास बिहारी घोष ने तिलक को मंच की सीढ़ियों पर चढ़ते देखा तो उन्हें तत्काल अपनी सीट पर लौटन को कहा। लेकिन तब तक तिलक मंच पर चढ़ चुके थे। मंच पर चढ़ते ही उन्होंने बुलंद आवाज में कहा कि उन्हें यहां आए हुए हजारों प्रतिनिधियों को संबोधित करने से कोई रोक नहीं सकता। डॉ. घोष यदि देखा जाए तो आपका निर्वाचन पूरी तरह से अवैध है। आपके निर्वाचन के लिए कांग्रेस के इस पण्डाल में उपस्थित प्रतिनिधियों से कोई सहमति नहीं ली गई है। इस पर मालवी और स्वयं डॉ. घोष ने कहा कि नहीं! निर्वाचन पूरी तरह से वैध है। आप अपनी सीट पर वापस जाएं। लेकिन तिलक ने उलट जवाब दिया कि आप स्वराज्य के सवाल पर कांग्रेस में मतविभाजन करा लिजिए। और जब तक ये नहीं होता मैं यहीं मंच पर रहूंगा और कृपया मुझे कांग्रेस को संबोधित करने दीजिए। तिलक और डॉ. घोष के बीच अभी ये वाद विवाद चल ही रहा था कि अचानक मंच पर दोनों ओर से कुछ पहलवान टाइप हाथों में लाठियां लिए चढ़ आए और तिलक को धक्का देकर मंच से फेंकने की कोशिश करने लगे।
लेकिन तिलक इस पर भी रूके नहीं, उन्होंने अवांछित तत्वों को दूर रहने की चेतावनी दी और साफ कर दिया कि कांग्रेस को उनके सुझावों और प्रस्तावों पर विचार करना ही होगा। क्या थे वे प्रस्ताव? जरा गौर फरमाइए कि तिलक क्या कह रहे थे उस समय? तिलक सूरत अधिवेशन में जिन प्रस्तावों को लेकर कांग्रेस मंच पर चढ़े थे वे प्रस्ताव थे स्वराज, स्वदेशी, अंग्रेजों का बॉयकाट यानी अंग्रेजी वस्तुओं और अंग्रेजी सभ्यता का बहिष्कार तथा वैकल्पिक राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना का मसौदा। लेकिन अंग्रेजी चाटूकारों ने इन प्रस्तावों पर बहस और मत विभाजन की बजाए तिलक को ही निशाने पर ले लिया। पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन में कुर्सियां चलीं, लोग एक दूसरे पर लाठियां और जो जो कुछ भी हाथ में मिला, लेकर पिल पड़े। ये तो होना ही था क्योंकि अंग्रेजी चाटूकारिता करने वाले ये भूल गए थे कि तिलक को खींचकर मंच से हटाना उनके लिए कितना भारी पड़ सकता है।
मंच पर जैसे ही तिलक ने अपने प्रस्तावों के बारे में बोलना शुरू किया तो लठैतों ने उन्हें पुन: मंच से धक्का देकर उतारने की कोशिश की। इस पर बीचबचाव के लिए गोखले उठ खड़े हुए। उन्होंने दोनों हाथों से तिलक को अवांछित तत्वों से बचाने की कोशिश की। उधर धक्का-मुक्की के बीच तिलक मंच पर ही दोनों हाथ बांधे, अपने दोनों पैर जमाए त्यौरियां कस कर खड़े हो गए। लठैतों ने सोचा कि तिलक को शीघ्र मंच से उतार फेकेंगे लेकिन कुछ ही देर में उन्हें ध्यान में आ गया कि उनका पाला गरमदल से पड़ गया है। अपने नेता के साथ इस प्रकार का अमानवीय व्यवहार होता देख पण्डाल में उपस्थित गरम दल के नेता सकते में आ गए। तिलक समर्थक दर्जनों प्रतिनिधि तत्काल अपने नेता के बचाव में मंच पर कूद पड़े और सैंकड़ों अन्य प्रतिनिधियों ने फिरोजशाह मेहता और सुरेंद्र नाथ बनर्जी को घेर लिया। दोनों पक्षों में खुला घमासान छिड़ गया। दोनों ओर से लाठियां, कुर्सियां चलने लगीं। जिधर देखो उधर हाहाकार मच गया। हालात नियंत्रण से बाहर जाता देख पुलिस को पंडाल के अंदर घुसकर लाठीचार्ज करना पड़ गया। गरम दल के प्रतिनिधियों ने एक-एक कर नरम दल के नेताओं को निशाने पर ले लिया। पंडाल में नारे लगने लगे-तिलक नहीं तो अधिवेशन नहीं। 27 दिसंबर की तारीख कांग्रेस अधिवेशनों के इतिहास में काला अध्याय लिख गई। नरमपंथी और गरमपंथी अब पूरे तौर पर दो जुदा राहों पर चल पड़े।
आखिर तिलक ने बिना अनुमति मंच पर चढ़ने का दुस्साहस क्यों किया? इस पर टिप्पणी देते हुए टाइम्स ऑफ लंदन ने दिनांक 30 दिसंबर, 1907 को अपने संपादकीय में जो कुछ लिखा उससे पता चलता है कि भारत के राजनीतिक नेता लोकमान्य तिलक और उनके साथियों के साथ किस प्रकार का बर्ताव कर रहे थे। पता इस बात का भी चलता है कि तिलक किस प्रकार से दृढ़प्रतिज्ञ होकर अपने मत पर अड़े हुए थे। अखबार लिखता है- ….एक विद्वान मराठा ब्राह्मण जो इसके बहुत पहले भी भारत में असंतोष को हवा देने के जुर्म में जेल जा चुका है। तिलक भयभीत है, लगभग भारत के सभी राजनीतिक समूहों का उस पर अविश्वास है फिर भी वह अपने को स्थापित करने, अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने और भारत सरकार के विरूद्ध असंतोष को हवा देने की युक्ति बनाने में जुटा हुआ है। राजनीतिक नजरिये से उसके पास कोई सिध्दांत नहीं दिखता सिवाय विध्वंस के। जब वह कांग्रेस पर नियंत्रण कर सकने में कामयाब ना हो सका तो उसने कांग्रेस को ही नष्ट करने का निश्चय कर लिया। लंबे समय से वह इसी फिराक में था और सूरत अधिवेशन ने उसे ये मौका दे ही दिया।
सुप्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक वेलेंटाइन चिरोल ने भी सूरत में हुए उपद्रव के लिए तिलक को जिम्मेदार ठहराया। वेलेंटाइन चिरोल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडियन अनरेस्ट में लिखते हैं- तिलक और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस अधिवेशन को उलट-पलट दिया। जिस प्रकार का फसाद और संभ्रम निर्माण किया वह अत्यंत निंदाजनक था।
अंग्रेजों ने जो लिखा और बोला, उसी से जाहिर होता कि उनका रवैया तिलक के प्रति कितना तिरस्कारपूर्ण था। तिलक के आगमन के पूर्व कांग्रेस देश को किस ओर ले जाने की वकालत कर रही थी इसका पता भी अंग्रेजी चिट्ठे से चल जाता है। तिलक ने बाद में जारी किए गए अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया कि बार बार आग्रह के बावजूद कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्तुत प्रस्तावों को सूरत कांग्रेस अधिवेशन में चर्चा के लिए आखिर क्यों प्रस्तुत नहीं किया गया? पूर्ण स्वराज, स्वदेशी, अंग्रेजों का बहिष्कार और शिक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय विकल्प का आह्वान इनमें से कौन सी बात कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को पसंद नहीं आ रही है? तिलक ने कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले की मंडली से पूछा कि आप लोग किस मुंह से ऐसी आजादी मांग रहे हैं जिसमें हमें हर कदम पर अंग्रेजों के सामने हाथ फैलाकर खड़ा होना पड़ेगा? उन्होंने कहा कि जिस प्रकार से कोलकाता नगरी में बहुत सी स्वशासी कालोनियां बन गई हैं जो अपनी रोजमर्रा की व्यवस्थाएं खुद संभालती है तो भारत को भी अंग्रेजी राज के अंतर्गत ऐसी ही कालोनी के रूप में देखा जाना आपको मंजूर हो सकता है किंतु मुझे ये कदापि मंजूर नहीं है। अंग्रेजों को हर हाल में पूरे तौर पर देश से जाना होगा।
तिलक के वज्र संकल्प और कठोर व्यवहार का परिणाम था कि समूची कांग्रेस एक तरफ डॉ. रास बिहारी घोष, गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोजशाह मेहता तो दूसरी तरफ लाला लाजपत राय, अरविंद घोश, विपिन चंद्र पाल और लोकमान्य तिलक के समूह वाले नेतृत्व में दो धड़ों में बंट गई। कांग्रेस की राजनीति में जो धारा तिलक ने संघर्ष के द्वारा निर्मित की वही धारा आगे चलकर आजादी के महान आंदोलन में परिवर्तित हुई, तिलक के द्वारा जो नींव डाली गई उसी पर महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन का सारा भवन खड़ा करने का प्रयास किया। चाहते तो तिलक भी उस समय पार्टी अनुशासन मानकर चुप बैठ सकते थे, चाहते तो अंदर ही अंदर गोपाल कृष्ण गोखले से तालमेल कर वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन सकते थे लेकिन इस प्रकार की धूर्त और लंपट राजनीति का हिस्सा बनना तिलक ने कभी गंवारा नहीं किया। जैसे को तैसा और अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर उन्होंने कांग्रेस सहित समूचे देश को स्वराज के प्रश्न पर झकझोर कर रख दिया। सचमुच जो नींव उन्होंने डाली आगे चलकर उसी पर भारत की आजादी के आंदोलन का सारा ताना बाना रचा व बुना गया।
1907 का कांग्रेस अधिवेशन बीत गया लेकिन तिलक के हृदय में धधक रही क्रांतिज्वाला ने नया रूप धारण कर लिया। तिलक ने अपने अखबार केसरी और मराठा में ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ तर्कपूर्ण भाषा में जमकर लिखना शुरू किया। इसका परिणाम ये निकला कि एक ओर उनके अखबार की मांग समूचे देश में बढ़ गई और दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देने का उपक्रम सोचने लगी। शीघ्र ही नियति ने सरकार को ये मौका दे दिया।
30 अप्रैल, 1908 के दिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में जिला न्यायाधीश किंग्सफोर्ड को लक्ष्य कर खुदीराम बोस ने एक बम फेंका। संयोग से इस बम विस्फोट में किंग्सफोर्ड तो बच गया लेकिन एक अंग्रेज महिला श्रीमती केनेडी और उनकी बेटी मारी गर्इं। फिर क्या था? अंग्रेज सरकार ने लोकमान्य तिलक को इस हमले का प्रेरक मानकर उन्हें पुणे स्थित उनके घर से गिरफ्तार कर लिया।
जारी…..

Tuesday, July 28, 2009

लोकमान्य की याद में

1 अगस्त, 2009 को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को गुजरे लगभग 90 साल पूरे हो जाएंगे। हम अब ये दावा नहीं कर सकते कि देश में कोई ऐसा होगा जिसने लोकमान्य को अपनी आंखों से कभी देखा होगा, हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोकमान्य की आंखों के सपने अभी भी कुछ भारतीयों की आंखों में तिरते होंगे। संभवत: मुट्ठीभर ऐसे भी अवश्‍य होंगे जो आज भी सही मायनों में ‘स्वराज’ आने का इंतजार कर रहे हैं।
बहुतों को अजीब लगेगा कि ये स्वराज की बात अब क्यों? क्या पराधीनता 1947 में खत्म नहीं हो गई? आखिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जीवित होते तो आज क्या कर रहे होते? क्या आज भी वे स्वराज, स्वराज का मंत्रजाप कर रहे होते? आज कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी सहित देश के तमाम राजनीतिक दलों के अंदर उपजी विचारहीनता को देखकर इस प्रश्‍न का उत्तर खोजना ज्यादा मुश्किल नहीं है। मुझे लगता है कि तिलक आज जिंदा होते तो शायद पहले से भी कहीं अधिक वेग से हिंदुस्तान में स्वराज की स्थापना के संघर्ष का बिगुल बजा रहे होते। आज के भारत का कड़वा सच यही है कि भारतीय राजनीतिक पटल पर एक भयानक तमस और कुहासा चारों ओर छाया दिख रहा है। तिलक का कालखण्ड बीतने को शताब्दी आ गई लेकिन उस समय जो गाढ़ा अंधकार भारत के राजनीतिक क्षितिज पर छाया हुआ था, जिससे निजात दिलाने के लिए तिलक भारतभूमि पर पैदा हुए, वह तो आज कहीं ज्यादा विकराल हो उठा है। लोकप्रियता को ही मानक मान लें तो आज देश में किस राजनीतिक दल का कौन नेता दावा कर सकता है कि उसकी एक दहाड़ पर हिंदुस्तान ठप्प हो सकता है? शायद ही कोई राजनेता ऐसा हो जिसके पास अखिल भारतीय दृष्टि हो, जिसके लिए भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत की जनता में बेइंतहा प्यार हो, जो अपने जीवन में किसी विचारधारा की लीक पर चलता हो, जिसका कोई सिद्धांत हो और वह सिद्धांत उसके आचरण से स्पष्‍ट झलकता भी हो।
आज हिंदुस्तान की 77 प्रतिशत आबादी जब 10 से 20 रूपए प्रतिदिन में गुजर-बसर कर रही है, सारा देश सांस्कृतिक संक्रमण, बेरोजगारी, आंतरिक आतंकवाद और वैदेशिक आतंकवाद, घोर गरीबी, गांवों की खस्ताहाल हालत, बजबजाते शहरों और कस्बों से लहूलुहान हो उठा है, विदेशी कारपोरेट कल्चर हिंदुस्तान और उसकी नियति के निर्धारकों राजनीतिक नेताओं और अफसरों को पूरी तरह से जब अपनी गिरफ्त में ले चुका है तब हमें तिलक की याद आती है। तिलक की ही याद क्यों? क्योंकि यही वह अकेला शख्स था जिसने 100 साल पहले भारत की राजनीति को अपने मन और बुद्धि से सोचना सिखाया। हां ये तिलक ही थे जिन्होंने पहले पहल ये करके दिखाया था। उनकी सिंहगर्जना से ब्रिटिश हुकूमत हिलती थी और कांग्रेस का नरमपंथी धड़ा भी। आखिर यूं ही उन्हें तमाम ब्रिटिश दस्तावेजों ने ‘फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट’ अर्थात भारत में अशांति का जन्मदाता होने के खिताब से नवाजा नहीं था। ये उनकी लोकप्रियता का ही भय था कि ब्रिटिश हुकूमत को उन्हें गुपचुप कालेपानी जैसी कैद के लिए बर्मा स्थित माण्डले जेल रवाना करने पर मजबूर होना पड़ा।
तिलक के समय हिंदुस्तान की राजनीतिक परिस्थिति क्या थी, उस पर भी एक निगाह दौड़ाना वाजिब होगा। कैसे नेता थे हमारे उस समय! ऐसे जो सवेरे कहीं किसी क्लब में गोष्‍ठी करके ब्रिटिश हुकूमत को शासन संबंधी सुझाव और सलाह देने से अधिक कुछ करने में विश्‍वास नहीं रखते थे और शाम को ब्रिटिश हुक्मरानों के खैरमकदम और जीहुजूरी में जो पलक पांवड़े बिछाकर खड़े रहने में ही अपना जीवन धन्य मानते थे कि कहीं साहब बहादूर उन्हें भी कहीं पर रायबहादुरी या सर का कोई खिताब अदा फरमाएंगे। कांग्रेस को उन्होंने क्लबनुमा थिएटर मंडली बना रखा था जिसकी हालत आज देश में चल रहे तमाम चैरिटी क्लबों के समान थी जो सरकार और समाज के साथ अपना पीआर जमाए रखने के लिए गाहे बगाहे मिलते-जुलते और अधिवेशन आदि करते रहते थे। हमारी कांग्रेस उस समय औपनिवेशिक स्वराज को ही अपनी राजनीति का अखण्ड लक्ष्य मानकर चलती थी, और कर भी क्या सकती थी क्योंकि उस कालखण्ड की विकट परिस्थिति में कांग्रेस के सामने ब्रिटिश हुक्मरानों के सामने गिड़गिड़ाने के सिवाय अपना अस्तित्व बचाए रखने का कोई और उपाय भी शेष नहीं दिखता था। एक राजनीतिक दल होने के मायने क्या हैं, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस होने का मतलब क्या है, इसके बारे में भी लोकमान्य तिलक ने ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पहले पहल सीख दी। लोकमान्य जनता के नेता थे, किसी को ‘मैनेज’ करके तीन तिकड़म से या किसी की कृपा से उन्होंने लोकमान्य की पदवी हासिल नहीं की थी। लोकमान्य के समय राजनीतिक क्षेत्र में काम कर रहे अधिकांश राजनेता अंग्रेज सरकार के कृपापात्र बने रहने के लिए लालायित रहते थे और समूची राष्‍ट्रीय राजनीति ही अंग्रेजपरस्ती का शिकार बन चुकी थी। लोकमान्य ने अपने पराक्रम से अंग्रेजपरस्त राजनीति को भारतपरस्त बनाने का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया।
1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर का दीपक करोड़ों हिंदुस्तानियों में आजादी की आस जगाकर बुझ चला था। जो दिया मंगल पाण्डे प्रभृति वीरों ने अपना जीवन दीप जलाकर रोशन किया था उस दीपक को कांग्रेस विलायती घी से जला कर रखने की कोशिश कर रही थी। विदेशी पराधीनता का विकट घना अंधेरा जब हमारे लाखों ग्रामों से होता हुआ दूर लाहौर, कोलकाता, मुंबई, मद्रास और दिल्ली तक पसरा पड़ा था, जब कोई राह सुझाने वाला नहीं था, अंग्रेजी राज मानो ईश्‍वर ने सदा के लिए हमारी नियति में लिख-पढ़ दिया था तब लोकमान्य का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में हुआ। उस महनीय व्यक्तित्व की याद आज के संदर्भ में तो और भी प्रासंगिक हो उठती है क्योंकि उसी ने उन्नीसवीं सदी के उगते सूर्य को साक्षी मानकर पहले पहल कहा था कि अंग्रेजों तुम हमारे भाग्यविधाता नहीं हो, हमारी आजादी हमें सौंपकर तुम हम पर कोई अहसान नहीं करोगे, ये हमारा स्वराज है, सदियों से ये स्वराज हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का साधन रहा है, तुम हमारी आत्मा पर राज नहीं कर सकते, तुम्हें हिंदुस्तान से जाना होगा, जाना ही होगा क्योंकि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।
स्वराज!!! छोटा सा शब्द, किंतु मानव ही क्या मानवेत्तर अन्य योनियों, पशु-पक्षियों के जीवन के लिए भी सर्वाधिक गहन और महत्वपूर्ण इस शब्द के अर्थ को देश को समझाने के लिए तिलक महात्मा ने कैसा भीशण संघर्ष और संताप अपने जीवन में झेला इसे पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ब्रिटिश हुकूमत और भारत के कुछ कथित राजनीतिक रहनुमाओं की षडयंत्री राजनीति ने सन् 1908 में उन्हें 6 साल के लिए बर्मा स्थित माण्डले जेल पहुंचा दिया, जेल में रहने के दौरान ही उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को खो दिया। इसके पूर्व अपने नरमपंथी साथियों के खिलाफ दिसंबर, 1907 के कांग्रेस के सूरत महाधिवेशन में ताल ठोंककर वे खड़े हो गए। कहां कहां उन्होंने संघर्ष नहीं किया। ब्रिटिश परीधीनता की चक्की में पिस रहे स्वदेशी शिल्पकारों, मजदूरों, किसानों, मजलूमों की वे सशक्त आवाज बने। उनकी लोकप्रियता कैसी थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्हें केसरी में ब्रिटिश शासन विरोधी संपादकीय लिखने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हिंसक आतंकवाद और बगावत भड़काने के आरोप में सन् 1908 में कैद की सजा सुनाई गई, समूची मुंबई उस दिन ठप्प पड़ गई। और मुंबई ही क्यों समूचे देश में अंग्रेजी शासन ने अलर्ट की घोषणा कर दी। बैरकों में सिपाहियों को किसी संभावित विद्रोह को कुचलने के लिए तैयार रहने को सावधान कर दिया गया।
लोकमान्य को याद करने का मतलब आज क्या हो सकता है? इसे जानने के लिए हमें लोकमान्य के जीवन में झांकना होगा। वह जीवन जिसने आत्माभिमान शून्य, दिमागी तौर पर अलसाये, मुरझाए और गुलामी के बोझ से कांपते, कातर हिंदुस्तान को सही मायनो में सोचना और बोलना सिखाया। तिलक की याद करना सिर्फ अतीत के बीते पन्नों को पलटना मात्र नहीं है, उनकी याद आज की तरंगित, उमंगों से भरी युवा पीढ़ी को, संसद में कलफदार धोती कुर्ता, पाजामा और पैंट-शर्ट पहने नेताओं को अपना जीवनोद्देश्‍य फिर से तलाशने की राह पर ले जाने का प्रयास भी है। ये उस विरासत को संभालने और संजोए रखने का प्रयत्न है जिसकी रक्षा के लिए महात्मा तिलक ने अपना जीवन अर्पित किया।
पर लोकमान्य को याद करने का मतलब आज क्या हो सकता है? इसे जानने के लिए हमें लोकमान्य के जीवन में झांकना होगा। वह जीवन जिसने आत्माभिमान शून्य, दिमागी तौर पर अलसाये, मुरझाए और गुलामी के बोझ से कांपते, कातर हिंदुस्तान को सही मायनो में सोचना और बोलना सिखाया। तिलक की याद करना सिर्फ अतीत के बीते पन्नों को पलटना मात्र नहीं है, उनकी याद आज की तरंगित, उमंगों से भरी युवा पीढ़ी को, संसद में कलफदार धोती कुर्ता, पाजामा और पैंट-शर्ट पहने नेताओं को अपना जीवनोद्देश्‍य फिर से तलाशने की राह पर ले जाने का प्रयास भी है। ये उस विरासत को संभालने और संजोए रखने का प्रयत्न है जिसकी रक्षा के लिए महात्मा तिलक ने अपना जीवन अर्पित किया।
राजनीतिक दलों में पद को लेकर आज जो मारामारी हम देखते हैं ये मारामारी तिलक के समय विचारों के स्तर पर प्रबल थी। कांग्रेस पर उन तत्वों ने कब्जा जमा लिया था जो हिंदुस्तान को अंग्रेजी राज के खिलाफ किसी निर्णायक जंग के खिलाफ खड़ा करने में बुद्धिमानी नहीं समझते थे। ऐसे तत्व 1857 की क्रांति की असफलता के बाद मुकम्मल आजादी यानी पूर्ण स्वराज की मांग को उतना ही गैर जरूरी मानते थे जितना जरूरी वे भारत के कल्याण के लिए अंग्रेजों की उपस्थिति को मानते थे। इसी सिद्धांत में से औपनिवेशिक स्वराज का सिद्धांत जन्मा जिसके अनुसार ब्रिटिश हुकूमत तो हमारे हित में ही है, वह बनी रहे, देश का विकास करे, डाक-तार-स्कूल-विश्‍वविद्यालय, सड़कें, रेल, प्रशासन और सेना, साफ-सफाई की व्यवस्था करे, नगरीकरण करती रहे और कुछ टुकड़े यह हुकूमत हम सभ्य नागरिकों की ओर भी कृपा कर फेंकती रहे तो क्या हर्ज है। कुछ साल पहले हमारे देश के एक वरिष्‍ठ केंद्रीय मंत्री ने अंग्रेजों द्वारा सौंपी गई इस महान विरासत के लिए लंदन में कैसा धन्यवाद ज्ञापित किया था, उसे यहां दुहराने की जरूरत नहीं है, हां ये सच जरूर स्वीकार कर लेने की जरूरत है कि तिलक का कालखण्ड बीतने के 90 साल बाद भी वह कौम हिंदुस्तान में खत्म नहीं हुई है जिसके खिलाफ तिलक जीवन भर संघर्ष करते रहे किंवा वह कौम तो और मजबूती और कहीं ज्यादा प्रभावी ढंग से आज हम हिंदुस्तानियों को उपदेश करती फिर रही है। ये वो कौम है जो ये कहने में कोई संकोच नहीं करती कि हे हमारे विधाता अंग्रेज भाइयों! तुमने 17वीं सदी में हिंदुस्तान आकर हमारे उपर कितनी कृपा की, ये तुम्हारे 200 साल के कठोर शासन का ही प्रतिफल है कि हम हिंदुस्तानी कुछ पढ़ लिख गए हैं अन्यथा अगर तुम ना आए होतो तो जरा सोचो हमारा क्या हाल होता? तब ना ये संसद होती और ना ये बिजली बत्ती, दुनिया जरूर 21वीं सदी में पहुंच गई हम तो वैसे ही आदम के जमाने में रह गए होते। तुमने यहां आकर जो कृपा की उसका क्या अहसान हम चुकाएं! हम तो बस यही कह सकते हैं कि तुम एक बार फिर आओ, पिछली बार 200 साल के लिए आए पर इस बार आओ तो ऐसे आओ कि जाने की जरूरत ही न पड़े। क्योंकि हम हिंदुस्तानी तभी शांति से रह सकते हैं जब तुम हमारा मार्गदर्शन करने के लिए हमारे सिर पर डण्डा लिए बैठे रहो। इस बार आओगे तो ज्यादा मुश्किल ना आएगी क्योंकि तुम्हारी मदद के लिए हिंदुस्तान भर में हमने अंग्रेजी पढ़ी लिखी, तुम्हारी सभ्यता में पली बढ़ी और तुम्हारे जैसी आधुनिक सोच रखने वाली पूरी की पूरी जमात खड़ी कर रखी है। और अगर ना आना हो तो कोई बात नहीं, हमारा मार्गदर्शन करते रहो, आपकी अनुपस्थिति में आपकी खड़ाउं रखकर हम आपके राज को उसके सच्चे स्वरूप में हिंदुस्तान में बनाए रखेंगे।
ये उस सोच का ही नमूना है जो 19वीं सदी के प्रारंभ में समग्र हिंदुस्तान के कथित प्रगतिशील राजनीतिक नेतृत्व में देखी जा सकती थी और आज जब हम इस कथित 21वीं सदी में आ गए हैं तो यह औपनिवेशिक सोच और ज्यादा प्रभावी ढंग से नए रूप धरकर हमारे सामने खड़ी है। तिलक कदम कदम पर कांग्रेस में इसी गुलाम मानसिकता का सामना कर रहे थे। उन्होंने कांग्रेस की नरम दलीय कोटरी के मकड़जाल के विरूद्ध समान विचार वाले राष्‍ट्रीय नेताओं से संपर्क किया और फिर क्या था देश में अंग्रेजी राज के खिलाफ बगावत का बिगुल बज उठा।
जारी……..

‘सच का सामना’ या ‘भटकाव’ का


क्या ये सचमुच ‘सच का सामना’ है? सच मानें तो ये तो उस भटकाव का सामना है जिसके कारण कितने ही लोग अपनी खूबसूरत पारिवारिक जिंदगी तबाह कर लेते हैं, ये भटकाव भारतीय परिवार संस्था के लिए बहुत ही त्रासदायक है। हमारा दुर्भाग्य है कि महज चंद रूपयों की खातिर हम इस भटकाव को सहज ही अगली पीढ़ी को भेंट कर रहे हैं। ये टिप्पणी स्टार मनोरंजन चैनल द्वारा प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना के संदर्भ में उपजे हालिया विवाद को उम्दा तरीके से परिभाषित करती है। हमने वाराणसी के एक विश्‍वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. रामप्रकाश से पूछा था कि यदि मौका मिला तो इस सच का सामना वे कैसे करेंगे। इसके जवाब में उन्होंने अपने उत्तर को और धारदार करते हुए हम से ही पूछ लिया कि ‘ये सच अमेरिका का है, यूरोपीय संस्कृति का है, कुछ उंचे अय्याश किस्म के अमीरजादों का है, या इसका बाकी हिंदुस्तान से कुछ वास्ता है?’ बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा – ‘लेकिन बुद्धू बक्से की चली तो वो इसे हिंदुस्तान के शहर-शहर गांव-गांव की रगों में यूं दौड़ा देगा कि अपनी देसी पहचान और परिवार की खुशियां ही बेमानी हो जाएंगी। इस बुद्धू बक्से ने और इस पर प्रसारित हो रहे चैनलों ने पिछले दो दशकों में सिवाय पश्चिमीकरण और अपसंस्कृति के प्रसारण के देश को और दिया क्या है।’
जो भी हो सच का सामना की अनुगूंज गत बुधवार को जहां संसद में सुनाई दी वहीं गुरूवार को दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इस ‘रिएलिटी शो’ के खिलाफ सुनवाई के लिए याचिका स्वीकार कर ली। राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद कमाल अख्तर ने इस टी.वी. शो के प्रसारण पर सवाल उठाते हुए कहा कि अश्‍लील और अमर्यादित सवाल पूछने में इस कार्यक्रम ने सारी हदें तोड़ दी हैं। शून्यकाल में उन्होंने राज्यसभा के सभापति के माध्यम से केंद्र सरकार से जानना चाहा कि क्या इस कार्यक्रम का प्रसारण संविधान और समाज विरोधी नहीं है। उन्होंने पूछा कि कार्यक्रम का एंकर खुलेआम पारिवारिक शालीनता की धज्जियां उड़ा रहा है। उन्होंने एक उदाहरण का जिक्र करते हुए कहा कि एक कार्यक्रम के दौरान महिला से उसके पति के सामने ही पूछा गया कि क्या उसका कोई अवैध संबंध रहा है अथवा नहीं? महिला के द्वारा उत्तर नकारात्मक दिए जाने पर उसके पति के सामने ही एंकर कहता है कि आप झूठ बोल रही हैं, आपके पॉलीग्राफी टेस्ट के मुताबिक आपका कहना गलत है। कमाल अख्तर ने पूछा कि इस प्रकार की प्रस्तुति से उस महिला और उसके पति पर क्या गुजरी होगी, इसे समझने की जरूरत है। उन्होंने टी.वी. कलाकार युसुफ हुसैन से उनके पत्नी और बेटी के सामने पूछे गए सवाल का भी जिक्र किया। इस सवाल में पूछा गया था कि क्या उन्होंने कभी अपनी बेटी की उम्र की लड़की से शारीरिक संबंध बनाए हैं? ऐसे सवालों की बुनावट पर गंभीर आपत्ति जताते हुए उन्होंने कहा कि ये कार्यक्रम भारत की संस्कृति के विरूद्ध है, व्यक्ति की निजी गरिमा और उसकी मर्यादा के खिलाफ है, और इस पर तत्काल रोक लगनी चाहिए।
राज्यसभा में इस मुद्दे पर मचे भारी हंगामे का असर बुधवार की रात ही दिखाई पड़ गया। सूचना और प्रसारण मंत्रालय कार्यक्रम के प्रसारण के खिलाफ स्टार न्यूज को नोटिस जारी कर दी। मंत्रालय ने चैनल को 27 जुलाई तक अपना जवाब दाखिल करने का समय देते हुए पूछा कि ये कार्यक्रम क्या स्वस्थ एवं शालीन मनोरंजन के प्रसारण संबंधी अनुच्छेद 6/1 का उल्लंघन नहीं है? क्यों न इस कार्यक्रम का प्रसारण रोक दिया जाए?
दूसरी ओर गुरूवार को दिल्ली उच्च न्यायालय में दिल्ली के एक जागरूक नागरिक दीपक मैनी की ओर से कार्यक्रम के प्रसारण के विरूद्ध याचिका दाखिल की गई। न्यायालय ने इस विचारार्थ स्वीकार कर स्टार न्यूज चैनल और कार्यक्रम के निर्माता सिध्दार्थ बसु को तलब कर लिया है। मैनी ने न्यायालय के सम्मुख याचिका में कार्यक्रम के प्रसारण को भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करार देने के साथ ही इसे संस्कृति और संविधान विरोधी भी ठहराया। उन्होंने आरोप लगाया कि ये कार्यक्रम भारतीय संविधान के विरूद्ध तो है ही, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294 के अन्तर्गत ये एक दण्डनीय अपराध भी है। इसे तत्काल रोके जाने के साथ ही सरकार को ये निर्देश भी दिए जाने चाहिए कि वह एक उचित समीक्षा मंच का गठन करे ताकि ऐसे कार्यक्रमों की प्रसारण पूर्व समीक्षा सुनिश्चित हो सके।
वस्तुत: सच का सामना अमेरिकी और यूरोपीय टी.वी कार्यक्रम की नकल पर आधारित प्रस्तुति है। अमेरिका में प्रसारित होने वाले एक टी.वी. कार्यक्रम मोमेंट ऑफ ट्रूथ का ही ये भारतीय संस्करण है। मोमेंट ऑफ ट्रूथ कार्यक्रम का निर्माण मीडिया किंग रूपर्ट मर्डोक की बेटी एलिजाबेथ मर्डोक ने पहले पहल किया था। पश्चिम के अनेक देशों में इस कार्यक्रम का प्रसारण प्रतिबंधित किया गया। खुद अमेरिका में भी इस कार्यक्रम की जबर्दस्त आलोचना हुई क्योंकि कार्यक्रम में शामिल अनेक प्रतिभागियों के घर इस कार्यक्रम के कारण बिखर गए। कई का तो परस्पर तलाक हो गया। इस कार्यक्रम में भी उपस्थित प्रतिभागी से उसके पारिवारिक सदस्यों और मित्रों की उपस्थिति में 21 सवाल पूछे जाते हैं और इस सच का सामना में भी इसी भांति 21 सवाल पूछे जाते हैं। इन सवालों के उत्तर को पॉलीग्राफी परीक्षण की कसौटी पर कसा जाता है। उत्तर झूठा पाए जाने पर प्रतिभागी आगे खेलने का अवसर खो देता है। इसके पूर्व स्टार प्लस चैनल पश्चिमी मीडिया की कल्पना से उपजे और वहां प्रसारित हो चुके कार्यक्रम की नकल कर कौन बनेगा करोड़पति नामक कार्यक्रम का भी प्रसारण कर चुका है।
हालिया दिनों में प्रसारित टी.वी. कार्यक्रमों पर टिप्पणी देते हुए फिल्म और टी.वी प्रॉडक्शन से जुड़े उदीयमान निर्देशक अंकित भटनागर कहते हैं- हमारे यहां टी.वी. इंडस्ट्री में कुछ मौलिक सोचने और उसे कर दिखाने वालों का अकाल पड़ता जा रहा है। सारे प्रॉडक्शन हाउस सिर्फ और सिर्फ ऐसे धारावाहिकों और कार्यक्रमों के निर्माण में लगे हैं जो जल्द से जल्द सनसनी बटोर कर भारी संख्या में दर्शकों को अपनी ओर खींचने में सफल हो सकें। इस स्थिति को बदल पाना असंभव सा लग रहा है। वे महाभारत, रामायण और चाणक्य आदि धारावाहिकों के प्रसारणों की बाबत कहते हैं- एक तो पीढ़ी बदली है, दूसरे उनकी अभिरूचियां बदल गई हैं। दुनिया सूचना के लिहाज से सिकुड़ कर गांव में बदल गई है। माइकल जैक्सन के लिए रोने वाले भारत में भी पैदा हो गए हैं। जाहिर सी बात है कि शहरी मध्यम वर्ग रईस अमीरी शानो-शौकत वाली जीवनशैली पाने के लिए मचल रहा है। फिल्मों ने इसमें तड़का लगाया है बाकी कमी ये धारावाहिक पूरी कर रहे हैं। हम लोग नकलची बन गए हैं। सस्ते में करोड़ों कमाने की थीम देने वाले भी मीडिया इंडस्ट्री में पैदा हो गए हैं। ऐसे में कोई निर्माता महंगे धार्मिक या संस्कारप्रद कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण को ज्यादा तरजीह देता नहीं दिखता।
अकादमिक जगत से जुड़े और प्रबंध शास्त्र के व्याख्याता डॉ. अमित सिंह का मानना है कि इसके लिए हमारी शिक्षा प्रणाली कम दोषी नहीं है। उनके अनुसार जिस मानसिकता को हमने पिछले तीस सालों में पनपाया और पाला-पोषा है वह मानसिकता जीवन के हर क्षेत्र में पश्चिमीकरण पर चलने की आदी हो चुकी है, भारत का मीडिया अब कोई अपवाद नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में एक वरिष्‍ठ अधिवक्ता के मार्गदर्शन में प्रैक्टिस शुरू करने वाले पीयूष जैन कहते हैं- टी.वी कार्यक्रम निर्माताओं को हमारे मूल्यों से कुछ लेना देना नहीं है। पहले भी हम कहानी कहानी घर-घर की में इसी प्रकार का अश्‍लील और अमर्यादित प्रसारण देख चुके हैं। उस समय ही आवाज उठानी चाहिए थी, कुछ लोगों ने ध्यान आकृष्‍ट करने की कोशिश की लेकिन वो तो नक्कारखाने में बस तूती बन कर रह गए। खैर, इस बार मामला न्यायालय के सामने आया है, हमें विश्‍वास है कि न्यायालय इस पर सख्त रूख अपनाएगा।
लेकिन सवाल समाज का है। ‘समाज का बिगाड़ तो हो गया ना, इस टी.वी. ने कर ली ना पूरी अपने मन की।’ दिल्ली के प्रीत विहार इलाके की रहने वाली अध्यापिका सुश्री प्रतिमा का यही कहना है। प्रतिमा के अनुसार, स्कूलों में बच्चों के व्यवहार में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहे हैं। ऐसे में टी.वी. पर इस प्रकार के कार्यक्रम और उसी भांति समलैंगिक संबंधों को लेकर हो रही खुली चर्चा ने बच्चों का खेलता-खाता माहौल जुगुप्साजनक बना दिया है। आखिर इस पर कहीं तो रोक लगानी होगी। क्या है इलाज तो उत्तर देते हैं प्रोफेसर राम प्रकाश। कहते हैं जिसने दर्द दी दवा भी वही देगा। ये टी.वी. का रिमोट अपने हाथ में लेना पड़ेगा समझदार भारतीयों को। सरकार चेते और इस पर नियंत्रण लगाए। ये हिंदुस्तान है कोई यूरोप या अमेरिका नहीं। हमें तो चाहिए था कि हम अमेरिका और यूरोप को अपने मूल्यों और सदाचार पूर्ण जीवन से प्रभावित कर वहां का उन्मुक्त माहौल बदल देते लेकिन हो गया उल्टा, हम ही उनके चपेटे में आ गए हैं। और इस कार्य में इस टी.वी., वीडियो और इंटरनेट ने बेड़ा गर्क ही किया है। इस पर नियंत्रण औ इसके माध्यम से स्वस्थ मनोरंजन को प्रसारित करने की दिषा में हमें प्रयास तेज करने होंगे।
सवालों के घेरे में सवाल
• स्मिता मथाई नामक महिला से उसके पति और अन्य पारिवारिक सदस्यों के सामने कार्यक्रम के एंकर राजीव खण्डेलवाल ने सवाल पूछा-क्या आप किसी और मर्द के साथ सोना पसंद करेंगी यदि आपके पति को पता न चले तो। उत्तर में स्मिता ने नहीं जवाब दिया तो एंकर ने पॉलीग्राफिक टेस्ट के हवाले से कहा कि नहीं, आप झूठ बोल रही हैं।
• एक अन्य सवाल जिसमें महिला से पूछा गया कि क्या आपने कभी अपने पति को जान से मारने की सोची थी?
• युसुफ हुसैन से पूछा गया कि उन्होंने अपनी बेटी की उम्र की लड़की से शारीरिक संबंध बनाए हैं या नहीं?
• टी.वी.कलाकार उर्वशी ढोलकिया से उनके दो किशोरवय बच्चों के सामने पूछा गया कि क्या नाबालिग उम्र में गर्भवती होने के कारण आपको स्कूल से निकाला गया था?
• प्रख्यात क्रिकेटर विनोद कांबली से पूछे गए एक सवाल ने तेंदुलकर और कांबली को बचपन की दोस्ती को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। हालांकि कांबली सवाल के बाबत उत्तर हमेशा नकारात्मक ही रहा लेकिन एंकर ने पॉलीग्राफिक टेस्ट के बहाने उन्हें ही झूठा साबित कर दिया।
• निर्माता-एंकर और स्टार प्लस चैनल से जुड़े सेलिब्रिटिज क्यों नहीं करते सच का सामना?
• सवाल ये भी है कि जिन सवालों को उछाल कर प्रतिभागियों की पारिवारिक मर्यादाएं तार तार की जा रही हैं उन्हीं सवालों का सामना पहले इस कार्यक्रम के एंकर, पोडयूसर और कार्यक्रम से जुड़े अन्य प्रमुख लोग क्यों नहीं करते?
• क्या महज चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए ऐसे बेहूदे, अश्‍लील और अशालीन सवाल किसी से सार्वजनिक तौर पर पूछे जा सकते हैं। क्या भारतीय संविधान इसकी अनुमति देता है?
• क्या यह सही नहीं है कि मोमेंट ऑफ ट्रूथ जिसकी नकल कर सच का सामना कार्यक्रम तैयार किया गया है के अनेक संस्करण दुनिया के अनेक देशों में प्रतिबंधित हुए। ग्रीस और कोलंबिया जैसे देशों ने इस कार्यक्रम की प्रतिकृतियों का प्रसारण प्रतिबंधित किया।
क्या कहता है संविधान और शासन
भारतीय संविधान की धारा 19 जहां अपने सभी नागरिकों को वाक-स्वातंत्र्य एवं अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का मौलिक अधिकार प्रदान करती है उसी के साथ वह भारत की संप्रभुता, अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्योंके साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्‍टाचार एवं सदाचार के हितों को संरक्षित करने के लिए इस स्वातंत्र्य का युक्तियुक्त निर्बंधन भी करती है। इस लिहाज से लोक व्यवस्था, शिष्‍ट आचरण एवं सदाचार को बिगाड़ने के लिए इस कार्यक्रम को दोषी ठहराया जा सकता है भले ही इसमें कितना ही सच या झूठ क्यों ना समाहित हो।
इसके अतिरिक्त भारतीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रसार व प्रचार अनुदेशों एवं उसकी शर्तों के अनुच्छेद 6-1 का भी इस कार्यक्रम के प्रसारण द्वारा स्वत: ही उल्लंघन हो जाता है। ये अनुच्छेद शालीन एवं स्वस्थ मनोरंजन को प्रोत्साहन देता है।

Monday, July 20, 2009

दिए ज़िन्दगी के रोशन करेंगे....

अमराइयां अब नहीं हैं, कोयल की कूक भी नहीं है
तालों में देखो पानी नहीं है, पपीहे की पीकहां नहीं है
गीधों की टोली दिखती नहीं है, कउवा बैठा उदास है
मनों में हमारे जहर भर रहा, जहरीली होती सांस है
कैसी अजब छाई है जड़ता उठती नहीं अब आवाज है
हाले-चमन बुरा है बहुत, सोचो कैसे जीएंगे
कैसे तुम जीओगे सोचो तो कैसे हम जीएंगे.......


तपती धरती चढा बुखार
मानो न मानो मेरे यार
हमारे तुम्हारे दिन हैं चार
मगर पीढियाँ आगे भी हैं
बच्चों की खुशियाँ आगे ही हैं
सोचो उनको क्या दोगे
न बरसेगा पानी न होगी फुहार....


वक्त रहते अब जागना है
हक़ जिंदगी का अब माँगना है
हर सितम बाधा को तोड़ो
जुड़ती है दुनिया सबको जोडो
धरती हमारी ये घर है हमारा
चेहरा इसका किसने बिगाडा
जहाँ को बदलने हम चलेंगे
दिए ज़िन्दगी के रोशन करेंगे....

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हाँ, यही ज़िन्दगी...

रात स्याह होती गई रास्ते हम भटकने लगे
उम्र ज्यों बढ़ती गई हम भी छोटे होने लगे
स्वप्न देखे-दिखाए, जाने क्यों बिखरने लगे
हंसते हंसते अरे क्या हुआ, फूट फूट हम रोने लगे १


हंसाती रुलाती यही जिंदगी
रूठती मनाती यही जिंदगी
जीतती हारती यही जिंदगी
मेरी ज़िन्दगी हाँ तेरी जिन्दगी २

मन में था एक सपना, बदलता गया....
चोट मिलती गयी, स्वप्न ढहता गया...
बदलने की सोची थी हमने फिजाएं
वक्त ऐसा चला सब बदलता गया
हमको लगा कि कुछ मैंने है किया
वक्त आया तो पाया मैं ही बदलता गया

बदलता है क्या सिर्फ आदमी
बदलती नहीं क्या तक़दीर है
झाडे पोंछे नहीं अगर रोज तो क्या
धुंधलाती नहीं तस्वीर है
जलती धधकती अगर आग है
उठाती धुआं भी वही आग है
यही है बदलना हम भी हैं बदले
मगर आग है ये छुपी आग है।

अँधेरा घना है कुहासा है छाया
पथ पर रुके क्यों, ये जवानी नही है
भटके हो थोडा पर चलो तो sahi
रुकना कहीं से बुद्धिमानी नहीं है।
पग है तुम्हारा तो राहें तुम्हारी
छोटी सी सबकी कहानी यही है
बड़प्पन ना खोना छोटे न होना
हराती जिताती यही जिन्दगी है यही जिंदगी है....

हे काशी! तुम रहती कहाँ हो...

एक पुरानी कविता जो काशी में गंगा तट पर अनायास फूट पड़ी थी।


गलियों में गंगा किनारे,
घर घर में अंगना दुआरेतुमको ढूंढा
बहोत मिलती नहीं हो!
अब तो बता दो हे काशी,
हे काशीतुम रहती कहाँ हो, रहती कहाँ हो, रहती कहाँ हो?


बाबा की छांव में, हनुमत के गाँव में
वरुणा किनारे, अस्सी के द्वारे
तुमको खोजा बहोत, मिलती नहीं हो
अब तो बता दो हे काशी तुम रहती कहाँ हो......


मंत्रो में खोजा, सन्तों में खोजा
ग्रन्थों को बांचा, मन में भी झाँका
तुम मिलती नहीं होअब तो बता दो
हे काशीतुम रहती कहाँ हो...

।ध्यान होता नहीं, मन सधता नही
तुमको जाने बिना कुछ दिखता नहीं
भोले कृपा हो तो जीवन सफल हो
काशी बिना कुछ होता नहीं........जारी